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Ramayana

श्रीरामावतार-वर्णनके प्रसङ्गमें रामायण-बालकाण्डकी संक्षिप्त कथा

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ ! अब मैं ठीक उसी प्रकार रामायणका वर्णन करूँगा, जैसे पूर्वकालमें नारदजीने महर्षि वाल्मीकिजीको सुनाया था। इसका पाठ भोग और मोक्ष दोनोंको देनेवाला है ॥ १ ॥
देवर्षि नारद कहते हैं- वाल्मीकिजी! भगवान् विष्णुके नाभिकमलसे ब्रह्माजी उत्पन्न हुए हैं। ब्रह्माजीके पुत्र हैं मरीचि। मरीचिसे कश्यप, कश्यपसे सूर्य और सूर्यसे वैवस्वतमनुका जन्म हुआ। उसके बाद वैवस्वतमनुसे इक्ष्वाकुकी उत्पत्ति हुई। इक्ष्वाकुके वंशमें ककुत्स्थ नामक राजा हुए। ककुत्स्थके रघु, रघुके अज और अजके पुत्र दशरथ हुए। उन राजा दशरथसे रावण आदि राक्षसोंका वध करनेके लिये साक्षात् भगवान् विष्णु चार रूपोंमें प्रकट हुए। उनकी बड़ी रानी कौसल्याके गर्भसे श्रीरामचन्द्रजीका प्रादुर्भाव हुआ। कैकेयीसे भरत और सुमित्रासे लक्ष्मण एवं शत्रुघ्नका जन्म हुआ। महर्षि ऋष्यश्रृङ्गने उन तीनों रानियोंको यज्ञसिद्ध चरु दिये थे, जिन्हें खानेसे इन चारों कुमारोंका आविर्भाव हुआ। श्रीराम आदि सभी भाई अपने पिताके ही समान पराक्रमी थे। एक समय मुनिवर विश्वामित्रने अपने यज्ञमें विघ्न डालनेवाले निशाचरोंका नाश करनेके लिये राजा दशरथसे प्रार्थना की (कि आप अपने पुत्र श्रीरामको मेरे साथ भेज दें)। तब राजाने मुनिके साथ श्रीराम और लक्ष्मणको भेज दिया। श्रीरामचन्द्रजीने वहाँ जाकर मुनिसे अस्त्र-शस्त्रोंकी शिक्षा पायी और ताड़का नामवाली निशाचरीका वध किया। फिर उन बलवान् वीरने मारीच नामक राक्षसको मानवास्त्रसे मोहित करके दूर फेंक दिया और यज्ञविघातक राक्षस सुबाहुको दल-बलसहित मार डाला। इसके बाद वे कुछ कालतक मुनिके सिद्धाश्रममें ही रहे। तत्पश्चात् विश्वामित्र आदि महर्षियोंके साथ लक्ष्मणसहित श्रीराम मिथिला नरेशका धनुष-यज्ञ देखनेके लिये गये ॥ २-९॥ [अपनी माता अहल्याके उद्धारकी वार्ता सुनकर संतुष्ट हुए] शतानन्दजीने निमित्त-कारण बनकर श्रीरामसे विश्वामित्र मुनिके प्रभावका वर्णन किया। राजा जनकने अपने यज्ञमें मुनियोंसहित श्रीरामचन्द्रजीका पूजन किया। श्रीरामने धनुषको चढ़ा दिया और उसे अनायास ही तोड़ डाला। तदनन्तर महाराज जनकने अपनी अयोनिजा कन्या सीताको, जिसके विवाहके लिये पराक्रम ही शुल्क निश्चित किया गया था, श्रीरामचन्द्रजीको समर्पित किया। श्रीरामने भी अपने पिता राजा दशरथ आदि गुरुजनोंके मिथिलामें पधारनेपर सबके सामने सीताका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया। उस समय लक्ष्मणने भी मिथिलेश-कन्या उर्मिलाको अपनी पत्नी बनाया। राजा जनकके छोटे भाई कुशध्वज थे। उनकी दो कन्याएँ थीं- श्रुतकीर्ति और माण्डवी। इनमें माण्डवीके साथ भरतने और श्रुतकीर्तिके साथ शत्रुघ्नने विवाह किया। तदनन्तर राजा जनकसे भलीभाँति पूजित हो श्रीरामचन्द्रजीने वसिष्ठ आदि महर्षियोंके साथ वहाँसे प्रस्थान किया। मार्गमें जमदग्निनन्दन परशुरामको जीतकर वे अयोध्या पहुँचे। वहाँ जानेपर भरत और शत्रुघ्न अपने मामा राजा युधाजित्‌की राजधानीको चले गये ॥ १०-१५ ॥

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धर्म ध्यान और ज्ञान

सच्ची साधन क्या है?

वास्तव मे साधना ही ज्ञान की पूंजी है । वे साधक (जो साधना मे लीन हो ) जिन्होंने इस भौतिक युग के भाग दौड भरे जीवन मे साधना का मार्ग चुना है वे सभी धन्य है ।निश्चित ही उनमे कोई अलौकिक शक्ति निहित है, जो उन्हे दूसरे से हटकर बनाते है।

इस संसार मे सभी अपने सुखो को भोग रहे है , जबकी उपभोग मे असली सुख नही है, जितना हम भौतिक सुख के पीछे भागेंगे उतना अधिक कष्ट हमे प्राप्त होगा। और जो साधना करके अपने बुरे कर्मो का पश्चाताप करते है । उन्हे सही मार्ग चुनने मे कभी परेशानी नही होती ।

जो साधना मे लीन रहते है , उनका सौभाग्य इससे भी सहस्त्र गुना अधिक हो जाता है । यानी अगर वह व्यक्ति थोड़ा भी सदस्य कर्म करता है तो उस साधना उसे दुगुना फल प्राप्त होता है ।उन्हे अपने जीवन मे कोई ऐसा गुरू मिल जाता है , जो उसकी दशा और दिशा दोनो बदल कर रख देता है।

और ये ही सत्य है कि मनुष्य का उद्धार सद कर्मो से ही होता है, जिस ईश्वर ने हमे यह जीवन दिया है , उसकी भक्ति और भजन का मार्ग ही उसे मुक्त करता है । यानी अन्य मुक्ती का मार्ग और कोई नही है । इसी लिये किसी कोई भी अपना परम गुरु या आदर्श मानकर उसके निमित्त साधना करना व उसके आदर्शो का पालन करना।

साधना ही जीवन का वो श्रेयस्कर तथा श्रेष्ठ विधा है जिसको अपनाने से ही जीवन मे सफलतायें मिलने के साथ-साथ अद्वितीय व्यक्तित्व तथा चारित्रिक का निर्माण होता है ।

साधना की महत्ता को समझने के लिए किसी गुरू की आवश्यकता होती है , गुरु का अभिप्राय सिर्फ मानव मात्र ही नही अपितु वह जड,चेतन,पशु,पक्षी,प्रकृति कोई भी हो सकता है। साधना मे लीन व्यक्ति के मन मे कभी भी बुरे भाव,विचार, चेष्टा,लोभ,कर्म का आगमन नही होना चाहिए । इससे साधना करने वाले व्यक्ति की साधना का कोई प्रभाव या महत्व नही रह जाता।

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Ayurveda

मृत्युञ्जय योगोंका वर्णन

भगवान् धन्वन्तरि कहते हैं- सुश्रुत ! अब मैं मृत्युञ्जय-कल्पोंका वर्णन करता हूँ, जो आयु देनेवाले एवं सब रोगोंका मर्दन करनेवाले हैं। मधु, घृत, त्रिफला और गिलोयका सेवन करना चाहिये। यह रोगको नष्ट करनेवाली है तथा तीन सौ वर्षतककी आयु दे सकती है। चार तोले, दो तोले अथवा एक तोलेकी मात्रामें त्रिफलाका सेवन वही फल देता है। एक मासतक बिल्व- तैलका नस्य लेनेसे पाँच सौ वर्षकी आयु और कवित्व शक्ति उपलब्ध होती है। भिलावा एवं तिलका सेवन रोग, अपमृत्यु और वृद्धावस्थाको दूर करता है। वाकुचीके पञ्चाङ्गके चूर्णको खैर (कत्था) के क्वाथके साथ छः मासतक प्रयोग करनेसे रोगी कुष्ठपर विजयी होता है। नीली कटसरैयाके चूर्णका मधु या दुग्धके साथ सेवन हितकर है। खाँडयुक्त दुग्धका पान करनेवाला सौ वर्षोंकी आयु प्राप्त करता है। प्रतिदिन प्रातः काल मधु, घृत और सोंठका चार तोलेकी मात्रामें सेवन करनेवाला मनुष्य मृत्युविजयी होता है। ब्राह्मीके चूर्णके साथ दूधका सेवन करनेवाले मनुष्यके चेहरेपर झुर्रियाँ नहीं पड़ती हैं और उसके बाल। नहीं पकते हैं; वह दीर्घजीवन लाभ करता है। मधुके साथ उच्चटा (भुई आँवला) को एक तोलेकी मात्रामें खाकर दुग्धपान करनेवाला मनुष्य मृत्युपर विजय पाता है। मधु, घी अथवा दूधके साथ मेउड़के रसका सेवन करनेवाला रोग एवं मृत्युको जीतता है। छः मासतक प्रतिदिन एक तोलेभर पलाश-तैलका मधुके साथ सेवन करके दुग्धपान करनेवाला पाँचे सौ वर्षोंकी आयु प्राप्त करता है। दुग्धके साथ काँगनीके पत्तोंके रसका या त्रिफलाका प्रयोग करे। इससे मनुष्य एक हजार वर्षोंकी आयु प्राप्त कर सकता है। इसी प्रकार मधुके साथ घृत और चार तोलेभर शतावरी चूर्णका सेवन करनेसे भी सहस्रों वर्षोंकी आयु प्राप्त हो सकती है। घी अथवा दूधके साथ मेठड़की जड़का चूर्ण या पत्रस्वरस रोग एवं मृत्युका नाश करता है। नीमके पञ्चाङ्ग चूर्णको खैरके क्वाथ (काढ़े) की भावना देकर भृङ्गराजके रसके साथ एक तोलाभर सेवन करनेसे मनुष्य रोगको जीतकर अमर हो सकता है। रुदन्तिकाचूर्ण घृत और मधुके साथ सेवन करनेसे या केवल दुग्धाहारसे मनुष्य मृत्युको जीत लेता है। हरीतकीके चूर्णको भृङ्गराजरसकी भावना देकर एक तोलेकी मात्रामें घृत और मधुके साथ सेवन करनेवाला रोगमुक्त होकर तीन सौ वर्षोंकी आयु प्राप्त कर सकता है। गेठी, लोहचूर्ण, शतावरी समान भागसे भृङ्गराज-रस तथा घीके साथ एक तोला मात्रा में सेवन करनेसे मनुष्य पाँच सौ वर्षकी आयु प्राप्त करता है। लौहभस्म तथा शतावरीको भृङ्गराजके रसमें भावना देकर मधु एवं घीकें साथ लेनेसे तीन सौ वर्षकी आयु प्राप्त होती है। ताम्र भस्म, गिलोय, शुद्ध गन्धक समान भाग घीकुँवारके रसमें घोटकर दो-दो रत्तीकी गोली बनाये। | इसका घृतसे सेवन करनेसे मनुष्य पाँच सौ वर्षकी आयु प्राप्त करता है। असगन्ध, त्रिफला, चीनी, तैल और घृतमें सेवन करनेवाला सौ वर्षतक जीता है। गदहपूर्नाका चूर्ण एक पल मधु घृत और दुग्धके साथ भक्षण करनेवाला भी शतायु होता है। अशोककी छालका एक पल चूर्ण मधु और घृतके साथ खाकर दुग्धपान करनेसे रोगनाश होता है। निम्बके तैलकी मधुसहित नस्य लेनेसे मनुष्य सौ वर्ष जीता है और उसके केश सदा काले रहते हैं। बहेड़ेके चूर्णको एक तोला मात्रामें शहद, घी और दूधसे पीनेवाला शतायु होता है। मधुरादिगणकी ओषधियों और हरीतकीको गुड़ और घृतके साथ खाकर दूधके सहित अन्न भोजन करनेवालोंके केश सदा काले रहते हैं तथा वह रोगरहित होकर पाँच सौ वर्षोंका जीवन प्राप्त करता है। एक मासतक सफेद पेठेके एक पल चूर्णको मधु, घृत और दूधके साथ सेवन करते हुए दुग्धान्नका भोजन करनेवाला नीरोग रहकर एक सहस्र वर्षकी आयुका उपभोग करता है। कमलगन्धका चूर्ण भाँगरेके रसकी भावना देकर मधु और घृतके साथ लिया जाय तो वह सौ वर्षोंकी आयु प्रदान करता है। कड़वी तुम्बीके एक तोलेभर तेलका नस्य दो सौ वर्षोंकीआयु प्रदान करता है। त्रिफला, पीपल और सोंठ -इनका प्रयोग तीन सौ वर्षोंकी आयु प्रदान करता है। इनका शतावरीके साथ सेवन अत्यन्त बलप्रद और सहस्र वर्षोंकी आयु प्रदान करनेवाला है। इनका चित्रकके साथ तथा सोंठके साथ विडंगका प्रयोग भी पूर्ववत् फलप्रद है। त्रिफला, पीपल और सोंठ – इनका लोह, भृङ्गराज, खरेटी, – निम्ब-पञ्चाङ्ग, खैर, निर्गुण्डी, कटेरी, अडूसा और पुनर्नवाके साथ या इनके रसकी भावना देकर या इनके संयोगसे बटी या चूर्णका निर्माण करके उसका घृत, मधु, गुड़ और जलादि अनुपानोंके साथ सेवन करनेसे पूर्वोक्त फलकी प्राप्ति होती है। ‘ॐ हुं सः ‘ – इस मन्त्रसे* अभिमन्त्रित योगराज मृतसंजीवनीके समान होता है। उसके सेवनसे मनुष्य रोग और मृत्युपर विजय प्राप्त करता है। देवता, असुर और मुनियोंने इन कल्प-सागरोंका सेवन किया है ॥ १-२३ ॥

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धर्म मन्त्र-विद्या

मन्त्र-विद्या

अग्रिदेव कहते हैं- वसिष्ठ ! अब मैं भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली मन्त्र-विद्याका वर्णन करता हूँ, ध्यान देकर उसका श्रवण कीजिये । द्विजश्रेष्ठ! बीससे अधिक अक्षरोंवाले मन्त्र ‘मालामन्त्र’ दससे अधिक अक्षरोंवाले ‘मन्त्र’ और दससे कम अक्षरोंवाले ‘बीजमन्त्र’ कहे गये हैं। ‘मालामन्त्र’ वृद्धावस्थामें सिद्धिदायक होते हैं, ‘मन्त्र’ । यौवनावस्थामें सिद्धिप्रद है। पाँच अक्षरसे अधिक तथा दस अक्षरतकके मन्त्र बाल्यावस्थामें सिद्धि न प्रदान करते हैं*। अन्य मन्त्र अर्थात् एकसे लेकर पाँच अक्षरतकके मन्त्र सर्वदा और सबके लिये सिद्धिदायक होते हैं ॥ १-२६ ॥

मन्त्रोंकी तीन जातियाँ होती हैं-स्त्री, पुरुष और नपुंसक। जिन मन्त्रोंक अन्तमें ‘स्वाहा’ पदका प्रयोग हो, वे स्त्रीजातीय हैं। जिनके अन्तमें ‘नमः’ पद जुड़ा हो, वे मन्त्र नपुंसक हैं। शेष सभी मन्त्र पुरुषजातीय हैं। वे वशीकरण और उच्चाटन – कर्ममें प्रशस्त माने गये हैं। क्षुद्रक्रिया तथा रोग निवारणार्थ अर्थात् शान्तिकर्ममें स्त्रीजातीय मन्त्र’ उत्तम माने गये हैं। इन सबसे भिन्न (विद्वेषण एवं अभिचार आदि) कर्ममें नपुंसक मन्त्र उपयोगी बताये गये हैं ।। ३-४ ॥

मन्त्रोंके दो भेद हैं-‘आग्रेय’ और ‘सौम्य’ | जिनके आदिमें ‘प्रणव’ लगा हो, वे ‘आग्रेय’ हैं और जिनके अन्तमें ‘प्रणव’का योग है, वे ‘सौम्य’ कहे गये हैं। इनका जप इन्हीं दोनोंके कालमें करना चाहिये (अर्थात् सूर्य-नाड़ी चलती हो तो ‘आग्रेय-मन्त्र’का और चन्द्र-नाड़ी चलती हो तो ‘सौम्य मन्त्रों का जप करे)। जिस मन्त्र में तार (ॐ), अन्त्य (क्ष), अग्नि (र), वियत् (ह) – इनका बाहुल्येन प्रयोग हो, वह ‘आग्रेय’ माना गया है। शेष मन्त्र ‘सौम्य’ कहे गये हैं। ये दो प्रकारके मन्त्र क्रमशः क्रूर और सौम्य कर्मोंमें प्रशस्त माने गये हैं। ‘ ‘आग्रेय मन्त्र’ प्रायः अन्तमें ‘नमः’ पदसे युक्त होनेपर ‘सौम्य’ हो जाता है और ‘सौम्य मन्त्र भी अन्तमें ‘फट्’ लगा देनेपर ‘आग्रेय’ हो जाता है। यदि मन्त्र सोया हो या सोकर तत्काल ही जगा हो तो वह सिद्धिदायक नहीं होता है। जब वामनाड़ी चलती हो तो वह ‘आग्रेय मन्त्र’ के सोनेका समय है और यदि दाहिनी नाड़ी (नासिकाके दाहिने छिद्रसे साँस ) चलती हो तो वह उसके जागरणका काल है। ‘सौम्य मन्त्र’ के सोने और जागनेका समय इसके विपरीत है। अर्थात् वामनाड़ी (साँस) उसके जागरणका और दक्षिणनाड़ी उसके शयनका काल है। जब दोनों नाड़ियाँ साथ-साथ चल रही हों, उस समय आग्रेय और सौम्य-दोनों मन्त्र | जगे रहते हैं। (अतः उस समय दोनोंका जप किया जा सकता है’।) दुष्ट नक्षत्र, दुष्ट राशि तथा शत्रुरूप आदि अक्षरवाले मन्त्रोंको अवश्य त्याग देना चाहिये ।। ५-९६ ॥

(नक्षत्र चक्र)

राज्यलाभोपकाराय प्रारभ्यारिः स्वरः कुरून् ॥ गोपालकुकुटीं प्रायात् फुल्लावित्युदिता लिपि:’ । 

(साधकके नामके प्रथम अक्षरको तथा मन्त्रके आदि अक्षरको लेकर गणना करके यह जानना है कि उस साधकके लिये वह मन्त्र ह अनुकूल है या प्रतिकूल ? इसीके लिये उपर्युक्त श्लोक एक संकेत देता है – ) ‘राज्य से लेकर ‘फुल्लौ’ तक लिपिका ही संकेत है। ‘इत्युदिता लिपि:’ इस प्रकार लिपि कही उ गयी है। ‘नारायणीय-तन्त्र ‘में इसकी व्याख्या करते हुए कहा गया है कि अश्विनीसे लेकर अ उत्तरभाद्रपदातकके छब्बीस नक्षत्रोंमें ‘अ’से लेकर ‘ह’ तकके अक्षरोंको बाँटना है। किस नक्षत्रमें कितने अक्षर लिये जायेंगे, इसके लिये उपर्युक्त श्लोक संकेत देता है। ‘रा’ से ‘ल्लौ’ तक छब्बीस अक्षर हैं; वे छब्बीस नक्षत्रोंके प्रतीक हैं। तन्त्रशास्त्रियोंने अपने संकेतवचनोंमें केवल व्यञ्जनोंको ग्रहण किया है और समस्त व्यञ्जनोंको कवर्ग, टवर्ग, पवर्ग तथा यवर्गमें बाँटा है। संकेत-लिपिका जो अक्षर जिस वर्गका प्रथम, द्वितीय, तृतीय या चतुर्थ अक्षर है, उससे उतनी ही संख्याएँ ली जायँगी। संयुक्ताक्षरोंमेंसे अन्तिम अक्षर ही गृहीत ब होगा। स्वरोंपर कोई संख्या नहीं है। उपर्युक्त श्लोकमें पहला अक्षर ‘रा’ है। यह यवर्गका दूसरा अक्षर है, अतः उससे दो संख्या ली । जायगी। इस प्रकार ‘रा’ यह संकेत करता है कि अश्विनी नक्षत्रमें दो अक्षर ‘अ आ’ गृहीत होंगे। – दूसरा अक्षर है ‘ज्य’, यह संयुक्ताक्षर है, इसका अन्तिम अक्षर ‘य’ गृहीत होगा। वह अपने वर्गका प्रथम अक्षर है, अतः एकका बोधक होगा। इस प्रकार पूर्वोक्त ‘ज्य ‘के संकेतानुसार भरणी नक्षत्रमें एक अक्षर ‘इ’ लिखा जायगा। इस बातको ठीक समझनेके लिये निम्नाङ्कित

  • महाकपिल रात्र तथा श्रीविद्यार्णव-तन्त्र’ में मालामन्त्रोंको ‘वृद्ध’ मन्त्रोंको ‘युवा’ तथा पाँचसे अधिक और दस अक्षरतकके मन्त्रोको ‘बाल’ बताया गया है। ‘भैरवी-तन्त्र’ में सात अक्षरवाले मन्त्रको ‘चाल’, आठ अक्षरवाले मन्त्रको ‘कुमार’, सोलह अक्षरोंक
  • मन्त्रको ‘तरुण’ तथा चालीस अक्षरोंके मन्त्रको ‘प्रौढ़’ बताया गया है। इससे ऊपर अक्षर संख्यावाला मन्त्र ‘वृद्ध’ कहा गया है।
  • हृदयान्ता मया २. ‘कुल प्रकाश- तन्त्र में स्त्रीजातीय मन्त्रोंको शान्तिकर्ममें उपयोगी बताया गया है। शेष बातें अग्रिपुराणके ही अनुसार स्त्रीमन्त्रा वहिजापान्ता नपुंसकाः । शेषाः पुमांस इत्युक्ताः स्त्रीमन्त्राः सादिशान्तिके ॥ नपुंसकाः स्मृता चाभिचारके । पुमांसः स्युः स्मृताः सर्वे बध्योच्चाटनकर्मसु ॥
  • १. ‘शारदातिलक की टीकामें उद्धृत प्रयोगसार ‘में शब्दभेदसे यही बात कही गयी है। श्रीनारायणीय-तन्त्र में तो ठीक ‘अग्निपुराण’ की आनुपूर्वी हो प्रयुक्त हुई है।
  • (श्रीविद्यार्णवतन्त्र २ उच्च्छास)
  • ‘प्रयोगसार ‘में’ वषट्’ और ‘फट्’ जिनके अन्तमें लगें, ये ‘पुल्लिङ्ग’ ‘पौषट्’ और ‘स्वाहा’ अन्तमें लगें, वे ‘स्त्रीलिङ्ग’ तथा ‘हुं नमः’ जिनके अन्तमें लगें, वे ‘नपुंसक लिङ्ग मन्त्र कहे गये हैं।
  • ३. ‘श्रीनारायणीय-तन्त्र में भी यह बात इसी आनुपूर्वीमें कही गयी है।
  • ४. ‘शारदातिलक’ में सौम्य मन्त्रोंकी भी सुस्पष्ट पहचान दी गयी है— जिसमें ‘सफार’ अथवा ‘यकार का बाहुल्य हो, यह ‘सौम्य- मन्त्र’ है। जैसा कि वचन है-‘सौम्या भूमिनेन्द्रमृताक्षराः । ‘
  • ५. ‘शारदातिलक’ में भी ‘विज्ञेयाः क्रूरसौम्ययो: ‘ कहकर इसी आतकी पुष्टि की गयी है। ईशानशम्भुने भी यही बात कही है- ‘स्यादाग्नेयैः क्रूरकार्यप्रसिद्धिः सौम्मीः सौम्यं कर्म कुर्याद् यथावत्।
  • ६. ईशानशम्भुने भी ऐसा ही कहा है- आग्नेयोऽपि स्यात्तु सौम्यो नमोऽन्तः सौम्योऽपि स्यादग्निमन्त्रः फडन्तः । ‘नारायणीय-तन्त्र में यही बात यों कही गयी है- आयमन्त्रः सौम्यः स्यात् प्रायशोऽन्ते नमोऽन्वितः । सौम्यमन्त्रस्तथाऽऽप्रेयः फटकारेणान्वितोऽन्ततः ॥ किया जा सकता है’।) दुष्ट नक्षत्र, दुष्ट राशि तथा शत्रुरूप आदि अक्षरवाले मन्त्रोंको अवश्य त्याग देना चाहिये ।। ५-९६ ॥
  • १. ‘बृहन्नारायणीय- तन्त्र’ में इसी भावकी पुष्टि निम्नाति श्लोकोंद्वारा की गयी है-
  • सुप्तः प्रयुद्धमात्रो वा मन्त्रः सिद्धिं न यच्छति । स्वापकालो वामवहो जागरो दक्षिणावहः ॥ आप्रेयस्य मनोः सौम्यमन्त्रस्यैतद्विपर्ययः । प्रबोधकालं जानीयादुभयोरुभयावहः ॥ स्थापकाले मन्त्रस्य जपो ऽनर्थफलप्रदः ।
  • इसमें स्पष्ट कहा गया है कि मन्त्र जब सो रहा हो, उस समय उसका जप अनर्थ फलदायक होता है। ‘नारायणीय-तन्त्र में ‘स्वाप’ और ‘जागरणकाल’को और भी स्पष्टताके साथ बताया गया है। वामनादी, इडानाड़ी और चन्द्रनाड़ी एक वस्तु है तथा दक्षिणनाही, सूर्यनाड़ी एवं पिङ्गलानाड़ी एक अर्थके वाचक पद हैं। पिङ्गसानादीमें श्वासवायु चलती हो तो ‘आग्रेय मन्त्र’ प्रबुद्ध होते हैं, इडानादीमें श्वासवायु चलती हो तो ‘सोममन्त्र’ जाग्रत् रहते हैं। पिङ्गला और इडा दोनोंमें बासवायुकी स्थिति हो अर्थात् यदि सुषुम्णामें वासवायु चलती हो तो सभी मन्त्र प्रयुद्ध (जाग्रत्) होते हैं। प्रबुद्ध मन्त्र ही साधकोंको अभीष्ट फल देते हैं। यथा-
  • पिङ्गलायां गते वायी प्रबुद्धा ह्यग्रिरूपिणः । इडां गते तु पवने बुध्यन्ते सोमरूपिणः ॥ पिङ्गलेडागते वायौ प्रबुद्धाः सर्व एव हि प्रयुद्धा मनवः सर्वे साधकानां फलन्त्युमे ॥
  • २. जैसा कि ‘भैरवी तन्त्र’ में कहा गया है- दुष्टराशिमूलेभूतादिवर्णप्रचुरमन्त्रकम्
  • । सम्यक् परीक्ष्य तं यत्नाद् वर्जयेन्मतिमान् नरः ॥ ३. श्रीरुद्रयामल ‘में तथा ‘नारायणीय तन्त्र में भी यह श्लोक आया है, जो लिपि (अक्षर)का संकेतमात्र है। इसमें शब्दार्थ अपेक्षित नहीं है। ‘शारदातिलक’ में दूसरा श्लोक संकेतके लिये प्रयुक्त हुआ है। इसमें छब्बीस नक्षत्रोंमें अक्षरोंके विभाजनका संकेत है, जो ज्यौतिषकी प्रक्रियासे भिन्न है।
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धर्म ध्यान और ज्ञान पवित्र आत्मा

मैं एक पवित्र आत्मा हूं

जब कहीं भीआत्मा को जानने की जिज्ञासा होती है । तो हमेशा यह अच्छी तरह समझना चाहिए कि संसार में आत्मा नाम की शक्ति अगर है तो वह अनंत रूप में सर्वत्र होकर भी एक है ठीक उसी तरह जैसे पानी में नमक की मात्रा मिलने पर सर्वत्र एक होती है । आत्मा प्रत्येक जीव में विद्यमान है । जहां भीआपकी सोच जाती है, वहां तक आत्मा का एक रूप विराजमान है । अब लोग बाग़ कहते हैं इस व्यक्ति में बुरी आत्मा का प्रवेश हो गया है ऐसा नहीं होताआत्मा तो एक ही थी पर जिसमें बुरी आत्मा का प्रवेश होना बता रहे हैं । उस जगह की कर्म ही बुरे थे और दोस आत्मा के दिया जाता है । आत्मा सदैव पवित्र है , निर्मल है , सर्वव्यापी है , आत्मा मेंकोई भेद नहीं है । भेद की दृष्टि से अगर देखा जाएतो जीवसंसार में अनंत प्रकार के पाए जाते हैं और उनके कर्म भी अनंत प्रकार के होते हैं । जिसके परिणाम स्वरूप जो मनुष्य को बुरा लगता है जिसे दूसरों का अहित होता है , वह जीव कठोर दुष्ट प्रवृत्ति का कहलाता है । ऐसे हीअलग-अलग तरह  के जीवन में विभिन्न प्रकार के स्वभाव पाए जाते हैं । जो उन्हें भला और बुरा बनाते हैं । तो हमेशा कोशिश यह करोकि आपकी आत्मा हमेशा पवित्र बनी रहे हमेशा सोच यह बनाई रखो …..

मैं एक पवित्र आत्मा हूं । मुझे अगर पहचाना है तो उस दीपक को देखो जिसके नीचे हमेशा अंधेरा रहता है । जो खुद जलकर दुनिया को प्रकाशित करता है और जो इससे आकर्षित होकर इसे जानना चाहते हैं, वह खुद इसमें (कीट पतंग की तरह) स्वाहा हो जाते हैं और जो इसकी सेवा ( तेल या घी डालना) करते हैं मैं हमेशा उन्हें प्रकाशित करता हूं

मैं आत्मा ही तो हूं , जो तुम्हारे बाहर और भीतर सर्वत्र सदैव विद्यमान रहती है । मैं ही गुरु हूं , मैं ही देवता हूं और मैं ही भगवान हूं । सर्वत्र मेरे होते हुए भी जीव दुखी है । इसकी वजह उस जीव का अज्ञान है । जो प्राणी मात्रा में भेद करता है । अपना और पराया समझता है , जब कि मै सदैव एक ही हू॔। दूसरे का बुरा करना मेरा ही बुरा है । दूसरे का भला करना वह भी मेरा ही  है । यह तो जीव को समझना है कि उसे क्या करता है । मैं आत्मा हूं । अजर हूं । अमर हूं । मेरा ना कोई बुरा कर सकताऔर ना ही भला , जीव अपने कर्मों से ही अपनी पोटली सर पर रखकर घूमता फिरता है । इसमें मेरा कोई दोस नहीं । ईश्वर कहते हैं , संसार से उबरने काअगर कोई रास्ता है तो वह सिर्फ सेवा करना है । इसके अलावा कोई रास्तामेरे तक नहीं पहुंच पाता है । बिना सेवा के मनुष्य यूं ही मेरे ब्रह्म के जाल में फंसा रहता है ।

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धर्म

सनातन धर्म क्या है,हमें क्या सीख देता है ?

सनातन’ का अर्थ है – शाश्वत या ‘सदा बना रहने वाला’, अर्थात् जिसका न आदि है न अन्त। सनातन धर्म मूलतः भारतीय धर्म है, जो किसी समय पूरे बृहत्तर भारत (भारतीय उपमहाद्वीप) तक व्याप्त रहा है और यह एक समय पर विश्व व्याप्त था परंतु विभिन्न कारणों से हुए भारी धर्मान्तरण के उपरांत भी विश्व के इस क्षेत्र की बहुसंख्यक जनसंख्या इसी धर्म में आस्था रखती है।

सनातन धर्म एक ऐसी व्यवस्था है जहां संपूर्ण विश्व को एक ही रूप में देखा जाता है यहां प्रत्येक जीव को परमात्मा के स्वरूप में देखा जाता है सनातन शब्द में ही इसका भाव छुपा है सनातन “सनातन धर्म” का अर्थ “सना+तन” “ध+रम”। “सना” का अर्थ “श्वास” से “तन”का अर्थ “शरीर” से है। जब मनुष्य जन्म लेता तो वह जब पहली श्वास से इसकी शुरुआत होती है तो इसे सनातन कहते है। इसको जब हम उल्टा करते हैं तो शब्द बनता है  नतनास (जो सदैव दूसरों की सेवा में नतमस्तक होकर रहता है उसका कभी नाश नहीं होता)सनातन धर्म प्रत्येक प्राणी को अपनी इच्छा के अनुरूप जीवन जीने का अधिकार देता है यहां भली-भांति यह सीख दी जाती है की सर्वप्रथम आप अपने माता-पिता को भगवान के स्वरूप में पूजा (सेवा) करें फिर उसके बाद जो पशु हमें दूध पिलाते हैं जैसे गौ माता व समस्त पशुधन जिसकी होली और दीपावली पर पूजा की जाती है व श्रृंगार किया जाता है जिससे हमारे बच्चों में सदैव प्रत्येक जानवर के प्रति प्रेम और मातृत्व का भाव बना रहे यह हमारे वेद और पुराणों की ही तो शिक्षा है जिसकी वजह से दत्तात्रेय नमक संत हुए थे जो भगवान के अवतार कहा आए थे उनके 24 गुरु बने थे जिम कुत्ते घोड़े गधे तक भी शामिल थे यह सनातन ही तो है जहां अपनी मिट्टी से इतना प्रेम होता है की मिट्टी के हर कण में उसे परमात्मा के अंश को देखा है समस्त जीव और जीवन के बीच अखंड प्रीति अगर कहीं देखी जा सकती है तो वह एकमात्र सनातन धर्म जिसको वर्तमान में हिंदू धर्म कहते हैं बस यही है इसके अलावा नजर प्रसार कर देखो इतना अधिक प्रेम जीवन के प्रति दिखाई नहीं देता

हमारे भारत की इस धरती पर महापुरुषों की कमी नहीं हुई कभी जिसकी वजह अगर देखी जाए तो वह सिर्फ यही है की सनातन हमें जीवो के प्रति प्रेम रखते हुए सभी के प्रति त्याग का भाव सीखना है और यह त्यागी तो है जो मनुष्य को बड़ा बनता है वह वृक्ष किस काम का जो किसी को छाया ही ना दे जो बुके की भूख ना मिटा सके वह भी किसी काम का इसलिए संसार में अगर कोई भगवान का स्वरूप है तो वह त्याग है बलिदान है जो हमेशा दूसरों के लिए अपना सर्वस्व स्वाहा करने में तत्पर रहता है

आज हमारे देश में अक्सर देखने में आता है की राजनीतिक संगठन जो अपने आप को धर्म के पहरेदार बात कर संसार को बरगलाकर अपनी  झूठी चिकनी चुपड़ी बातों से मुर्ख बनाकर धर्म की नई नई परिभाषाएं बताते हैं पर सच पूछो तो वह धर्म नहीं हो सकता जहां निजता के स्वार्थ छुपे हो वह धर्म कभी नहीं हो सकता जहां सिर्फ हम अपना ही भला सोचते हो अपने परिवार का भला सोचते हो धर्म सिर्फ वही है जहां निजता को छोड़कर सर्वव्यापी एक रूप संसार को जैसे हम सांस लेते हैं वही सांस प्रत्येक जीव लेता है  जो सूर्य के ताप से प्रत्येक प्राणी अपनी दिनचर्या पूरी करता है और वह समंदर का पानी जो सबके लिए समान रूप से प्रवाहित होता है और वह धरती जिसके आंगन पर सभी समान रूप से जीवन यापन करते हैं और वह आसमान जिसकी छत के तले सभी एक घर बनाकर जीवन यापन करते हैं यह सब समझते हुए भी इतनी दूरी होने की वजह सिर्फ अज्ञान रूपी अधर्म  है वह धर्म कभी नहीं होता जो एक दूसरे को तोड़ता हो धर्म का कार्य सिर्फ जोड़ना अपनी वास्तविकता का ज्ञान करवाना है

क्या हमारे देश में भगवान के स्वरूप में भगवत गीता के अर्जुन और कृष्णा अवतार नहीं हुए क्या रामायण के राम अवतार नहीं हुए अगर वर्तमान स्थिति देखें तो क्या गौतम बुद्ध अवतार नहीं हुए क्या महावीर अवतार नहीं हुए क्या पैगंबर अवतार नहीं हुए और तो और कुछ दिनों पहले एक मदर टेरेसा के नाम से स्त्री क्या वह अवतार नहीं थी और तो और सरल भाषा में समझा जाए तो क्या यहां जीवित प्रत्येक वह प्राणी जो सदैव अपने जीवन को लोक हितार्थ समस्त जन कल्याणकारी कार्यों में लगाने वाला अवतार नहीं है बिना हरि कृपा के बिना परमात्मा की कृपा की किसी से कोई सेवा नहीं हो सकती सेवा सिर्फ वही होगी जहां परमात्मा का अवतरण हुआ है और मैं ऐसे लोगों को जो सदैव सेवा में तल्लीन रहते हैं वे चाहे किसी भी संप्रदाय से हैं उदाहरण के लिए वह अपने आप को ईसाई धर्म कहते हैं चाहे मुसलमान धर्म चाहे सिख धर्म चाहे जैन धर्म और अनंत जिनका मैं यहां बखाना नहीं कर सकता वे सब कथा कथित धर्म इन सब में भी अगर ऐसा इंसान हो जो त्यागी हो सेवक हो ज्ञानी हो और गुनी हो तो मैं उसको भगवान का अवतार ही समझूंगा इसके अगर किसी की विपरीत सोच है तो उसे मैं धर्म ना समझ कर अधर्म मानता हूं                  

काश हमारे देश में वेद और पुराणों की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाती अगर ऐसा होता तो यहां हमारा समाज छोटे-छोटे टुकड़ों में बिखरता नहीं यह अज्ञान ही तो हैजो संप्रदाय विशेष को धर्म कहते हैं जबकि धर्म का भाव सेवा से वह किसी भी संप्रदाय विशेष का व्यक्ति कर सकता है और जो सेवा देने की चेष्टा में तत्पर रहता है वही तो अधर्म है ज्यादातर प्राणी धर्म की मर्यादाओं को भूलकर अधर्म के साथ ही रहना पसंद करते हैं क्योंकि अधर्म में सब कुछ फोकट का मिलता है धर्म एक तपस्या है वह सभी प्राणी नहीं करते यह सब मेरे व्यक्तिगत विचार है

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Ramayana धर्म ध्यान और ज्ञान

रामायण की इन चौपाइयों का करें पाठ, सभी मनोकामनाएं भी होंगी पूरी,  हर संकट होगा दूर

जीवन के किसी न किसी मोड़ पर इंसान के सामने कोई ऐसी विपत्ति आ खड़ी होती है, जिससे पार पाने में वह खुद को असमर्थ पाता है। ऐसे में हर कोई अपने इष्टदेव का नाम लेता है। इसके अलावा कई ऐसे मंत्र हैं, जो इंसान को किसी भी तरह के संकट से छुटकारा दिलाने में मददगार साबित हो सकते हैं। अगर आपको भी किसी तरह का संकट या चिंता सता रही है, तो आप मानस मंत्र का सहारा ले सकते हैं। वैसे तो रामायण की हर चौपाई अपने आप में मंत्र जैसा प्रभाव रखती है, पर कुछ चौपाइयों का मंत्र के रूप में प्रयोग प्रचलित है, जो आपको संकट से उबारने में मदद करते हैं। साथ ही किसी भी तरह की मनोकामना को भी पूरी करते हैं। आइए जानते हैं रामचरितमानस की कुछ चौपाइयों के बारे में, जो एकदम सरल एवं बेहद प्रभावकारी हैं। जीवन में किसी भी तरह की परेशानी में आप इसका जाप कर सकते हैं। मान्यता है कि इससे आपको जरूर लाभ मिलेगा…

परीक्षा में सफलता के लिए रामायण चौपाई

जेहि पर कृपा करहिं जनुजानी।
कवि उर अजिर नचावहिं बानी।।
मोरि सुधारहिं सो सब भांती।
जासु कृपा नहिं कृपा अघाती।|

लक्ष्मी प्राप्ति के लिए रामायण चौपाई

जिमि सरिता सागर मंहु जाही।
जद्यपि ताहि कामना नाहीं।।
तिमि सुख संपत्ति बिनहि बोलाएं।
धर्मशील पहिं जहि सुभाएं।।

रिद्धि-सिद्धि की प्राप्ति के लिये रामायण चौपाई

साधक नाम जपहिं लय लाएं।
होहि सिद्धि अनिमादिक पाएं।।

प्रेम वृद्धि के लिए रामायण चौपाई

सब नर करहिं परस्पर प्रीती।
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुतिनीती।।

धन-संपत्ति की प्राप्ति के लिए रामायण चौपाई

जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं।
सुख सम्पत्ति नानाविधि पावहिंII

सुख प्राप्ति के लिए रामायण चौपाई

सुनहि विमुक्त बिरत अरू विबई।
लहहि भगति गति संपति नई।।

विद्या प्राप्ति के लिए रामचरितमानस चौपाई

गुरु ग्रह गए पढ़न रघुराई।
अलपकाल विद्या सब आई।।

शास्त्रार्थ में विजय पाने के लिए रामायण चौपाई

तेहि अवसर सुनि शिव धनु भंगा।
आयउ भृगुकुल कमल पतंगा।।

ज्ञान प्राप्ति के लिए रामचरितमानस चौपाई

तेहि अवसर सुनि शिव धनु भंगा।
आयउ भृगुकुल कमल पतंगा।।

विपत्ति में सफलता के लिए रामायण चौपाई

राजिव नयन धरैधनु सायक।
भगत विपत्ति भंजनु सुखदायक।।

पुत्र प्राप्ति के लिए रामायण चौपाई

प्रेम मगन कौशल्या निसिदिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बाल चरित कर गान।।

दरिद्रता दूर करने के लिए रामचरितमानस चौपाई

अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के ।
कामद धन दारिद्र दवारिके।।

अकाल मृत्यु से बचने के लिए रामचरितमानस चौपाई

नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित प्रान केहि बात।।

रोगों से बचने के लिए

दैहिक दैविक भौतिक तापा।
राम काज नहिं काहुहिं व्यापा।।

जहर को खत्म करने के लिए

नाम प्रभाऊ जान सिव नीको।
कालकूट फलु दीन्ह अमी को।।

खोई हुई वास्तु वापस पाने के लिए

गई बहारे गरीब नेवाजू।
सरल सबल साहिब रघुराजू।।

शत्रु को मित्र बनाने के लिए

वयरू न कर काहू सन कोई।
रामप्रताप विषमता खोई।।

भूत प्रेत के डर को भगाने के लिए

प्रनवउ पवन कुमार खल बन पावक ग्यान धुन।
जासु हृदय आगार बसहि राम सर चाप घर।।

ईश्वर से माफ़ी मांगने के लिए

अनुचित बहुत कहेउं अग्याता।
छमहु क्षमा मंदिर दोउ भ्राता।।

सफल यात्रा के लिए

प्रबिसि नगर कीजै सब काजा।
हृदय राखि कौशलपुर राजा।।

वर्षा की कामना की पूर्ति के लिए

सोइ जल अनल अनिल संघाता।
होइ जलद जग जीवनदाता।।

मुकदमा में विजय पाने के लिए

पवन तनय बल पवन समानाI

बुधि विवके बिग्यान निधाना।।

प्रसिद्धि पाने के लिए

साधक नाम जपहिं लय लाएं।

होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएं।।

विवाह के लिए

तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज संवारि कै।

मांडवी श्रुतिकीरित उरमिला कुंअरि लई हंकारि कै।।

किसी भी संकट को दूर करने के लिए

दीनदयाल बिरिदु सम्भारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।

रोजगार पाने के लिए

विस्व भरण पोषण कर जोई। ताकर नाम भरत जस होई।।

यात्रा की सफलता के लिए

प्रबिसि नगर कीजै सब काजा। ह्रदय राखि कोसलपुर राजा।।

आलस्य से मुक्ति पाने के लिए

हनुमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रणाम।

राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहां विश्राम।।

सभी मनोरथ को पूरा करने के लिए

भव भेषज रघुनाथ जसु,सुनहि जे नर अरू नारि।

तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहि त्रिसिरारि।।

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My life धर्म ध्यान और ज्ञान

श्रीमद्भागवत गीता में जीवन जीने का सार, जानिए कुछ अंश

श्रीमद्भागवत गीता में भगवान कृष्ण के द्वारा रण भूमि में अर्जुन को उपदेश दिए गए हैं। गीता की बातें मनुष्य को सही तरह से जीवन जीने का रास्ता दिखाती हैं। गीता के उपदेश हमें धर्म के मार्ग पर चलते हुए अच्छे कर्म करने की शिक्षा देते हैं। महाभारत में युद्ध भूमि में खड़े अर्जुन और कृष्ण के बीच के संवाद से हर मनुष्य को प्रेरणा लेनी चाहिए। चलिए जानते हैं…

  • जब अर्जुन युद्ध भूमि में जाते हैं तो अपने सामने पितामह और सगे संबंधियों को देखकर विचलित हो जाते हैं। तब भगवान श्री कृष्ण उन्हें सही ज्ञान देते हैं। श्री कृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं कि हे पार्थ ये युद्ध धर्म और अधर्म के मध्य है । इसलिए अपने शस्त्र उठाओ और धर्म की स्थापना करो। भगवान श्री कृष्ण धर्म के मार्ग पर चलने की शिक्षा देते हैं। मनुष्य को भी धर्म का पालन करना चाहिए।
  • गीता में कहा गया है कि क्रोध से भ्रम उत्पन्न होता है जिससे बुद्धि व्यग्र हो जाती है। भ्रमित मनुष्य अपने मार्ग से भटक जाता है। तब सारे तर्कों का नाश हो जाता है, जिसके कारण मनुष्य का पतन हो जाता है। इसलिए हमें अपने क्रोध पर नियंत्रण रखना चाहिए।
  • गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि मनुष्य को उसके द्वारा किए गए कर्मों के अनुसार ही फल प्राप्त होता है। इसलिए मनुष्य को सदैव सत्कर्म करने चाहिए। गीता में कही गई इन बातों को प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में मानना चाहिए। 
  • भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि आत्म मंथन करके स्वयं को पहचानो क्योंकि जब स्वयं को पहचानोगे तभी क्षमता का आंकलन कर पाओगे। ज्ञान रूपी तलवार से अज्ञान को काट कर अलग कर देना चाहिए। जब व्यक्ति अपनी क्षमता का आंकलन कर लेता है तभी उसका उद्धार हो पाता है।
  • भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि मृत्यु एक अटल सत्य है, किंतु केवल यह शरीर नश्वर है। आत्मा अजर अमर है, आत्मा को कोई काट नहीं सकता अग्नि जला नहीं सकती और पानी गीला नहीं कर सकता। जिस प्रकार से एक वस्त्र बदलकर दूसरे वस्त्र धारण किए जाते हैं उसी प्रकार आत्मा एक शरीर का त्याग करके दूसरे जीव में प्रवेश करती है।
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शिव सहस्त्रनामावली

Ramseva Trust

ऊँ स्थिराय नमः, ऊँ स्थाणवे नमः, ऊँ प्रभवे नमः, ऊँ भीमाय नमः, ऊँ प्रवराय नमः, ऊँ वरदाय नमः, ऊँ वराय नमः, ऊँ सर्वात्मने नमः, ऊँ सर्वविख्याताय नमः, ऊँ सर्वस्मै नमः ऊँ सर्वकाराय नमः, ऊँ भवाय नमः, ऊँ जटिने नमः, ऊँ चर्मिणे नमः,ऊँ शिखण्डिने नमः, ऊँ सर्वांङ्गाय नमः, ऊँ सर्वभावाय नमः, ऊँ हराय नमः, ऊँ हरिणाक्षाय नमः, ऊँ सर्वभूतहराय नमः ऊँ प्रभवे नमः, ऊँ प्रवृत्तये नमः, ऊँ निवृत्तये नमः, ऊँ नियताय नमः, ऊँ शाश्वताय नमः, ऊँ ध्रुवाय नमः, ऊँ श्मशानवासिने नमः, ऊँ भगवते नमः, ऊँ खेचराय नमः, ऊँ गोचराय नमः ऊँ अर्दनाय नमः, ऊँ अभिवाद्याय नमः, ऊँ महाकर्मणे नमः, ऊँ तपस्विने नमः, ऊँ भूतभावनाय नमः, ऊँ उन्मत्तवेषप्रच्छन्नाय नमः, ऊँ सर्वलोकप्रजापतये नमः, ऊँ महारूपाय नमः, ऊँ महाकायाय नमः, ऊँ वृषरूपाय नमः ऊँ महायशसे नमः, ऊँ महात्मने नमः, ऊँ सर्वभूतात्मने नमः, ऊँ विश्वरूपाय नमः, ऊँ महाहनवे नमः, ऊँ लोकपालाय नमः, ऊँ अंतर्हितात्मने नमः, ऊँ प्रसादाय नमः, ऊँ हयगर्दभाय नमः, ऊँ पवित्राय नमः(५०)
ऊँ महते नमः, ऊँ नियमाय नमः, ऊँ नियमाश्रिताय नमः, ऊँ सर्वकर्मणे नमः, ऊँ स्वयंभूताय नमः, ऊँ आदये नमः, ऊँ आदिकराय नमः, ऊँ निधये नमः, ऊँ सहस्राक्षाय नमः, ऊँ विशालाक्षाय नमः, ऊँ सोमाय नमः, ऊँ नक्षत्रसाधकाय नमः, ऊँ चंद्राय नमः, ऊँ सूर्याय नमः, ऊँ शनये नमः, ऊँ केतवे नमः, ऊँ ग्रहाय नमः, ऊँ ग्रहपतये नमः, ऊँ वराय नमः, ऊँ अत्रये नमः, ऊँ अत्र्यानमस्कर्त्रे नमः, ऊँ मृगबाणार्पणाय नमः, ऊँ अनघाय नमः,ऊँ महातपसे नमः, ऊँ घोरतपसे नमः, ऊँ अदीनाय नमः, ऊँ दीनसाधककराय नमः, ऊँ संवत्सरकराय नमः, ऊँ मंत्राय नमः, ऊँ प्रमाणाय नमः, ऊँ परमन्तपाय नमः, ऊँ योगिने नमः, ऊँ योज्याय नमः, ऊँ महाबीजाय नमः, ऊँ महारेतसे नमः, ऊँ महाबलाय नमः, ऊँ सुवर्णरेतसे नमः, ऊँ सर्वज्ञाय नमः, ऊँ सुबीजाय नमः, ऊँ बीजवाहनाय नमः, ऊँ दशबाहवे नमः, ऊँ अनिमिषाय नमः, ऊँ नीलकण्ठाय नमः, ऊँ उमापतये नमः, ऊँ विश्वरूपाय नमः, ऊँ स्वयंश्रेष्ठाय नमः, ऊँ बलवीराय नमः, ऊँ अबलोगणाय नमः, ऊँ गणकर्त्रे नमः, ऊँ गणपतये नमः (१००)
ऊँ दिग्वाससे नमः, ऊँ कामाय नमः, ऊँ मंत्रविदे नमः, ऊँ परममन्त्राय नमः, ऊँ सर्वभावकराय नमः, ऊँ हराय नमः, ऊँ कमण्डलुधराय नमः, ऊँ धन्विते नमः, ऊँ बाणहस्ताय नमः, ऊँ कपालवते नमः, ऊँ अशनिने नमः, ऊँ शतघ्निने नमः, ऊँ खड्गिने नमः, ऊँ पट्टिशिने नमः, ऊँ आयुधिने नमः, ऊँ महते नमः, ऊँ स्रुवहस्ताय नमः, ऊँ सुरूपाय नमः, ऊँ तेजसे नमः, ऊँ तेजस्करनिधये नमः ऊँ उष्णीषिणे नमः, ऊँ सुवक्त्राय नमः, ऊँ उदग्राय नमः, ऊँ विनताय नमः, ऊँ दीर्घाय नमः, ऊँ हरिकेशाय नमः, ऊँ सुतीर्थाय नमः, ऊँ कृष्णाय नमः, ऊँ श्रृगालरूपाय नमः,ऊँ सिद्धार्थाय नमः ऊँ मुण्डाय नमः, ऊँ सर्वशुभंकराय नमः, ऊँ अजाय नमः, ऊँ बहुरूपाय नमः, ऊँ गन्धधारिणे नमः, ऊँ कपर्दिने नमः, ऊँ उर्ध्वरेतसे नमः, ऊँ उर्ध्वलिंगाय नमः, ऊँ उर्ध्वशायिने नमः, ऊँ नभस्थलाय नमः, ऊँ त्रिजटाय नमः, ऊँ चीरवाससे नमः,ऊँ रूद्राय नमः, ऊँ सेनापतये नमः, ऊँ विभवे नमः, ऊँ अहश्चराय नमः, ऊँ नक्तंचराय नमः, ऊँ तिग्ममन्यवे नमः, ऊँ सुवर्चसाय नमः, ऊँ गजघ्ने नमः (१५०)
ऊँ दैत्यघ्ने नमः, ऊँ कालाय नमः, ऊँ लोकधात्रे नमः, ऊँ गुणाकराय नमः, ऊँ सिंहसार्दूलरूपाय नमः, ऊँ आर्द्रचर्माम्बराय नमः, ऊँ कालयोगिने नमः, ऊँ महानादाय नमः, ऊँ सर्वकामाय नमः, ऊँ चतुष्पथाय नमः, ऊँ निशाचराय नमः, ऊँ प्रेतचारिणे नमः, ऊँ भूतचारिणे नमः, ऊँ महेश्वराय नमः, ऊँ बहुभूताय नमः,ऊँ बहुधराय नमः, ऊँ स्वर्भानवे नमः, ऊँ अमिताय नमः, ऊँ गतये नमः, ऊँ नृत्यप्रियाय नमः, ऊँ नृत्यनर्ताय नमः, ऊँ नर्तकाय नमः, ऊँ सर्वलालसाय नमः, ऊँ घोराय नमः, ऊँ महातपसे नमः,ऊँ पाशाय नमः, ऊँ नित्याय नमः, ऊँ गिरिरूहाय नमः, ऊँ नभसे नमः, ऊँ सहस्रहस्ताय नमः, ऊँ विजयाय नमः, ऊँ व्यवसायाय नमः, ऊँ अतन्द्रियाय नमः, ऊँ अधर्षणाय नमः, ऊँ धर्षणात्मने नमः, ऊँ यज्ञघ्ने नमः, ऊँ कामनाशकाय नमः, ऊँ दक्षयागापहारिणे नमः, ऊँ सुसहाय नमः, ऊँ मध्यमाय नमः, ऊँ तेजोपहारिणे नमः, ऊँ बलघ्ने नमः, ऊँ मुदिताय नमः, ऊँ अर्थाय नमः, ऊँ अजिताय नमः, ऊँ अवराय नमः, ऊँ गम्भीरघोषाय नमः, ऊँ गम्भीराय नमः, ऊँ गंभीरबलवाहनाय नमः, ऊँ न्यग्रोधरूपाय नमः (२००)
ऊँ न्यग्रोधाय नमः, ऊँ वृक्षकर्णस्थितये नमः, ऊँ विभवे नमः, ऊँ सुतीक्ष्णदशनाय नमः, ऊँ महाकायाय नमः, ऊँ महाननाय नमः,ऊँ विश्वकसेनाय नमः, ऊँ हरये नमः, ऊँ यज्ञाय नमः, ऊँ संयुगापीडवाहनाय नमः, ऊँ तीक्ष्णतापाय नमः, ऊँ हर्यश्वाय नमः, ऊँ सहायाय नमः, ऊँ कर्मकालविदे नमः, ऊँ विष्णुप्रसादिताय नमः, ऊँ यज्ञाय नमः, ऊँ समुद्राय नमः, ऊँ वडमुखाय नमः, ऊँ हुताशनसहायाय नमः, ऊँ प्रशान्तात्मने नमः,ऊँ हुताशनाय नमः, ऊँ उग्रतेजसे नमः, ऊँ महातेजसे नमः, ऊँ जन्याय नमः, ऊँ विजयकालविदे नमः, ऊँ ज्योतिषामयनाय नमः, ऊँ सिद्धये नमः, ऊँ सर्वविग्रहाय नमः, ऊँ शिखिने नमः, ऊँ मुण्डिने नमः, ऊँ जटिने नमः, ऊँ ज्वालिने नमः, ऊँ मूर्तिजाय नमः, ऊँ मूर्ध्दगाय नमः, ऊँ बलिने नमः, ऊँ वेणविने नमः, ऊँ पणविने नमः, ऊँ तालिने नमः, ऊँ खलिने नमः, ऊँ कालकंटकाय नमः, ऊँ नक्षत्रविग्रहमतये नमः, ऊँ गुणबुद्धये नमः, ऊँ लयाय नमः, ऊँ अगमाय नमः, ऊँ प्रजापतये नमः, ऊँ विश्वबाहवे नमः,ऊँ विभागाय नमः, ऊँ सर्वगाय नमः, ऊँ अमुखाय नमः, ऊँ विमोचनाय नमः (२५०)
ऊँ सुसरणाय नमः, ऊँ हिरण्यकवचोद्भाय नमः, ऊँ मेढ्रजाय नमः,ऊँ बलचारिणे नमः, ऊँ महीचारिणे नमः, ऊँ स्रुत्याय नमः, ऊँ सर्वतूर्यनिनादिने नमः, ऊँ सर्वतोद्यपरिग्रहाय नमः, ऊँ व्यालरूपाय नमः, ऊँ गुहावासिने नमः, ऊँ गुहाय नमः, ऊँ मालिने नमः, ऊँ तरंगविदे नमः, ऊँ त्रिदशाय नमः, ऊँ त्रिकालधृगे नमः,ऊँ कर्मसर्वबन्ध–विमोचनाय नमः, ऊँ असुरेन्द्राणां बन्धनाय नमः, ऊँ युधि शत्रुवानाशिने नमः, ऊँ सांख्यप्रसादाय नमः, ऊँ दुर्वाससे नमः, ऊँ सर्वसाधुनिषेविताय नमः, ऊँ प्रस्कन्दनाय नमः, ऊँ विभागज्ञाय नमः, ऊँ अतुल्याय नमः, ऊँ यज्ञविभागविदे नमः, ऊँ सर्वचारिणे नमः, ऊँ सर्ववासाय नमः, ऊँ दुर्वाससे नमः,ऊँ वासवाय नमः, ऊँ अमराय नमः, ऊँ हैमाय नमः, ऊँ हेमकराय नमः, ऊँ अयज्ञसर्वधारिणे नमः, ऊँ धरोत्तमाय नमः, ऊँ लोहिताक्षाय नमः, ऊँ महाक्षाय नमः, ऊँ विजयाक्षाय नमः, ऊँ विशारदाय नमः, ऊँ संग्रहाय नमः, ऊँ निग्रहाय नमः, ऊँ कर्त्रे नमः, ऊँ सर्पचीरनिवसनाय नमः, ऊँ मुख्याय नमः, ऊँ अमुख्याय नमः, ऊँ देहाय नमः, ऊँ काहलये नमः, ऊँ सर्वकामदाय नमः, ऊँ सर्वकालप्रसादाय नमः, ऊँ सुबलाय नमः, ऊँ बलरूपधृगे नमः(३००)
ऊँ सर्वकामवराय नमः, ऊँ सर्वदाय नमः, ऊँ सर्वतोमुखाय नमः,ऊँ आकाशनिर्विरूपाय नमः, ऊँ निपातिने नमः, ऊँ अवशाय नमः,ऊँ खगाय नमः, ऊँ रौद्ररूपाय नमः, ऊँ अंशवे नमः, ऊँ आदित्याय नमः, ऊँ बहुरश्मये नमः, ऊँ सुवर्चसिने नमः, ऊँ वसुवेगाय नमः,ऊँ महावेगाय नमः, ऊँ मनोवेगाय नमः, ऊँ निशाचराय नमः, ऊँ सर्ववासिने नमः, ऊँ श्रियावासिने नमः, ऊँ उपदेशकराय नमः, ऊँ अकराय नमः, ऊँ मुनये नमः, ऊँ आत्मनिरालोकाय नमः, ऊँ संभग्नाय नमः, ऊँ सहस्रदाय नमः, ऊँ पक्षिणे नमः, ऊँ पक्षरूपाय नमः, ऊँ अतिदीप्ताय नमः, ऊँ विशाम्पतये नमः, ऊँ उन्मादाय नमः, ऊँ मदनाय नमः, ऊँ कामाय नमः, ऊँ अश्वत्थाय नमः, ऊँ अर्थकराय नमः, ऊँ यशसे नमः, ऊँ वामदेवाय नमः, ऊँ वामाय नमः, ऊँ प्राचे नमः, ऊँ दक्षिणाय नमः, ऊँ वामनाय नमः, ऊँ सिद्धयोगिने नमः, ऊँ महर्षये नमः, ऊँ सिद्धार्थाय नमः, ऊँ सिद्धसाधकाय नमः, ऊँ भिक्षवे नमः, ऊँ भिक्षुरूपाय नमः, ऊँ विपणाय नमः, ऊँ मृदवे नमः, ऊँ अव्ययाय नमः, ऊँ महासेनाय नमः, ऊँ विशाखाय नमः (३५०)
ऊँ षष्टिभागाय नमः, ऊँ गवाम्पतये नमः, ऊँ वज्रहस्ताय नमः,ऊँ विष्कम्भिने नमः, ऊँ चमुस्तंभनाय नमः, ऊँ वृत्तावृत्तकराय नमः, ऊँ तालाय नमः, ऊँ मधवे नमः, ऊँ मधुकलोचनाय नमः, ऊँ वाचस्पतये नमः, ऊँ वाजसनाय नमः, ऊँ नित्यमाश्रमपूजिताय नमः, ऊँ ब्रह्मचारिणे नमः, ऊँ लोकचारिणे नमः, ऊँ सर्वचारिणे नमः, ऊँ विचारविदे नमः, ऊँ ईशानाय नमः, ऊँ ईश्वराय नमः, ऊँ कालाय नमः, ऊँ निशाचारिणे नमः, ऊँ पिनाकधृगे नमः, ऊँ निमितस्थाय नमः, ऊँ निमित्ताय नमः, ऊँ नन्दये नमः, ऊँ नन्दिकराय नमः, ऊँ हरये नमः, ऊँ नन्दीश्वराय नमः, ऊँ नन्दिने नमः, ऊँ नन्दनाय नमः, ऊँ नंन्दीवर्धनाय नमः, ऊँ भगहारिणे नमः, ऊँ निहन्त्रे नमः, ऊँ कालाय नमः, ऊँ ब्रह्मणे नमः, ऊँ पितामहाय नमः, ऊँ चतुर्मुखाय नमः, ऊँ महालिंगाय नमः, ऊँ चारूलिंगाय नमः, ऊँ लिंगाध्यक्षाय नमः, ऊँ सुराध्यक्षाय नमः,ऊँ योगाध्यक्षाय नमः, ऊँ युगावहाय नमः, ऊँ बीजाध्यक्षाय नमः,ऊँ बीजकर्त्रे नमः, ऊँ अध्यात्मानुगताय नमः, ऊँ बलाय नमः, ऊँ इतिहासाय नमः, ऊँ सकल्पाय नमः, ऊँ गौतमाय नमः, ऊँ निशाकराय नमः (४००) 
ऊँ दम्भाय नमः, ऊँ अदम्भाय नमः, ऊँ वैदम्भाय नमः, ऊँ वश्याय नमः, ऊँ वशकराय नमः, ऊँ कलये नमः, ऊँ लोककर्त्रे नमः, ऊँ पशुपतये नमः, ऊँ महाकर्त्रे नमः, ऊँ अनौषधाय नमः, ऊँ अक्षराय नमः, ऊँ परब्रह्मणे नमः, ऊँ बलवते नमः, ऊँ शक्राय नमः, ऊँ नीतये नमः, ऊँ अनीतये नमः, ऊँ शुद्धात्मने नमः, ऊँ मान्याय नमः, ऊँ शुद्धाय नमः, ऊँ गतागताय नमः, ऊँ बहुप्रसादाय नमः, ऊँ सुस्पप्नाय नमः, ऊँ दर्पणाय नमः,ऊँ अमित्रजिते नमः, ऊँ वेदकराय नमः, ऊँ मंत्रकराय नमः, ऊँ विदुषे नमः, ऊँ समरमर्दनाय नमः, ऊँ महामेघनिवासिने नमः, ऊँ महाघोराय नमः, ऊँ वशिने नमः, ऊँ कराय नमः, ऊँ अग्निज्वालाय नमः, ऊँ महाज्वालाय नमः, ऊँ अतिधूम्राय नमः,ऊँ हुताय नमः, ऊँ हविषे नमः, ऊँ वृषणाय नमः, ऊँ शंकराय नमः,ऊँ नित्यंवर्चस्विने नमः, ऊँ धूमकेताय नमः, ऊँ नीलाय नमः, ऊँ अंगलुब्धाय नमः, ऊँ शोभनाय नमः, ऊँ निरवग्रहाय नमः, ऊँ स्वस्तिदायकाय नमः, ऊँ स्वस्तिभावाय नमः, ऊँ भागिने नमः,ऊँ भागकराय नमः, ऊँ लघवे नमः(४५०)
ऊँ उत्संगाय नमः, ऊँ महांगाय नमः, ऊँ महागर्भपरायणाय नमः, ऊँ कृष्णवर्णाय नमः,ऊँ सुवर्णाय नमः, ऊँ सर्वदेहिनामिनिन्द्राय नमः, ऊँ महापादाय नमः, ऊँ महाहस्ताय नमः, ऊँ महाकायाय नमः, ऊँ महायशसे नमः, ऊँ महामूर्धने नमः, ऊँ महामात्राय नमः, ऊँ महानेत्राय नमः, ऊँ निशालयाय नमः, ऊँ महान्तकाय नमः, ऊँ महाकर्णाय नमः, ऊँ महोष्ठाय नमः, ऊँ महाहनवे नमः, ऊँ महानासाय नमः,ऊँ महाकम्बवे नमः, ऊँ महाग्रीवाय नमः, ऊँ श्मशानभाजे नमः,ऊँ महावक्षसे नमः, ऊँ महोरस्काय नमः, ऊँ अंतरात्मने नमः, ऊँ मृगालयाय नमः, ऊँ लंबनाय नमः, ऊँ लम्बितोष्ठाय नमः, ऊँ महामायाय नमः, ऊँ पयोनिधये नमः, ऊँ महादन्ताय नमः, ऊँ महाद्रष्टाय नमः, ऊँ महाजिह्वाय नमः, ऊँ महामुखाय नमः, ऊँ महारोम्णे नमः, ऊँ महाकोशाय नमः, ऊँ महाजटाय नमः, ऊँ प्रसन्नाय नमः, ऊँ प्रसादाय नमः, ऊँ प्रत्ययाय नमः, ऊँ गिरिसाधनाय नमः, ऊँ स्नेहनाय नमः, ऊँ अस्नेहनाय नमः, ऊँ अजिताय नमः, ऊँ महामुनये नमः, ऊँ वृक्षाकाराय नमः, ऊँ वृक्षकेतवे नमः, ऊँ अनलाय नमः, ऊँ वायुवाहनाय नमः (५००)
ऊँ गण्डलिने नमः, ऊँ मेरूधाम्ने नमः, ऊँ देवाधिपतये नमः, ऊँ अथर्वशीर्षाय नमः, ऊँ सामास्या नमः, ऊँ ऋक्सहस्रामितेक्षणाय नमः, ऊँ यजुः पादभुजाय नमः, ऊँ गुह्याय नमः, ऊँ प्रकाशाय नमः, ऊँ जंगमाय नमः, ऊँ अमोघार्थाय नमः, ऊँ प्रसादाय नमः, ऊँ अभिगम्याय नमः, ऊँ सुदर्शनाय नमः, ऊँ उपकाराय नमः, ऊँ प्रियाय नमः, ऊँ सर्वाय नमः, ऊँ कनकाय नमः, ऊँ काञ्चनवच्छये नमः, ऊँ नाभये नमः, ऊँ नन्दिकराय नमः, ऊँ भावाय नमः, ऊँ पुष्करथपतये नमः, ऊँ स्थिराय नमः, ऊँ द्वादशाय नमः, ऊँ त्रासनाय नमः, ऊँ आद्याय नमः, ऊँ यज्ञाय नमः, ऊँ यज्ञसमाहिताय नमः, ऊँ नक्तंस्वरूपाय नमः, ऊँ कलये नमः, ऊँ कालाय नमः, ऊँ मकराय नमः, ऊँ कालपूजिताय नमः, ऊँ सगणाय नमः, ऊँ गणकराय नमः, ऊँ भूतवाहनसारथये नमः, ऊँ भस्मशयाय नमः, ऊँ भस्मगोप्त्रे नमः, ऊँ भस्मभूताय नमः, ऊँ तरवे नमः, ऊँ गणाय नमः, ऊँ लोकपालाय नमः, ऊँ आलोकाय नमः, ऊँ महात्मने नमः, ऊँ सर्वपूजिताय नमः, ऊँ शुक्लाय नमः, ऊँ त्रिशुक्लाय नमः, ऊँ संपन्नाय नमः, ऊँ शुचये नमः (५५०)
ऊँ भूतनिशेविताय नमः, ऊँ आश्रमस्थाय नमः, ऊँ क्रियावस्थाय नमः, ऊँ विश्वकर्ममतये नमः, ऊँ वराय नमः, ऊँ विशालशाखाय नमः, ऊँ ताम्रोष्ठाय नमः, ऊँ अम्बुजालाय नमः, ऊँ सुनिश्चलाय नमः, ऊँ कपिलाय नमः, ऊँ कपिशाय नमः, ऊँ शुक्लाय नमः, ऊँ आयुषे नमः, ऊँ पराय नमः, ऊँ अपराय नमः, ऊँ गंधर्वाय नमः, ऊँ अदितये नमः, ऊँ ताक्ष्याय नमः, ऊँ सुविज्ञेयाय नमः, ऊँ सुशारदाय नमः, ऊँ परश्वधायुधाय नमः, ऊँ देवाय नमः, ऊँ अनुकारिणे नमः, ऊँ सुबान्धवाय नमः, ऊँ तुम्बवीणाय नमः, ऊँ महाक्रोधाय नमः, ऊँ ऊर्ध्वरेतसे नमः, ऊँ जलेशयाय नमः, ऊँ उग्राय नमः, ऊँ वंशकराय नमः, ऊँ वंशाय नमः, ऊँ वंशानादाय नमः, ऊँ अनिन्दिताय नमः, ऊँ सर्वांगरूपाय नमः, ऊँ मायाविने नमः, ऊँ सुहृदे नमः, ऊँ अनिलाय नमः, ऊँ अनलाय नमः, ऊँ बन्धनाय नमः, ऊँ बन्धकर्त्रे नमः, ऊँ सुवन्धनविमोचनाय नमः, ऊँ सयज्ञयारये नमः, ऊँ सकामारये नमः, ऊँ महाद्रष्टाय नमः, ऊँ महायुधाय नमः, ऊँ बहुधानिन्दिताय नमः, ऊँ शर्वाय नमः, ऊँ शंकराय नमः, ऊँ शं कराय नमः, ऊँ अधनाय नमः (६००)  
ऊँ अमरेशाय नमः, ऊँ महादेवाय नमः, ऊँ विश्वदेवाय नमः, ऊँ सुरारिघ्ने नमः, ऊँ अहिर्बुद्धिन्याय नमः,  ऊँ अनिलाभाय नमः, ऊँ चेकितानाय नमः, ऊँ हविषे नमः, ऊँ अजैकपादे नमः, ऊँ कापालिने नमः, ऊँ त्रिशंकवे नमः, ऊँ अजिताय नमः, ऊँ शिवाय नमः, ऊँ धन्वन्तरये नमः, ऊँ धूमकेतवे नमः, ऊँ स्कन्दाय नमः, ऊँ वैश्रवणाय नमः, ऊँ धात्रे नमः, ऊँ शक्राय नमः, ऊँ विष्णवे नमः, ऊँ मित्राय नमः, ऊँ त्वष्ट्रे नमः, ऊँ ध्रुवाय नमः, ऊँ धराय नमः, ऊँ प्रभावाय नमः, ऊँ सर्वगोवायवे नमः, ऊँ अर्यम्णे नमः, ऊँ सवित्रे नमः, ऊँ रवये नमः, ऊँ उषंगवे नमः, ऊँ विधात्रे नमः, ऊँ मानधात्रे नमः, ऊँ भूतवाहनाय नमः, ऊँ विभवे नमः, ऊँ वर्णविभाविने नमः, ऊँ सर्वकामगुणवाहनाय नमः, ऊँ पद्मनाभाय नमः, ऊँ महागर्भाय नमः, चन्द्रवक्त्राय नमः, ऊँ अनिलाय नमः, ऊँ अनलाय नमः, ऊँ बलवते नमः, ऊँ उपशान्ताय नमः, ऊँ पुराणाय नमः, ऊँ पुण्यचञ्चवे नमः, ऊँ ईरूपाय नमः, ऊँ कुरूकर्त्रे नमः, ऊँ कुरूवासिने नमः, ऊँ कुरूभूताय नमः, ऊँ गुणौषधाय नमः (६५०)  
ऊँ सर्वाशयाय नमः, ऊँ दर्भचारिणे नमः, ऊँ सर्वप्राणिपतये नमः, ऊँ देवदेवाय नमः, ऊँ सुखासक्ताय नमः, ऊँ सत स्वरूपाय नमः, ऊँ असत् रूपाय नमः, ऊँ सर्वरत्नविदे नमः, ऊँ कैलाशगिरिवासने नमः, ऊँ हिमवद्गिरिसंश्रयाय नमः, ऊँ कूलहारिणे नमः, ऊँ कुलकर्त्रे नमः, ऊँ बहुविद्याय नमः, ऊँ बहुप्रदाय नमः, ऊँ वणिजाय नमः, ऊँ वर्धकिने नमः, ऊँ वृक्षाय नमः, ऊँ बकुलाय नमः, ऊँ चंदनाय नमः, ऊँ छदाय नमः, ऊँ सारग्रीवाय नमः, ऊँ महाजत्रवे नमः, ऊँ अलोलाय नमः, ऊँ महौषधाय नमः, ऊँ सिद्धार्थकारिणे नमः, ऊँ छन्दोव्याकरणोत्तर-सिद्धार्थाय नमः, ऊँ सिंहनादाय नमः, ऊँ सिंहद्रंष्टाय नमः, ऊँ सिंहगाय नमः, ऊँ सिंहवाहनाय नमः, ऊँ प्रभावात्मने नमः, ऊँ जगतकालस्थालाय नमः, ऊँ लोकहिताय नमः, ऊँ तरवे नमः, ऊँ सारंगाय नमः, ऊँ नवचक्रांगाय नमः, ऊँ केतुमालिने नमः, ऊँ सभावनाय नमः, ऊँ भूतालयाय नमः, ऊँ भूतपतये नमः, ऊँ अहोरात्राय नमः, ऊँ अनिन्दिताय नमः, ऊँ सर्वभूतवाहित्रे नमः, ऊँ सर्वभूतनिलयाय नमः, ऊँ विभवे नमः, ऊँ भवाय नमः, ऊँ अमोघाय नमः, ऊँ संयताय नमः, ऊँ अश्वाय नमः, ऊँ भोजनाय नमः, (७००)
ऊँ प्राणधारणाय नमः, ऊँ धृतिमते नमः, ऊँ मतिमते नमः, ऊँ दक्षाय नमःऊँ सत्कृयाय नमः, ऊँ युगाधिपाय नमः, ऊँ गोपाल्यै नमः, ऊँ गोपतये नमः, ऊँ ग्रामाय नमः, ऊँ गोचर्मवसनाय नमः, ऊँ हरये नमः, ऊँ हिरण्यबाहवे नमः, ऊँ प्रवेशिनांगुहापालाय नमः, ऊँ प्रकृष्टारये नमः, ऊँ महाहर्षाय नमः, ऊँ जितकामाय नमः, ऊँ जितेन्द्रियाय नमः, ऊँ गांधाराय नमः, ऊँ सुवासाय नमः, ऊँ तपःसक्ताय नमः, ऊँ रतये नमः, ऊँ नराय नमः, ऊँ महागीताय नमः, ऊँ महानृत्याय नमः, ऊँ अप्सरोगणसेविताय नमः, ऊँ महाकेतवे नमः, ऊँ महाधातवे नमः, ऊँ नैकसानुचराय नमः, ऊँ चलाय नमः, ऊँ आवेदनीयाय नमः, ऊँ आदेशाय नमः, ऊँ सर्वगंधसुखावहाय नमः, ऊँ तोरणाय नमः, ऊँ तारणाय नमः, ऊँ वाताय नमः, ऊँ परिधये नमः, ऊँ पतिखेचराय नमः, ऊँ संयोगवर्धनाय नमः, ऊँ वृद्धाय नमः, ऊँ गुणाधिकाय नमः, ऊँ अतिवृद्धाय नमः, ऊँ नित्यात्मसहायाय नमः, ऊँ देवासुरपतये नमः, ऊँ पत्ये नमः, ऊँ युक्ताय नमः, ऊँ युक्तबाहवे नमः, ऊँ दिविसुपर्वदेवाय नमः, ऊँ आषाढाय नमः, ऊँ सुषाढ़ाय नमः, ऊँ ध्रुवाय नमः (७५०)
ऊँ हरिणाय नमः, ऊँ हराय नमः, ऊँ आवर्तमानवपुषे नमः, ऊँ वसुश्रेष्ठाय नमः, ऊँ महापथाय नमः, ऊँ विमर्षशिरोहारिणे नमः, ऊँ सर्वलक्षणलक्षिताय नमः, ऊँ अक्षरथयोगिने नमः, ऊँ सर्वयोगिने नमः, ऊँ महाबलाय नमः, ऊँ समाम्नायाय नमः, ऊँ असाम्नायाय नमः, ऊँ तीर्थदेवाय नमः, ऊँ महारथाय नमः, ऊँ निर्जीवाय नमः, ऊँ जीवनाय नमः, ऊँ मंत्राय नमः, ऊँ शुभाक्षाय नमः, ऊँ बहुकर्कशाय नमः, ऊँ रत्नप्रभूताय नमः, ऊँ रत्नांगाय नमः, ऊँ महार्णवनिपानविदे नमः, ऊँ मूलाय नमः, ऊँ विशालाय नमः, ऊँ अमृताय नमः, ऊँ व्यक्ताव्यवक्ताय नमः, ऊँ तपोनिधये नमः, ऊँ आरोहणाय नमः, ऊँ अधिरोहाय नमः, ऊँ शीलधारिणे नमः, ऊँ महायशसे नमः, ऊँ सेनाकल्पाय नमः, ऊँ महाकल्पाय नमः, ऊँ योगाय नमः, ऊँ युगकराय नमः, ऊँ हरये नमः, ऊँ युगरूपाय नमः, ऊँ महारूपाय नमः, ऊँ महानागहतकाय नमः, ऊँ अवधाय नमः, ऊँ न्यायनिर्वपणाय नमः, ऊँ पादाय नमः, ऊँ पण्डिताय नमः, ऊँ अचलोपमाय नमः, ऊँ बहुमालाय नमः, ऊँ महामालाय नमः, ऊँ शशिहरसुलोचनाय नमः, ऊँ विस्तारलवणकूपाय नमः, ऊँ त्रिगुणाय नमः, ऊँ सफलोदयाय नमः (८००)
ऊँ त्रिलोचनाय नमः, ऊँ विषण्डागाय नमः, ऊँ मणिविद्धाय नमः, ऊँ जटाधराय नमः, ऊँ बिन्दवे नमः, ऊँ विसर्गाय नमः, ऊँ सुमुखाय नमः, ऊँ शराय नमः, ऊँ सर्वायुधाय नमः, ऊँ सहाय नमः, ऊँ सहाय नमः, ऊँ निवेदनाय नमः, ऊँ सुखाजाताय नमः, ऊँ सुगन्धराय नमः, ऊँ महाधनुषे नमः, ऊँ गंधपालिभगवते नमः,  ऊँ सर्वकर्मोत्थानाय नमः, ऊँ मन्थानबहुलवायवे नमः, ऊँ सकलाय नमः, ऊँ सर्वलोचनाय नमः, ऊँ तलस्तालाय नमः, ऊँ करस्थालिने नमः, ऊँ ऊर्ध्वसंहननाय नमः, ऊँ महते नमः, ऊँ छात्राय नमः, ऊँ सुच्छत्राय नमः, ऊँ विख्यातलोकाय नमः, ऊँ सर्वाश्रयक्रमाय नमः, ऊँ मुण्डाय नमः, ऊँ विरूपाय नमः, ऊँ विकृताय नमः, ऊँ दण्डिने नमः, ऊँ कुदण्डिने नमः, ऊँ विकुर्वणाय नमः, ऊँ हर्यक्षाय नमः, ऊँ ककुभाय नमः, ऊँ वज्रिणे नमः, ऊँ शतजिह्वाय नमः, ऊँ सहस्रपदे नमः, ऊँ देवेन्द्राय नमः, ऊँ सर्वदेवमयाय नमः, ऊँ गुरवे नमः, ऊँ सहस्रबाहवे नमः, ऊँ सर्वांगाय नमः, ऊँ शरण्याय नमः, ऊँ सर्वलोककृते नमः, ऊँ पवित्राय नमः, ऊँ त्रिककुन्मंत्राय नमः, ऊँ कनिष्ठाय नमः, ऊँ कृष्णपिंगलाय नमः (८५०)
ऊँ ब्रह्मदण्डविनिर्मात्रे नमः, ऊँ शतघ्नीपाशशक्तिमते नमः, ऊँ पद्मगर्भाय नमः, ऊँ महागर्भाय नमः, ऊँ ब्रह्मगर्भाय नमः, ऊँ जलोद्भावाय नमः, ऊँ गभस्तये नमः, ऊँ ब्रह्मकृते नमः, ऊँ ब्रह्मिणे नमः, ऊँ ब्रह्मविदे नमः, ऊँ ब्राह्मणाय नमः, ऊँ गतये नमः, ऊँ अनंतरूपाय नमः, ऊँ नैकात्मने नमः, ऊँ स्वयंभुवतिग्मतेजसे नमः, ऊँ उर्ध्वगात्मने नमः, ऊँ पशुपतये नमः, ऊँ वातरंहसे नमः, ऊँ मनोजवाय नमः, ऊँ चंदनिने नमः, ऊँ पद्मनालाग्राय नमः, ऊँ सुरभ्युत्तारणाय नमः, ऊँ नराय नमः, ऊँ कर्णिकारमहास्रग्विणमे नमः, ऊँ नीलमौलये नमः, ऊँ पिनाकधृषे नमः, ऊँ उमापतये नमः, ऊँ उमाकान्ताय नमः, ऊँ जाह्नवीधृषे नमः, ऊँ उमादवाय नमः, ऊँ वरवराहाय नमः, ऊँ वरदाय नमः, ऊँ वरेण्याय नमः, ऊँ सुमहास्वनाय नमः, ऊँ महाप्रसादाय नमः, ऊँ दमनाय नमः, ऊँ शत्रुघ्ने नमः, ऊँ श्वेतपिंगलाय नमः, ऊँ पीतात्मने नमः, ऊँ परमात्मने नमः, ऊँ प्रयतात्मने नमः, ऊँ प्रधानधृषे नमः, ऊँ सर्वपार्श्वमुखाय नमः, ऊँ त्रक्षाय नमः, ऊँ धर्मसाधारणवराय नमः, ऊँ चराचरात्मने नमः, ऊँ सूक्ष्मात्मने नमः, ऊँ अमृतगोवृषेश्वराय नमः, ऊँ साध्यर्षये नमः, ऊँ आदित्यवसवे नमः (९००)
ऊँ विवस्वत्सवित्रमृताय नमः, ऊँ व्यासाय नमः, ऊँ सर्गसुसंक्षेपविस्तराय नमः, ऊँ पर्ययोनराय नमः, ऊँ ऋतवे नमः, ऊँ संवत्सराय नमः, ऊँ मासाय नमः, ऊँ पक्षाय नमः, ऊँ संख्यासमापनाय नमः, ऊँ कलायै नमः, ऊँ काष्ठायै नमः, ऊँ लवेभ्यो नमः, ऊँ मात्रेभ्यो नमः, ऊँ मुहूर्ताहःक्षपाभ्यो नमः, ऊँ क्षणेभ्यो नमः, ऊँ विश्वक्षेत्राय नमः, ऊँ प्रजाबीजाय नमः, ऊँ लिंगाय नमः, ऊँ आद्यनिर्गमाय नमः, ऊँ सत् स्वरूपाय नमः, ऊँ असत् रूपाय नमः, ऊँ व्यक्ताय नमः, ऊँ अव्यक्ताय नमः, ऊँ पित्रे नमः, ऊँ मात्रे नमः, ऊँ पितामहाय नमः, ऊँ स्वर्गद्वाराय नमः, ऊँ प्रजाद्वाराय नमः, ऊँ मोक्षद्वाराय नमः, ऊँ त्रिविष्टपाय नमः, ऊँ निर्वाणाय नमः, ऊँ ह्लादनाय नमः, ऊँ ब्रह्मलोकाय नमः, ऊँ परागतये नमः, ऊँ देवासुरविनिर्मात्रे नमः, ऊँ देवासुरपरायणाय नमः, ऊँ देवासुरगुरूवे नमः, ऊँ देवाय नमः, ऊँ देवासुरनमस्कृताय नमः, ऊँ देवासुरमहामात्राय नमः, ऊँ देवासुरमहामात्राय नमः, ऊँ देवासुरगणाश्रयाय नमः, ऊँ देवासुरगणाध्यक्षाय नमः, ऊँ देवासुरगणाग्रण्ये नमः, ऊँ देवातिदेवाय नमः, ऊँ देवर्षये नमः, ऊँ देवासुरवरप्रदाय नमः, ऊँ विश्वाय नमः, ऊँ देवासुरमहेश्वराय नमः, ऊँ सर्वदेवमयाय नमः(९५०)
ऊँ अचिंत्याय नमः, ऊँ देवात्मने नमः, ऊँ आत्मसंबवाय नमः, ऊँ उद्भिदे नमः, ऊँ त्रिविक्रमाय नमः, ऊँ वैद्याय नमः, ऊँ विरजाय नमः, ऊँ नीरजाय नमः, ऊँ अमराय नमः, ऊँ इड्याय नमः, ऊँ हस्तीश्वराय नमः, ऊँ व्याघ्राय नमः, ऊँ देवसिंहाय नमः, ऊँ नरर्षभाय नमः, ऊँ विभुदाय नमः, ऊँ अग्रवराय नमः, ऊँ सूक्ष्माय नमः, ऊँ सर्वदेवाय नमः, ऊँ तपोमयाय नमः, ऊँ सुयुक्ताय नमः, ऊँ शोभनाय नमः, ऊँ वज्रिणे नमः, ऊँ प्रासानाम्प्रभवाय नमः, ऊँ अव्ययाय नमः, ऊँ गुहाय नमः, ऊँ कान्ताय नमः, ऊँ निजसर्गाय नमः, ऊँ पवित्राय नमः, ऊँ सर्वपावनाय नमः, ऊँ श्रृंगिणे नमः, ऊँ श्रृंगप्रियाय नमः, ऊँ बभ्रवे नमः, ऊँ राजराजाय नमः, ऊँ निरामयाय नमः, ऊँ अभिरामाय नमः, ऊँ सुरगणाय नमः, ऊँ विरामाय नमः, ऊँ सर्वसाधनाय नमः, ऊँ ललाटाक्षाय नमः, ऊँ विश्वदेवाय नमः, ऊँ हरिणाय नमः, ऊँ ब्रह्मवर्चसे नमः, ऊँ स्थावरपतये नमः, ऊँ नियमेन्द्रियवर्धनाय नमः, ऊँ सिद्धार्थाय नमः, ऊँ सिद्धभूतार्थाय नमः, ऊँ अचिन्ताय नमः, ऊँ सत्यव्रताय नमः, ऊँ शुचये नमः, ऊँ व्रताधिपाय नमः, ऊँ पराय नमः, ऊँ ब्रह्मणे नमः, ऊँ भक्तानांपरमागतये नमः, ऊँ विमुक्ताय नमः, ऊँ मुक्ततेजसे नमः, ऊँ श्रीमते नमः, ऊँ श्रीवर्धनाय नमः, ऊँ श्री जगते नमः (१००८)
ऊँ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।।

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मंत्र क्या है ? क्या होती है मंत्र शक्ति ?

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मंत्र क्या है ? क्या होती है मंत्र शक्ति ? मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥

* मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब।
   महामत्त गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब॥

भावार्थ:- जिसके वश में ब्रह्मा, विष्णु, शिव और सभी देवता हैं, वह मंत्र अत्यन्त छोटा होता है। महान मतवाले गजराज को छोटा सा अंकुश वश में कर लेता है॥

मंत्र शब्दों का संचय होता है, जिससे इष्ट को प्राप्त कर सकते हैं और अनिष्ट बाधाओं को नष्ट कर सकते हैं । मंत्र इस शब्द में “मन्” का तात्पर्य मन और मनन से है और “त्र” का तात्पर्य शक्ति और रक्षा से है ।

अगले स्तर पर मंत्र अर्थात जिसके मनन से व्यक्ति को पूरे ब्रह्मांड से उसकी एकरूपता का ज्ञान प्राप्त होता है । इस स्तर पर मनन भी रुक जाता है मन का लय हो जाता है और मंत्र भी शांत हो जाता है । इस स्थिति में व्यक्ति जन्म-मृत्यु के फेरे से छूट जाता है ।

मंत्रजप के अनेक लाभ हैं, उदा. आध्यात्मिक प्रगति, शत्रु का विनाश, अलौकिक शक्ति पाना, पाप नष्ट होना और वाणी की शुद्धि।

मंत्र जपने और ईश्वर का नाम जपने में भिन्नता है । मंत्रजप करने के लिए अनेक नियमों का पालन करना पडता है; परंतु नामजप करने के लिए इसकी आवश्यकता नहीं होती । उदाहरणार्थ मंत्रजप सात्त्विक वातावरण में ही करना आवश्यक है; परंतु ईश्वर का नामजप कहीं भी और किसी भी समय किया जा सकता है ।

मंत्रजप से जो आध्यात्मिक ऊर्जा उत्पन्न होती है उसका विनियोग अच्छे अथवा बुरे कार्य के लिए किया जा सकता है । यह धन कमाने समान है; धन का उपयोग किस प्रकार से करना है, यह धन कमाने वाले व्यक्ति पर निर्भर करता है ।

मंत्र का मूल भाव होता है- मनन। मनन के लिए ही मंत्रों के जप के सही तरीके धर्मग्रंथों में उजागर है। शास्त्रों के मुताबिक मंत्रों का जप पूरी श्रद्धा और आस्था से करना चाहिए। साथ ही एकाग्रता और मन का संयम मंत्रों के जप के लिए बहुत जरुरी है। माना जाता है कि इनके बिना मंत्रों की शक्ति कम हो जाती है और कामना पूर्ति या लक्ष्य प्राप्ति में उनका प्रभाव नहीं होता है।

यहां मंत्र जप से संबंधित कुछ जरूरी नियम और तरीके बताए जा रहे हैं, जो गुरु मंत्र हो या किसी भी देव मंत्र और उससे मनचाहे कार्य सिद्ध करने के लिए बहुत जरूरी माने गए हैं- – मंत्रों का पूरा लाभ पाने के लिए जप के दौरान सही मुद्रा या आसन में बैठना भी बहुत जरूरी है। इसके लिए पद्मासन मंत्र जप के लिए श्रेष्ठ होता है। इसके बाद वीरासन और सिद्धासन या वज्रासन को प्रभावी माना जाता है।

~~मंत्र जप के लिए सही वक्त भी बहुत जरूरी है। इसके लिए ब्रह्ममूर्हुत यानी तकरीबन 4 से 5 बजे या सूर्योदय से पहले का समय श्रेष्ठ माना जाता है। प्रदोष काल यानी दिन का ढलना और रात्रि के आगमन का समय भी मंत्र जप के लिए उचित माना गया है।

~~अगर यह वक्त भी साध न पाएं तो सोने से पहले का समय भी चुना जा सकता है।

~~मंत्र जप प्रतिदिन नियत समय पर ही करें।

~~ एक बार मंत्र जप शुरु करने के बाद बार-बार स्थान न बदलें। एक स्थान नियत कर लें। – मंत्र जप में तुलसी, रुद्राक्ष, चंदन या स्फटिक की 108 दानों की माला का उपयोग करें। यह प्रभावकारी मानी गई है।

~~ कुछ विशेष कामनों की पूर्ति के लिए विशेष मालाओं से जप करने का भी विधान है। जैसे धन प्राप्ति की इच्छा से मंत्र जप करने के लिए मूंगे की माला, पुत्र पाने की कामना से जप करने पर पुत्रजीव के मनकों की माला और किसी भी तरह की कामना पूर्ति के लिए जप करने पर स्फटिक की माला का उपयोग करें।

~~किसी विशेष जप के संकल्प लेने के बाद निरंतर उसी मंत्र का जप करना चाहिए।

~~ मंत्र जप के लिए कच्ची जमीन, लकड़ी की चौकी, सूती या चटाई अथवा चटाई के आसन पर बैठना श्रेष्ठ है। सिंथेटिक आसन पर बैठकर मंत्र जप से बचें। – मंत्र जप दिन में करें तो अपना मुंह पूर्व या उत्तर दिशा में रखें और अगर रात्रि में कर रहे हैं तो मुंह उत्तर दिशा में रखें।

~~ मंत्र जप के लिए एकांत और शांत स्थान चुनें। जैसे- कोई मंदिर या घर का देवालय।

~~ मंत्रों का उच्चारण करते समय यथासंभव माला दूसरों को न दिखाएं। अपने सिर को भी कपड़े से ढंकना चाहिए।

~~माला का घुमाने के लिए अंगूठे और बीच की उंगली का उपयोग करें।

~~ माला घुमाते समय माला के सुमेरू यानी सिर को पार नहीं करना चाहिए, जबकि माला पूरी होने पर फिर से सिर से आरंभ करना चाहिए। मंत्र क्या है …..

“मंत्र” का अर्थ

“मंत्र” का अर्थ शास्त्रों में ~मन: तारयति इति मंत्र:` के रूप में बताया गया है, अर्थात मन को तारने वाली ध्वनि ही मंत्र है। वेदों में शब्दों के संयोजन से ऐसी ध्वनि उत्पन्न की गई है, जिससे मानव मात्र का मानसिक कल्याण हो। “बीज मंत्र” किसी भी मंत्र का वह लघु रूप है, जो मंत्र के साथ उपयोग करने पर उत्प्रेरक का कार्य करता है। यहां हम यह भी निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि बीज मंत्र मंत्रों के प्राण हैं या उनकी चाबी हैं

जैसे एक मंत्र-“श्रीं” मंत्र की ओर ध्यान दें तो इस बीज मंत्र में “श” लक्ष्मी का प्रतीक है, “र” धन सम्पदा का, “ई” प्रतीक शक्ति का और सभी मंत्रों में प्रयुक्त “बिन्दु” दुख हरण का प्रतीक है। इस तरह से हम जान पाते हैं कि एक अक्षर में ही मंत्र छुपा होता है। इसी तरह ऐं, ह्रीं, क्लीं, रं, वं आदि सभी बीज मंत्र अत्यंत कल्याणकारी हैं। हम यह कह सकते हैं कि बीज मंत्र वे गूढ़ मंत्र हैं, जो किसी भी देवता को प्रसन्न करने में कुंजी का कार्य करते हैं

मंत्र शब्द मन +त्र के संयोग से बना है !मन का अर्थ है सोच ,विचार ,मनन ,या चिंतन करना ! और “त्र ” का अर्थ है बचाने वाला , सब प्रकार के अनर्थ, भय से !लिंग भेद से मंत्रो का विभाजन पुरुष ,स्त्री ,तथा नपुंसक के रूप में है !पुरुष मन्त्रों के अंत में “हूं फट ” स्त्री मंत्रो के अंत में “स्वाहा ” ,तथा नपुंसक मन्त्रों के अंत में “नमः ” लगता है ! मंत्र साधना का योग से घनिष्ठ सम्बन्ध है……

मंत्रों की शक्ति तथा इनका महत्व ज्योतिष में वर्णित सभी रत्नों एवम उपायों से अधिक है।

मंत्रों के माध्यम से ऐसे बहुत से दोष बहुत हद तक नियंत्रित किए जा सकते हैं जो रत्नों तथा अन्य उपायों के द्वारा ठीक नहीं किए जा सकते।
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