Categories
Uncategorized

जाने कौन थे ? भगवान शिव के माता पिता

Shri Ramchandra Sevadham Trust, Nawalgarh

भगवान शिव के माता पिता कौन हैं ?
पौराणिक मान्यता के अनुसार भगवान शिव के माता पिता से जुड़े रहस्य को जानने के लिए ऋषि यों ने एक बार उनसे प्रशन किया और पूछा कि हे महादेव आपको किसने जन्म दिया है ?
शिव के माता पिता से जुड़े प्रशन का उत्तर देते हुए भगवान शिव ने ऋषियो की इस जिज्ञासा को शांत करते हुए कहा कि ,मुझे इस सृष्टि का निर्माण करने वाले भगवान ब्रह्मा ने जन्म दिया है !
ऋषियों की जिज्ञासा इतने में शांत नहीं हुई तो उन्होंने फिर एक बार भगवान शिव से प्रशन पूछा कि अगर ब्रह्मा आपके पिता है ,तो फिर आप के दादाजी कौन है ?
भगवान शिव ने इस बात का जवाब देते हुए कहा कि इस सृष्टि का पालन करने वाले भगवान विष्णु ही मेरे दादाजी हैं !
भगवान की इस लीला से अंजान ऋषियों ने फिर से प्शन किया कि अगर आपके पिता ब्रह्मा है ,और दादाजी विष्णु है ! तो फिर आपके परदादा कौन है ?
ऋषियों के इस प्रशन को सुन भगवान शिव ने मुस्कुराते हुए कहा कि भगवान शिव खुद ही मेरे परदादा है !
श्रीमद् देवी महापुराण के अनुसार कहा जाता है ,कि एक बार नारद जी ने अपने पिता ब्रह्मा से सवाल किया था ! कि इस सृष्टि का निर्माण किसने किया है ?
ब्रह्माजी ने भगवान विष्णु ने या फिर स्वयं भगवान शिव ने तथा इन तीनों भगवान को जन्म किसने दिया है ?
अर्थात आपके माता पिता कौन है ?
तब परमपिता ब्रम्हा ने त्रिदेवों की जन्म की गाथा का वर्णन करते हुए कहा की …..
प्रकृति स्वरूप दुर्गा और काल सदाशिव स्वरूप ब्रह्मा के योग से ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उत्पत्ति हुई है !
अर्थात प्रकृति स्वरूप दुर्गा की माता है ,और ब्रह्मा यानि काल सदाशिव के पिता है !
पुराणों में भगवान शिव और आदि-शक्ति की महिमाँओं के अलग-अलग उल्लेख मिलते हैं !
लेकिन ईश्वर की लीला तो वही जाने उनकी लीलाओं को समझना हम इंसानों के बस की बात नहीं है !
क्यो कि भगवान शिव तो देवों के देव भी हैं ,और वही आदि है ,और वही अंत भी है !
Categories
Uncategorized

ज्ञानोदय

Shri Ramchandra Sevadham Trust, Nawalgarh


जीवन की महत्ता और सफलता उसकी आत्मिक प्रगति पर निर्भर है, यह विश्वास मन में रखना चाहिए व नित्य सुदृढ़ बनाना चाहिए। भौतिक सफलताएं तो उतनी ही देर आनन्द देती हैं, जब तक कि उनकी प्राप्ति नहीं हो जाती। मिलते ही आनन्द समाप्त हो जाता है व और अधिक के लिए व्याकुलता, बेचैनी आरंभ हो जाती है। जो मानव जीवन का श्रेष्ठतम सदुपयोग कर उस आनन्द की प्राप्ति के इच्छुक हैं, जिसके लिए यह जन्म मिला है, उन्हें आत्मिक प्रगति के लिए तत्पर होना चाहिए और उसके दोनों आधारों उपासना और साधना का अवलम्बन लेना चाहिए।
मनुष्य में जो असीम एवं अपरिमित शक्तियाँ भरी पड़ी हैं उनके अस्तित्व में विश्वास करने और तद्नुरूप उन्हें हस्तगत कर लेने की योग्यता-क्षमता को प्रतिभा के नाम से जाना जाता है। यह न तो जन्मजात उपलब्धि है और न किसी का दिया हुआ वरदान-आशीर्वाद। भाग्यवश मिला हुआ आकस्मिक संयोग-सुयोग भी नहीं कहा जा सकता। वह स्व उपार्जित ऐसी विलक्षण सम्पदा है, जिसके सहारे जीवन की प्रतिकूल दीखने वाली परिस्थितियों को अनुकूल बनाया जा सकता है।
             जिन व्यक्तियों ने अपनी प्रसुप्त प्रतिभा को उपयोगी दिशा में लगाया है, उसके सत्परिणाम उन्हें हाथों हाथ मिलते देखे गये हैं। परिस्थितियाँ कितनी विपन्न और विषम क्यों न बनी रही हों, पर धुन के धनी लोगों ने जीवन की महत्वपूर्ण सफलताएँ अर्जित कर दिखाई हैं।

Categories
Uncategorized

धार्मिक कार्य में मौली क्यों बांधते हैं?

Shri Ramchandra Sevadham Trust, Nawalgarh
मौली बांधना वैदिक परंपरा का हिस्सा है। यज्ञ के दौरान इसे बांधे जाने की परंपरा तो पहले से ही रही है, लेकिन इसको संकल्प सूत्र के साथ ही रक्षा-सूत्र के रूप में तब से बांधा जाने लगा, जबसे असुरों के दानवीर राजा बलि की अमरता के लिए भगवान वामन ने उनकी कलाई पर रक्षा-सूत्र बांधा था। इसे रक्षाबंधन का भी प्रतीक माना जाता है, ‍जबकि देवी लक्ष्मी ने राजा बलि के हाथों में अपने पति की रक्षा के लिए यह बंधन बांधा था। मौली को हर हिन्दू बांधता है। इसे मूलत: रक्षा सूत्र कहते हैं।
मौली का अर्थ :– ‘मौली’ का शाब्दिक अर्थ है ‘सबसे ऊपर’। मौली का तात्पर्य सिर से भी है। मौली को कलाई में बांधने के कारण इसे कलावा भी कहते हैं। इसका वैदिक नाम उप मणिबंध भी है। मौली के भी प्रकार हैं। शंकर भगवान के सिर पर चन्द्रमा विराजमान है इसीलिए उन्हें चंद्रमौली भी कहा जाता है।
मौली बांधने का मंत्र : – ‘येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।’

कैसी होती है मौली? : – मौली कच्चे धागे (सूत) से बनाई जाती है जिसमें मूलत: 3 रंग के धागे होते हैं- लाल, पीला और हरा, लेकिन कभी-कभी यह 5 धागों की भी बनती है जिसमें नीला और सफेद भी होता है। 3 और 5 का मतलब कभी त्रिदेव के नाम की, तो कभी पंचदेव।
कहां-कहां बांधते हैं मौली? :-  मौली को हाथ की कलाई, गले और कमर में बांधा जाता है। इसके अलावा मन्नत के लिए किसी देवी-देवता के स्थान पर भी बांधा जाता है और जब मन्नत पूरी हो जाती है तो इसे खोल दिया जाता है। इसे घर में लाई गई नई वस्तु को भी बांधा जाता और इसे पशुओं को भी बांधा जाता है।
मौली बांधने के नियम :- *शास्त्रों के अनुसार पुरुषों एवं अविवाहित कन्याओं को दाएं हाथ में कलावा बांधना चाहिए। विवाहित स्त्रियों के लिए बाएं हाथ में कलावा बांधने का नियम है।
*कलावा बंधवाते समय जिस हाथ में कलावा बंधवा रहे हों, उसकी मुट्ठी बंधी होनी चाहिए और दूसरा हाथ सिर पर होना चाहिए।
*मौली कहीं पर भी बांधें, एक बात का हमेशा ध्यान रहे कि इस सूत्र को केवल 3 बार ही लपेटना चाहिए व इसके बांधने में वैदिक विधि का प्रयोग करना चाहिए।
कब बांधी जाती है मौली? :- *पर्व-त्योहार के अलावा किसी अन्य दिन कलावा बांधने के लिए मंगलवार और शनिवार का दिन शुभ माना जाता है।
*हर मंगलवार और शनिवार को पुरानी मौली को उतारकर नई मौली बांधना उचित माना गया है। उतारी हुई पुरानी मौली को पीपल के वृक्ष के पास रख दें या किसी बहते हुए जल में बहा दें।
*प्रतिवर्ष की संक्रांति के दिन, यज्ञ की शुरुआत में, कोई इच्छित कार्य के प्रारंभ में, मांगलिक कार्य, विवाह आदि हिन्दू संस्कारों के दौरान मौली बांधी जाती है।
क्यों बांधते हैं मौली? :- * मौली को धार्मिक आस्था का प्रतीक माना जाता है।
* किसी अच्छे कार्य की शुरुआत में संकल्प के लिए भी बांधते हैं।
* किसी देवी या देवता के मंदिर में मन्नत के लिए भी बांधते हैं।
* मौली बांधने के 3 कारण हैं- पहला आध्यात्मिक, दूसरा चिकित्सीय और तीसरा मनोवैज्ञानिक।
* किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत करते समय या नई वस्तु खरीदने पर हम उसे मौली बांधते हैं ताकि वह हमारे जीवन में शुभता प्रदान करे।
* हिन्दू धर्म में प्रत्येक धार्मिक कर्म यानी पूजा-पाठ, उद्घाटन, यज्ञ, हवन, संस्कार आदि के पूर्व पुरोहितों द्वारा यजमान के दाएं हाथ में मौली बांधी जाती है।
* इसके अलावा पालतू पशुओं में हमारे गाय, बैल और भैंस को भी पड़वा, गोवर्धन और होली के दिन मौली बांधी जाती है।
मौली करती है रक्षा :–  मौली को कलाई में बांधने पर कलावा या उप मणिबंध करते हैं। हाथ के मूल में 3 रेखाएं होती हैं जिनको मणिबंध कहते हैं। भाग्य व जीवनरेखा का उद्गम स्थल भी मणिबंध ही है। इन तीनों रेखाओं में दैहिक, दैविक व भौतिक जैसे त्रिविध तापों को देने व मुक्त करने की शक्ति रहती है।
इन मणिबंधों के नाम शिव, विष्णु व ब्रह्मा हैं। इसी तरह शक्ति, लक्ष्मी व सरस्वती का भी यहां साक्षात वास रहता है। जब हम कलावा का मंत्र रक्षा हेतु पढ़कर कलाई में बांधते हैं तो यह तीन धागों का सूत्र त्रिदेवों व त्रिशक्तियों को समर्पित हो जाता है जिससे रक्षा-सूत्र धारण करने वाले प्राणी की सब प्रकार से रक्षा होती है। इस रक्षा-सूत्र को संकल्पपूर्वक बांधने से व्यक्ति पर मारण, मोहन, विद्वेषण, उच्चाटन, भूत-प्रेत और जादू-टोने का असर नहीं होता।
आध्यात्मिक पक्ष :- *शास्त्रों का ऐसा मत है कि मौली बांधने से त्रिदेव- ब्रह्मा, विष्णु व महेश तथा तीनों देवियों- लक्ष्मी, पार्वती व सरस्वती की कृपा प्राप्त होती है। ब्रह्मा की कृपा से कीर्ति, विष्णु की कृपा से रक्षा तथा शिव की कृपा से दुर्गुणों का नाश होता है। इसी प्रकार लक्ष्मी से धन, दुर्गा से शक्ति एवं सरस्वती की कृपा से बुद्धि प्राप्त होती है।
*यह मौली किसी देवी या देवता के नाम पर भी बांधी जाती है जिससे संकटों और विपत्तियों से व्यक्ति की रक्षा होती है। यह मंदिरों में मन्नत के लिए भी बांधी जाती है।
*इसमें संकल्प निहित होता है। मौली बांधकर किए गए संकल्प का उल्लंघन करना अनुचित और संकट में डालने वाला सिद्ध हो सकता है। यदि आपने किसी देवी या देवता के नाम की यह मौली बांधी है तो उसकी पवित्रता का ध्यान रखना भी जरूरी हो जाता है।
*कमर पर बांधी गई मौली के संबंध में विद्वान लोग कहते हैं कि इससे सूक्ष्म शरीर स्थिर रहता है और कोई दूसरी बुरी आत्मा आपके शरीर में प्रवेश नहीं कर सकती है। बच्चों को अक्सर कमर में मौली बांधी जाती है। यह काला धागा भी होता है। इससे पेट में किसी भी प्रकार के रोग नहीं होते। 
चिकित्सीय पक्ष : प्राचीनकाल से ही कलाई, पैर, कमर और गले में भी मौली बांधे जाने की परंपरा के ‍चिकित्सीय लाभ भी हैं। शरीर विज्ञान के अनुसार इससे त्रिदोष अर्थात वात, पित्त और कफ का संतुलन बना रहता है। पुराने वैद्य और घर-परिवार के बुजुर्ग लोग हाथ, कमर, गले व पैर के अंगूठे में मौली का उपयोग करते थे, जो शरीर के लिए लाभकारी था। ब्लड प्रेशर, हार्टअटैक, डायबिटीज और लकवा जैसे रोगों से बचाव के लिए मौली बांधना हितकर बताया गया है।
हाथ में बांधे जाने का लाभ : शरीर की संरचना का प्रमुख नियंत्रण हाथ की कलाई में होता है अतः यहां मौली बांधने से व्यक्ति स्वस्थ रहता है। उसकी ऊर्जा का ज्यादा क्षय नहीं होता है। शरीर विज्ञान के अनुसार शरीर के कई प्रमुख अंगों तक पहुंचने वाली नसें कलाई से होकर गुजरती हैं। कलाई पर कलावा बांधने से इन नसों की क्रिया नियंत्रित रहती है।
कमर पर बांधी गई मौली : कमर पर बांधी गई मौली के संबंध में विद्वान लोग कहते हैं कि इससे सूक्ष्म शरीर स्थिर रहता है और कोई दूसरी बुरी आत्मा आपके शरीर में प्रवेश नहीं कर सकती है। बच्चों को अक्सर कमर में मौली बांधी जाती है। यह काला धागा भी होता है। इससे पेट में किसी भी प्रकार के रोग नहीं होते।
मनोवैज्ञानिक लाभ : मौली बांधने से उसके पवित्र और शक्तिशाली बंधन होने का अहसास होता रहता है और इससे मन में शांति और पवित्रता बनी रहती है। व्यक्ति के मन और मस्तिष्क में बुरे विचार नहीं आते और वह गलत रास्तों पर नहीं भटकता है। कई मौकों पर इससे व्यक्ति गलत कार्य करने से बच जाता है।
Categories
Uncategorized

ॐ के उच्चारण से शारीरिक लाभ

Shri Ramchandra Sevadham Trust, Nawalgarh

“ॐ” का उच्चारण है बड़ा चमत्कारिक , जाप से होता है शारीरिक लाभ!
ॐ अर्थात् ओउम् तीन अक्षरों से बना है, जो सर्व विदित है । अ उ म् । “अ” का अर्थ है उत्पन्न होना, “उ” का तात्पर्य है उठना, उड़ना अर्थात् विकास, “म” का मतलब है मौन हो जाना अर्थात् “ब्रह्मलीन” हो जाना। ॐ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और पूरी सृष्टि का द्योतक है। ॐ का उच्चारण शारीरिक लाभ प्रदान करता है। जानें, ॐ कैसे है स्वास्थ्यवर्द्धक और अपनाएं आरोग्य के लिए मात्र ॐ के उच्चारण का मार्ग

इस मंत्र का प्रारंभ है अंत नहीं। यह ब्रह्मांड की अनाहत ध्वनि है। अनाहत अर्थात किसी भी प्रकार की टकराहट या दो चीजों या हाथों के संयोग के उत्पन्न ध्वनि नहीं। इसे अनहद भी कहते हैं। संपूर्ण ब्रह्मांड में यह अनवरत जारी है।

उच्चारण की विधि :

प्रातः उठकर पवित्र होकर ओंकार ध्वनि का उच्चारण करें। ॐ का उच्चारण पद्मासन, अर्धपद्मासन, सुखासन, वज्रासन में बैठकर कर सकते हैं। इसका उच्चारण 5, 7, 10, 21 बार अपने समयानुसार कर सकते हैं। ॐ जोर से बोल सकते हैं, धीरे-धीरे बोल सकते हैं। ॐ जप माला से भी कर सकते हैं।

ॐ के उच्चारण से शारीरिक लाभ –

1. अनेक बार ॐ का उच्चारण करने से पूरा शरीर तनाव-रहित हो जाता है।
2. अगर आपको घबराहट या अधीरता होती है तो ॐ के उच्चारण से उत्तम कुछ भी नहीं।
3. यह शरीर के विषैले तत्त्वों को दूर करता है, अर्थात तनाव के कारण पैदा होने वाले द्रव्यों पर नियंत्रण करता है।
4. यह हृदय और ख़ून के प्रवाह को संतुलित रखता है।
5. इससे पाचन शक्ति तेज़ होती है।
6. इससे शरीर में फिर से युवावस्था वाली स्फूर्ति का संचार होता है।
7. थकान से बचाने के लिए इससे उत्तम उपाय कुछ और नहीं।
8. नींद न आने की समस्या इससे कुछ ही समय में दूर हो जाती है। रात को सोते समय नींद आने तक मन में इसको करने से निश्चित नींद आएगी।
9. कुछ विशेष प्राणायाम के साथ इसे करने से फेफड़ों में मज़बूती आती है।
10. ॐ के पहले शब्‍द का उच्‍चारण करने से कंपन पैदा होती है। इन कंपन से रीढ़ की हड्डी प्रभावित होती है और इसकी क्षमता बढ़ जाती है।
11. ॐ के दूसरे शब्‍द का उच्‍चारण करने से गले में कंपन पैदा होती है जो कि थायरायड ग्रंथी पर प्रभाव डालता है। 

Categories
Uncategorized

ज़माने में आये हो तो जीने का हुनर भी रखना..

Shri Ramchandra Sevadham Trust, Nawalgarhज़माने में आये हो तो जीने का हुनर भी रखना..
*दुश्मनों से कोई खतरा नहीं बस अपनो पे नजर रखना.!!*
Categories
Uncategorized

वास्तु के इस नियम से होंगे मालामाल

Shri Ramchandra Sevadham Trust, Nawalgarhवास्तुशास्त्र में यदि सबसे अधिक वर्जित कोई दिशा मानी गई है तो वह है दक्षिण दिशा। आम लोगों के मन में भी दक्षिण दिशा को लेकर कई भ्रांतियां होती हैं। वास्तुशास्त्र के अनुसार दक्षिण दिशा का स्वामी यम है। इस दिशा के शुभ-अशुभ परिणाम स्त्रियों पर सबसे ज्यादा पड़ते हैं। इसका सबे पहला दुष्परिणाम तो यह है कि यदि आपने दक्षिणमुखी भवन बनवाना प्रारंभ किया, वैसे ही आर्थिक संकट खड़े होने लगते हैं। भवन निर्माण में धन की कमी बनी ही रहती है।

पश्चिम दिशा: भूलकर भी न करें ये गलतियां वरना… यदि दक्षिणमुखी भवन या भूमि खरीदना अनिवार्य हो ही जाए तो सबसे पहले उस भूखंड को किसी और व्यक्ति के नाम पर खरीद लें और यदि पहले से उस पर कुछ निर्माण है तो उसे तोड़ दें। उसके बाद पश्चिम या दक्षिण दिशा की ओर से भवन का निर्माण प्रारंभ करें। भवन पूरा बन जाने के बाद उसे अपने नाम करवा लें और गृहप्रवेश करें। हालांकि ऐसा नहीं हैकि दक्षिणमुखी भवन हमेशा ही बुरे परिणाम देता है। यदि कुछ बातों का ध्यान रखा जाए तो दक्षिणमुखी भवन में भी सुख से रहा जा सकता है। आइए जानते हैं दक्षिणमुखी भवन से जुड़ी ऐसी ही कुछ अच्छी-बुरी बातें:

अच्छे परिणाम दक्षिणमुखी भूमि पर भवन बना रहे है तो ध्यान रखें दक्षिण भाग ऊंचा होना चाहिए। इससे उस भवन में रहने वाले स्वस्थ एवं सुखी होंगे। दक्षिण दिशा की भूमि ऊंची करके उस पर अटाला, बेकार का सामान रखने से शुभ परिणाम मिलेगा। भवन के सभी द्वार दक्षिणोन्मुखी ही होना चाहिए। ऐसा होने पर घर में संपन्नता आती है। दक्षिणी हिस्से में कमरे ऊंचे बनवाने चाहिए इससे मकान का मालिक ऐश्वर्य संपन्न होता है। दक्षिण दिशा के घर का पानी उत्तरी दिशा से होकर बाहर की ओर प्रवाहित हो तो धन लाभा होता है। ऐसे घर में रहने वाली स्त्रियों का स्वास्थ्य ठीक रहता है। घर के भीतर का पानी या बारिश का पानी उत्तर दिशा की ओर से बाहर निकलने का प्रबंध न हो तो यह जल पूर्वी दिशा से बाहर की ओर जाने की व्यवस्था करना चाहिए। ऐसा होने से उस भवन में रहने वाले लोग स्वस्थ रहते हैं।

बुरे परिणाम दक्षिणमुखी भवन में खाली जगह, बरामदे, घर के सभी कमरे आदि का दक्षिणी भाग नीचा हो तो उस घर में रहने वाली स्त्रियां बीमार बनी रहती हैं। उनकी आकस्मिक मृत्यु जैसे दुर्योग भी बनते हैं। क्षिण भाग में यदि कुआं हो तो धन की हानि होती है। परिवारजनों पर दुर्घटना की आशंका भी बनी रहती है।

यम का निवास चूंकि दक्षिण दिशा में यम का निवास होता है इसलिए भवन बनवाते समय दक्षिण दिशा की ओर कुछ जगह छोड़ देना चाहिए। इसके बाद भवन की दीवार बनाएं। दक्षिण भाग की चारदीवार भी भवन की दीवार से ऊंची होनी चाहिए।

आग्नेयमुखी दक्षिण भाग के द्वार आग्नेयमुखी हों तो चोर एवं अग्नि का भय रहता है। ऐसे भवन में रहने वालों के शत्रु बहुत होते हैं। दक्षिण भाग के द्वारा नैऋत्यमुखी हों तो कोई लाइलाज बीमारी होती है।

क्या करें भवन में दक्षिण दिशा का कोई दोष रह गया है तो उन्हें दूर करने के लिए दक्षिणी भाग की दीवारों को लाल रंग में रंगना चाहिए। दक्षिण दिशा की ओर लाल रंग का बल्ब लगाना चाहिए, जिसे शाम के समय नियमित जलाना चाहिए। दक्षिणी दीवार पर शीशा लगवाएं ताकि नकारात्मक ऊर्जा उससे परावर्तित हो सके। दक्षिण भाग में लाल रंग के सुगंधित फूलों के पौधे लगाएं।   

Categories
Uncategorized

आध्यात्मिक, पौराणिक

Shri Ramchandra Sevadham Trust, Nawalgarhसूतमहर्षि ने नारदमुनि की कहानी सुनाना प्रारंभ किया – पिछले जन्म में नारद ने एक दासी-पुत्र के रूप में जन्म लिया था। वह दासी एक भक्त के घर में काम किया करती थी। उस भक्त के घर में सदा ऋषि-मुनि, साधु-संत अतिथि-सत्कार पाया करते थे। बालक नारद उन ज्ञानियों की सेवा में लगा रहता था। जरूरत के व़क्त उन्हें पानी पिलाया करता था। विष्णु भगवान की महिमाओं की चर्चा भी बड़ी श्रद्धा व भक्ति से सुनता था। नीर याने पानी देनेवाले बालक का नामकरण ‘‘नारदश्श् करके वे लोग इसी नाम से उसे पुकारा करते थे।
           इस बीच नारद की माँ साँप के डँसने से मर गई। बालक नारद को अपने पिता का बिलकुल पता न था। उसके साथी नारद को दासी-पुत्र और अनाथ बालक कहा करते थे। कुछ ही दिनों में उस मकान के मालिक का स्वर्गवास हो गया ।
            नारद को कहीं आश्रय नहीं मिला। वह इधर-उधर भटकता था। भूख लगने पर यदि वह किसी मकान

के सामने जाकर खड़ा हो जाता तो लोग उसे भगा देते थे और गालियां देते थे कि यह बालक ऐसा पापी है जिसे अपने पिता का भी पता नहीं है। नारद साधु स्वभाव का था। इसलिए नटखट बच्चे उसपर पत्थर फेंकते और उसे सता कर आनंद का अनुभव करते थे।
          गाँव के लोगों से तंग आकर नारद सोचने लगा – ‘‘इन मनुष्यों के बीच मेरा जन्म क्यों हुआ है? मैंने कौन-सा अपराध किया है? ये लोग मेरे प्रति ऐसे अत्याचार क्यों करते हैं? आखि़र कीड़े-मकोड़े, जंगल के जानवर भी मजे से जी रहे हैं।श्श् यों सोचते हुए नारद जंगल की ओर चल पड़ा। उसे ऋषि मुनियों की बातें याद हो आईं।
         मुझे भी तपस्या करके देवताओं के बीच जन्म लेना है!श्श् यों निश्चय कर नारद ने तपस्या करना शुरू किया। अनाथों का जो रक्षक है, जो सारे जगत का पिता है, वही मेरे लिए भी पिता है। वह मुझे कुछ भी बनाये, पसंद है।श्श् इस प्रकार सोचते नारद ने समय का ख्याल किये बिना भयंकर तपस्या शुरू कर दी । नारद की तपस्या पूर्ण हो गई। उसके भीतर एक तेज ने प्रवेश किया।
          एक ज्योति के रूप में प्रत्यक्ष होकर विष्णु भगवान ने कहा- ‘‘वत्स नारद, तुम मेरे अन्दर विलीन होने जा रहे हो! इसके बाद तुम ब्रह्मा के मानस पुत्र के रूप में जन्म धारण करोगे! तुम चिरंजीवी होकर तीनों लोकों का भ्रमण करते हुए सदा मेरी स्तुति किया करोगे!श्श्
         इसके बाद नारद ने विष्णु के अंश को लेकर ब्रह्मा के मानस पुत्र के रूप में जन्म लिया और देवमुनि के रूप में पूजा पाने लगे। विष्णु भगवान की लीलाओं के अवतारों में एक नारद का अवतार भी बताया गया है!
         ऐसे नारद मुनि से उपदेश पाकर ध्रुव तेज गति के साथ आगे बढ़े चले जा रहे थे । उस समय उत्तमकुमार रोते हुए आ पहुँचा और ध्रुव के सामने हाथ फैला कर उनको रोकते हुए बोला- ‘‘भैया, आप कृपया जंगल में मत जाइये! आप जंगल में चले जायेंगे तो मैं किसके साथ मिलकर हरि का भजन करूँगा? मेरी माताजी ने आप को डांटा, पर मैंने क्या किया है? मुझ पर आप क्यों नाराज़ होते हैं? आप रुक जाइये।श्श् यों कहते हुए उत्तम फूट-फूट कर रोने लगा।
          ध्रुव ने उत्तम कुमार के गले लगकर समझाया- ‘‘मेरे छोटे भैया! मेरी माताजी ने मुझे जन्म दिया। मुझे क्या यह साबित नहीं करना है कि मेरी माताजी भी महान हैं? इसीलिए मैं जा रहा हूँ!श्श्
           उत्तम बोला- ‘‘तब तो मैं भी आप के साथ चलूँगा! आप तपस्या में लग जाइये। मैं आपके लिए कंद-मूल – फल लाया करूँगा।श्श्
ऐसा करने पर तुम्हारी माँ रोयेंगी! मेरे छोटे भाई! मैं तुम्हारा बड़ा भाई हूँ। इसलिए तुम्हें मेरी बात माननी ही पड़ेगी। जाओ!श्श् ध्रुव ने कहा।
          ध्रुव के मुँह से ये बातें सुनकर उत्तमकुमार वहीं पर लुढ़क पड़ा और रोने लगा। सुरुचि आकर उसे समझाने लगी। इसपर उत्तम गुस्से में आकर बोला-‘‘माँ, तुम मुझे छुओ मत! तुम्हारी वजह से ही बड़े भैया जंगल में जा रहे हैं!श्श्
         सुरुचि लज्जा के मारे सर झुकाकर अपने को कोसने लगी-‘‘मैं पापिन हूँ! मेरे ही कारण यह सब हुआ ।श्श् इतने में राजा उत्तानपाद पहुँचकर बोले- ‘‘ध्रुव! तुम रुक जाओ! यह सब मेरी मंद बुद्धि की वजह से ही हुआ है। मेरा राज्य तुम्हारा है। वापस चलो!श्श्
          इस बीच ध्रुव काफी दूर तक चले गये थे। नारद ने सुनीति से कहा- ‘‘माताजी, तुम्हारे गर्भ से एक रत्न जैसा पुत्र पैदा हुआ है। तुम अपने बेटे के बारे में बिलकुल चिंता मत करो! नारायण स्वयं उसकी रक्षा करेंगे।श्श् फिर उत्तानपाद की ओर मुड़कर नारद बोले- ‘‘राजन्, हम सबको इस बात पर खुश होना चाहिए! आपके पिता और ध्रुव के दादा स्वायंभुव मनु के वंश के लिए भी बालक ध्रुव अपार यश का कारण बनेगा। इसमें किसी का कोई दोष नहीं है। यह श्रीमन्नारायण का संकल्प है!श्श् यों समझाकर नारद मुनि ने सब को शांत किया।
          मधुवन में बैठकर ध्रुव ‘‘ओम् नमोनारायणायश्श् का मंत्र जापते तपस्या कर रहे थे। यमुनानदी उस मंत्र में श्रुति मिला रही थी। ध्रुव की तपस्या से तीनों लोक कांपने लगे।
             कोई यदि कहीं भी तपस्या करता हो, तो इंद्र यह सोच कर डरते हैं कि कहीं वह तप करके उनके पद की कामना न कर बैठे। इस डर से उनके तप में विघ्न डालने के लिए वे भयंकर इंद्रजाल रचा करते हैं। इसी प्रकार इंद्र ने अपने वज्रायुध को हिला कर आंधी-तूफान और बिजली गिराकर भयंकर उत्पात मचाये; पर ध्रुव थोड़ा भी विचलित न हुए। इस पर इंद्र ने पत्थरों की वर्षा शुरू की। मगर ध्रुव के सर पर घूमते हुए विष्णुचक्र ने उन पत्थरों को दूर फेंक दिया।
            उस समय नारद ने जाकर इंद्र को समझाया – ‘‘आप ने ध्रुव को साधारण बालक मात्र समझा है। आप उनका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते। आपको व्यर्थ में अपमानित होना पड़ेगा। इंद्रपद तो ध्रुव के लिए घास के तिनके के बराबर है।श्श्
            अंत में ध्रुव की तपस्या पर प्रसन्न हो विष्णु भगवान प्रत्यक्ष हुए। ध्रुव विष्णु के पैरों से लिपटकर अपार आनंद के मारे मूक रह गये। वे अपने मन में सोचने लगे – ‘‘भगवान! मैं पूर्ण हृदय से आपकी स्तुति करना चाहता हूँ। लेकिन मैं एक छोटा बालक हूँ! आप की स्तुति करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं!श्श्
            इस पर विष्णु ने अपने शंख को ध्रुव के गालों पर छुआ दिया। दूसरे ही क्षण वेदों के तत्वों से भरे स्तोत्र-पाठ साम गान के रूप में ध्रुव के मुँह से निकलने लगे। विष्णु ने मंदहास करते हुए पूछा- ‘‘ध्रुव! माँग लो, तुम क्या चाहते हो?श्श्
          ध्रुव भक्तिपूर्वक बोला-‘‘हे परम पुरुष! जैसे भौंरा कमल से हमेशा लगा रहता है, वैसे ही सदा आप के मधुर मंदहास वाले मुख पद्म को देखते रहने की मेरी इच्छा है! इससे बढ़कर मैं कुछ नहीं चाहता!श्श्
        ‘‘अच्छी बात है! लेकिन पहले तुम अपने राज्य में जाकर धर्म का पालन करते हुए शासन करो। इसके बाद तुम मेरे विश्वरूप का शिरो भाग बने ध्रुव पद पर पहुँच जाओगे। कल्पांतों के बाद भी तुम उस अचल पद को ग्रहण कर सदा प्रकाशमान रहोगे।श्श् यों समझा कर विष्णु भगवान अंतर्धान हो गये। इसीलिए ध्रुव को अनुग्रह प्रदान करनेवाले विष्णु का अवतरण ‘ध्रुव नारायणावतारश् कहा गया है।
           इसके बाद ध्रुव अपनी महिष्मती पुरी में आ गये। उत्तानपाद ध्रुव को अपना राज्य सौंप कर तपस्या करने चले गये।
            उत्तमकुमार का अभी तक विवाह नहीं हुआ था। राजधर्म के अनुसार जंगली जानवरों से जनता की रक्षा करने के लिए वह शिकार खेल हिमालय के पहाड़ी जंगलों में दुष्ट यक्षों ने उस पर हमला करके उसको मार डाला।
           अपने पुत्र की मृत्यु पर सुरुचि दुखी हो वहाँ पर पहुँची और जंगल के दावानल में फंसकर भस्म हो गई।
           ध्रुव ने यक्षों का नाश करने के लिए यक्षनगर अलकापुरी को घेर लिया। मायावी यक्षों ने अपनी क्षुद्र मायाओं का उन पर प्रयोग किया। ध्रुव ने नारायण अस्त्र के द्वारा मायाओं को विफल बनाकर उनको हरा दिया। यक्ष-राज कुबेर ध्रुव की शरण में आये। उनसे मैत्री करके उनको संपति देकर वापस भेज दिया। ध्रुव के कई पुत्र हुए। उन्होंने अनेक वर्षों तक आदर्श शासन द्वारा स्वायंभुव मनुवंश को यश प्रदान किया। अनेक वर्षों तक शासन करने के बाद ध्रुव ने अपने ज्येष्ठ पुत्र का राज्याभिषेक किया और वे बदरिकाश्रम में चले गये। वहाँ पर भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए स्वर्ण शरीर को प्राप्त किया।
         भगवान विष्णु के आदेश पर उनके सेवक एक विमान ले आये। वे लोग भी देखने में विष्णु के समान थे और उनके भी चार-चार हाथ थे।
           ध्रुव उन दूतों से बोले- ‘‘मेरी माताजी के लिए जो पद प्राप्त नहीं है, उसकी मुझे भी ज़रूरत नहीं।श्श् इस पर विष्णु के दूतों ने उनके आगे एक दिव्य विमान में जानेवाली सुनीति को दिखाया। इसे देख ध्रुव प्रसन्न हो उठे। वे विमान पर सवार हो ग्रह मण्डल, नक्षत्र मण्डल तथा सप्तर्षि मण्डल को पारकर ध्रुव पद पर पहुँचे। ध्रुव मण्डल को विष्णु पद भी कहते हैं। विष्णु का निवास वैकुण्ठ भी वहीं पर है। ध्रुव देति में गोलोक भी होता है। गोलोक में विष्णु प्रकृति स्वरूपिणी राधादेवी के साथ वेणुगान करते हुए आनंद भोगते हैं। गोलोक के ऊपर गहरा अंधकार छाया रहता है। उस अंधकार के पार विष्णु वैकुण्ठवासी बने प्रकाशमान होते हैं! ध्रुव सदा विष्णु को देखते उज्ज्वल कांति से द्युतिमान हो उठे। खूंटे से बंधी गाय की भांति सप्तर्षि मण्डल उनकी प्रदक्षिणा किया करता है। समस्त ग्रह गणों से पूर्ण शिशुमार चक्र उनके नीचे परिभ्रमण करता रहता है।
         गोलोक के नीचे ब्रह्मा का निवास सत्यलोक, तपलोक, जनलोक, महलोक, स्वलोक, भुवलोक, भूलोक, नामक सात ऊर्ध्वलोक, तथा भूलोक के नीचे अधोलोक कहलानेनाले अतल, वितल, सुतल, रसातल, तलातल, महातल और पाताल लोक ये सातों मिलाकर चौदह लोकों के ऊपर विश्व के शिवराग्र पर ध्रुव समस्त दिशाओं के लिए दिशासूचक बनकर अचल पद नक्षत्र के रूप में प्रकाशमान रहते हैं। लगन हो तो छोटे-बड़े सभी कार्य साधे जा सकते हैं। इसका प्रमाण पांच साल की उम्र में ही तप करने जानेवाला ध्रुव है।श्श् यों ध्रुव की कहानी समाप्त कर सूतमहर्षि फिर सुनाने लगेः अगर मत्स्य केवल जलचर है तो कच्छप यानी कछुआ जल और भूमि पर भी चलता है। जल में से प्राणी भूमि पर आ गया यानी जलचर की दशा से भूचर तक का विकास हुआ । इसीलिए कछुए के रूप में विष्णु अवतरित हुए जो दशावतारों में दूसरा अवतार है।

               इन शब्दों के साथ सूतमुनि ने कूर्मावतार की कहानी शुरू कीः 

           देवता व राक्षस क्षीर सागर का मंथन करके अमृत पाने के लिए तैयार हो गये। बाहुबल और संख्या की दृष्टि से भी शक्तिशाली बने राक्षसों ने सोचा कि अगर अमृत प्राप्त होगा तो सारा अमृत उन्हीं लोगों का हो जाएगा।
           राक्षसों को अमृत के द्वारा अगर अमरत्व प्राप्त हो जाएगा तो हमारा क्या नुक़सान होगा? सारी जिम्मेदारी विष्णु की ही मानकर देवता उन्हीं पर विश्वास करने लगे।
            क्षीरसागर पर मंदर पर्वत को मथानी के रूप में खड़ा करके महासर्प वासुकी को रस्से के रूप में लपेट कर समुद्र का मंथन करने का निर्णय हुआ। लेकिन मंदीर पर्वत को लाकर क्षीर सागर में डालना किसी के लिए मुमक़िन न था। विष्णु ने उन पर अनुग्रह करके यह काम संपन्न किया। इसीलिए वे गिरिधारी कहलाये।
           राक्षसों ने वासुकी सर्प को सर के छोर से पकड़ने का हठ किया । विष्णु ने देवताओं को समझाया कि वे राक्षसों की बात मान लें। तब विष्णु ने भी सब के अंत में वासुकी की पूँछ के छोर को पकड़ लिया। इसके बाद क्षीर सागर को मथने का काम शुरू हुआ।

Categories
Uncategorized

हिन्दू धर्म के पतन के कारण और निवारण

Shri Ramchandra Sevadham Trust, Nawalgarh ध्यान से पढ़ें, समझें और जीवन में उतारें |क्योंकि जो गलती को ठीक करले उसे ही मनुष्य कहते हैं | हिन्दुओं के सभी प्रमुख गुणों को मुसलमान, ईसाई और बौद्धों ने अपनाया और संसार में छा गए और हिन्दू इन्हें त्याग कर बर्बाद होने की कगार पर हैं |

1. हम यज्ञोपवीत, उपनयन या जनेऊ करवा कर सात से ग्यारह वर्ष के बच्चों को गुरुकुल भेजते थे. . अब बंद है |दूसरी तरफ मुसलमान और ईसाई नियम से मदरसा व् मिशन स्कूल में पहले धर्म की शिक्षा देते हैं | मदरसे, मिशनरी स्कूल हजारों लाखों की संख्या में खुल गए | हिन्दूओं के बच्चे भी उसी में शौक से जा रहे हैं और सेकुलरों की संख्या तेजी से बढ़ रही है |
2. प्रत्येक सनातन धर्मावलम्बी के लिए अनिवार्य गायत्री महामंत्र की त्रिकाल संध्या (सुबह, दोपहर, शाम तीनों समय जप-ध्यान) समाप्त |
दूसरी तरफ उनकी पाँच वक्त की नमाज और रोज की प्रेयर शुरू |
3. सप्ताह में कम से कम एक दिन, पूजा, सत्संग, संगठन के लिए मंदिर जाना बंद |
दूसरी तरफ उनका जुमे के दिन नमाज मस्जिद में, और Sunday prayer चर्च में शुरू |
4. साधू-संत-गुरु जनों का आदर बंद (हिन्दू अब अपने साधू संतो का अपमान खुले आम करते हैं और उपहास करते हैं) |
दूसरी तरफ उनके मौलवी, पादरी को भरपूर सम्मान मिलता है |
5. घरेलू समारोहों में धर्म-चर्चा बंद (केवल रटी-रटायी सत्यनारायण कथा, अखंड रामायण पाठ या कीर्तन) |
दूसरी तरफ उनके मौलाना की मिलाद (सत्संग) और पादरी का प्रवचन नियम से होते हैं |
6. देवता, धर्म-गुरु का अपमान होने पर जुबान खींच लेना बंद |
दूसरी तरफ उनका ईश निंदा कानून | धर्म विरुद्ध एक भी बात बर्दाश्त नहीं |
7. धर्म और साम्राज्य विस्तार के लिए अश्वमेध यज्ञ से पूरी पृथ्वी पर साम्राज्य विस्तार का लक्ष्य समाप्त |
दूसरी तरफ उन्होंने धर्म और राजनीति को जोड़कर दारुल इस्लाम और पूरे संसार को इसाई बनाने का काम युद्ध स्तर पर शुरू कर दिया |
8. पिछले 67 वर्षों में कांग्रेस सरकार की हिन्दू विरोधी, षड्यंत्रकारी नीतियों से, विद्यालयों में हिन्दू विरोधी पाठ्यक्रम और शिक्षा से हिन्दुओं को सेकुलर बना दिया |
दूसरी तरफ उन्हें अल्पसंख्यक के नाम पर भरपूर सरकारी अनुदान देकर उनकी धार्मिक शिक्षा को बढ़ावा देकर और कट्टर बना दिया |
इसीलिए संसार में हिन्दुओं का एक भी देश नहीं दूसरी तरफ मुसलामानों के 56 देश और ईसाईयों के विश्व में 150 से अधिक देश हैं |
परिणाम :- भारत का प्रधानमन्त्री, राष्ट्रवादी हिन्दू श्री Narendra Modi जी भी सेकुलर बनने के लिए विवश हो जाता है | कारण कि कट्टर हिन्दुत्व से विश्व के दो सौ से अधिक मुस्लिम और इसाई देशों की शह पर देश में गृह युद्ध छिड़ जाएगा | भारत का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा | पर मूर्ख हिन्दू ये मानने-समझने को तैयार नहीं | वो तो मोदी का अपमान करने में ही अपनी बहादुरी समझता है |
इसलिए हिन्दू एकता के लिए एक ही रास्ता बचा है :- जडों की ओर लौटें क्योंकि जड़ें सूख गई हैं | सनातन धर्म के मजबूत आधार ये हैं गायत्री, यज्ञ, गीता, गंगा, गौमाता, ज्योतिर्विद्या (जन्म कुंडली) जिसे वेदों का नेत्र कहा गया है और सद्गुरु | इन्हें अपनाने से भाग्य की उन्नति होती है और दुर्भाग्य का शमन होता है | आज 99% हिन्दू ये नहीं करते इसीलिए पतन की गर्त में पहुँच गए हैं |
अतः आज से ही सनातन धर्म के इन सिद्धांतों का पालन करना शुरू कर दें क्योंकि धर्म आचरण करने पर ही ईश्वर रक्षा करता है | धन, जन से भरपूर बनाता और विपत्ति हरता है |

आओ मिलकर करें साधना, दिव्य शक्ति (गायत्री) के मंत्र की |

गूँजे फिर जयकार धरा पर, सत्य सनातन धर्म की |
!!जय जय श्री राम!!
अनुरोध : अगर आप मेरा साथ देना चाहते हैं तो कृपया पोस्ट को कम से कम दो लोगों को टैग करें ! जिससे यह पेज का पोस्ट ज्यादा से ज्यदा लोगों तक जाए ! धन्यवाद !
!!जय श्री राम!!
Categories
Uncategorized

कर्म की कहानी

Shri Ramchandra Sevadham Trust, Nawalgarh
—————————-
‌ एक ही घड़ी मुहूर्त में जन्म लेने पर भी सबके कर्म और भाग्य अलग अलग क्यों -एक प्रेरक कथा एक बार एक राजा ने विद्वान ज्योतिषियों और ज्योतिष प्रेमियों की सभा बुलाकर प्रश्न किया कि-“मेरी जन्म पत्रिका के अनुसार मेरा राजा बनने का योग था मैं राजा बना , किन्तु उसी घड़ी मुहूर्त में अनेक जातकों ने जन्म लिया होगा जो राजा नहीं बन सके क्यों ? इसका क्या कारण है ?
राजा के इस प्रश्न से सब निरुत्तर हो गये ..क्या जबाब दें कि एक ही घड़ी मुहूर्त में जन्म लेने पर भी सबके भाग्य अलग अलग क्यों हैं ?
सब सोच में पड़ गये कि अचानक एक वृद्ध खड़े हुये और बोले – महाराज की जय हो ! आपके प्रश्न का उत्तर यहां भला कौन दे सकता है ?आप यहाँ से कुछ दूर घने जंगल में यदि जाएँ तो वहां पर आपको एक महात्मा मिलेंगे उनसे आपको उत्तर मिल सकता है ।
राजा की जिज्ञासा बढ़ी और घोर जंगल में जाकर देखा कि एक महात्मा आग के ढेर के पास बैठ कर अंगार (गरमा गरम कोयला ) खाने में व्यस्त हैं , सहमे हुए राजा ने महात्मा से जैसे ही प्रश्न पूछा महात्मा ने क्रोधित होकर कहा “तेरे प्रश्न का उत्तर देने के लिए मेरे पास समय नहीं है ,मैं भूख से पीड़ित हूँ ।तेरे प्रश्न का उत्तर यहां से कुछ आगे पहाड़ियों के बीच एक और महात्मा हैं,वे दे सकते हैं ।”
राजा की जिज्ञासा और बढ़ गयी, पुनः अंधकार और पहाड़ी मार्ग पार कर बड़ी कठिनाइयों से राजा दूसरे महात्मा के पास पहुंचा किन्तु यह क्या महात्मा को देखकर राजा हक्का बक्का रह गया ,दृश्य ही कुछ ऐसा था, वे महात्मा अपना ही माँस चिमटे से नोच नोच कर खा रहे थे ।
राजा को देखते ही महात्मा ने भी डांटते हुए कहा ” मैं भूख से बेचैन हूँ मेरे पास इतना समय नहीं है , आगे जाओ पहाड़ियों के उस पार एक आदिवासी गाँव में एक बालक जन्म लेने वाला है ,जो कुछ ही देर तक जिन्दा रहेगा सूर्योदय से पूर्व वहाँ पहुँचो वह बालक तेरे प्रश्न का उत्तर का दे सकता है ”
सुन कर राजा बड़ा बेचैन हुआ, बड़ी अजब पहेली बन गया मेरा प्रश्न, उत्सुकता प्रबल थी। कुछ भी हो यहाँ तक पहुँच चुका हूँ ,वहाँ भी जाकर देखता हूँ ,क्या होता है ।
राजा पुनः कठिन मार्ग पार कर किसी तरह प्रातः होने तक उस गाँव में पहुंचा, गाँव में पता किया और उस दंपति के घर पहुंचकर सारी बात कही और शीघ्रता से बच्चा लाने को कहा जैसे ही बच्चा हुआ दम्पत्ति ने नाल सहित बालक राजा के सम्मुख उपस्थित किया ।
राजा को देखते ही बालक ने हँसते हुए कहा राजन् ! मेरे पास भी समय नहीं है ,किन्तु अपना उत्तर सुनो लो –तुम,मैं और दोनों महात्मा सात जन्म पहले के चारों भाई व राजकुमार थे । एक बार शिकार खेलते खेलते हम जंगल में भटक गए। तीन दिन तक भूखे प्यासे भटकते रहे ।
अचानक हम चारों भाइयों को आटे की एक पोटली मिली ।जैसे-तैसे हमने चार बाटी सेंकी और
अपनी अपनी बाटी लेकर खाने बैठे ही थे कि भूख प्यास से तड़पते हुए एक महात्मा वहां आ गये । अंगार खाने वाले भइया से उन्होंने कहा –
“बेटा ,मैं दस दिन से भूखा हूँ ,अपनी बाटी में से मुझे भी कुछ दे दो , मुझ पर दया करो ,जिससे मेरा भी जीवन बच जाय, इस घोर जंगल से पार निकलने की मुझमें भी कुछ सामर्थ्य आ जायेगी ।”
इतना सुनते ही भइया गुस्से से भड़क उठे और बोले “तुम्हें दे दूंगा तो मैं क्या आग खाऊंगा ? चलो भागो यहां से ….।
वे महात्मा जी फिर मांस खाने वाले भइया के निकट आये उनसे भी अपनी बात कही किन्तु उन भईया ने भी महात्मा से गुस्से में आकर कहा कि “बड़ी मुश्किल से प्राप्त ये बाटी तुम्हें दे दूंगा तो मैं क्या अपना मांस नोचकर खाऊंगा ? ”
भूख से लाचार वे महात्मा मेरे पास भी आये , मुझसे भी बाटी मांगी… तथा दया करने को कहा किन्तु मैंने भी भूख में धैर्य खोकर कह दिया कि ” चलो आगे बढ़ो मैं क्या भूखा मरुँ …?”।
बालक बोला “अंतिम आशा लिये वो महात्मा , हे राजन !आपके पास भी आये,दया की याचना की, सुनते ही आपने उनकी दशा पर दया करते हुये ख़ुशी से अपनी बाटी में से आधी बाटी आदर सहित उन महात्मा को दे दी ।
बाटी पाकर महात्मा बड़े खुश हुए और जाते हुए बोले “तुम्हारा भविष्य तुम्हारे कर्म और व्यवहार से फलेगा । ”
बालक ने कहा “इस प्रकार हे राजन ! उस घटना के आधार पर हम अपना भोग, भोग रहे हैं ,धरती पर एक समय में अनेकों फूल खिलते हैं,किन्तु सबके फल रूप, गुण,आकार-प्रकार,स्वाद में भिन्न होते हैं।”
इतना कहकर वह बालक मर गया । राजा अपने महल में पहुंचा और माना कि शास्त्र भी तीन प्रकार के हॆ-ज्योतिष शास्त्र, कर्तव्य शास्त्र और व्यवहार शास्त्र । एक ही मुहूर्त में अनेकों जातक जन्मते हैं किन्तु सब अपना किया, दिया, लिया ही पाते हैं । जैसा भोग भोगना होगा वैसे ही योग बनेंगे । जैसा योग होगा वैसा ही भोग भोगना पड़ेगा । यही है जीवन।
Categories
Uncategorized

कृष्णं वंदे जगद्गुरुं !!

Shri Ramchandra Sevadham Trust, Nawalgarh



अर्जुन ने कहा,
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्‌ ॥
कायरता रुप दोष से नष्ट हुए स्वभाव वाला और धर्म का निर्णय करने में “मोहित” चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ, जो निश्चित की हुई हितकर बात हो वह मुझे बतलाईए। मैं आपका शिष्य हूँ, आपकी शरण में आए हुए मुझ दास को उपदेश दीजिए।


(श्रीमद्भगवद्गीता; अध्याय – २, श्लोक – ७)
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
समस्त धर्मों (अधर्म सहित) को छोड़कर, सर्व कर्मों का संन्यास करके, मुझ एक की शरण में आ, अर्थात् मैं जो कि सबका आत्मा, समभाव से सर्व भूतों में स्थित, ईश्वर, अच्युत तथा गर्भ, जन्म, जरा और मरण से रहित हूँ, उस एक के इस प्रकार शरण हो। अभिप्राय यह है कि ‘मुझ परमेश्वर से अन्य कुछ है ही नहीं’ ऐसा निश्चय कर। तुझ इस प्रकार निश्चय वाले को मैं अपना स्वरुप प्रत्यक्ष कराके, समस्त धर्माधर्म बन्धनरुप पापों से मुक्त कर ‘मोक्ष’ दूँगा। इसलिए तू शोक न कर अर्थात् चिन्ता मत कर।
(श्रीमद्भगवद्गीता ; अध्याय – १८ , श्लोक – ६६)


गुरु कौन है ?
सत् बुद्धि से युक्त और गुणातीत (सत्व, रज और तम के परे) जो निरंतर भगवान् में मन वाले और जिन्होंने भगवान् में ही प्राणों को अर्पण कर दिया है। जिसके द्वारा चेतनतत्त्व सिद्ध है। अनन्यदर्शी (न अन्य) तथा जो अपने लिए योगक्षेम (अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति का नाम योग है और प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम क्षेम है) सम्बन्धी चेष्टा भी नहीं करते क्योंकि वे जीने और मरने में भी अपनी वासना नहीं रखते, केवल भगवान् ही जिनके अवलम्बन हैं तथा जो भगवान् के प्रभाव को जानते हुए तथा गुण और प्रभाव सहित भगवान् का कथन करते हुए ही निरंतर संतुष्ट रहते हैं और वासुदेव में ही निरंतर रमण करते हैं। जो संपूर्ण भक्ति और ज्ञान दोनों से युक्त हैं।
क्या आपने ऐसे “गुरु” का दर्शन किया है ?


शिष्य कौन है ?
जिज्ञासु। कैसी जिज्ञासा ? ब्रम्ह/परमात्मा/भगवान् की जिज्ञासा। जिज्ञासु – जैसे स्वामी विवेकानंद! क्या आपने ऐसे “जिज्ञासु” का दर्शन किया है ?
केवल एक, उपरोक्त गुरु और शिष्य मिलकर समग्र विश्व के सोच-विचार और रहन-सहन पर सकरात्मक प्रभाव डाल सकते हैं, यह श्री रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद ने सिद्ध किया है! वर्तमान में – अनेक तथाकथित धर्मगुरु और उन सभी के असंख्य तथाकथित शिष्य (Actually Sales Force) सभी मिलकर भी क्या, कैसा और कितना प्रभाव हमारे अपने ही देश की सभ्यता, संस्कृति, व्यवस्था, आदि पर डालने में समर्थ हैं – स्वयं विचार करें।
जिज्ञासु को गुरु का मिलना ‘भाग्य’ की बात है। अन्यथा, जिज्ञासु को गुरु की तलाश छोड़ कर आज ही स्वयं को भगवान् को सौंप देना चाहिए! जैसे अर्जुन स्वयं को शिष्य और भगवान् श्री कृष्ण को गुरु के रुप में स्वीकार करते हुए भगवान् के शरणागत हो गया। यह “सौभाग्य” की बात है। जैसा कि भगवान् स्पष्ट कह ही नहीं रहे, बल्कि ऐसा करने वाले को मोक्ष प्राप्ति का वचन भी दे रहे हैं। भगवान् की शरण ग्रहण करते ही जिज्ञासु की पदोन्नति हो जाती है और वह ‘अर्थार्थी’ हो जाता है।
“जिज्ञासु और भगवान्” के बीच गुरु रुपी आवरण होता है। जिसमें उलझ जाने का भय रहता ही है। वर्त्तमान में, एक घंटे के प्रवचन में, तथाकथित धर्म-गुरु लगभग आधे घंटे तो गुरु की महिमा और आवश्यकता बताने में ही व्यतीत कर देते हैं। इतना ही नहीं, जिस साध्य भगवान् के लिए आपने उस धर्म-गुरु का शरण लिया है वह आपसे अपनी ही पूजा कराने में तनिक भी संकोच नहीं करता है। इसी का नाम “गुरु-पूजा” है। भगवान् तो फिर दूर ही हो जाते हैं।
“अर्थार्थी और भगवान्” के बीच कोई आवरण नहीं होता है। भगवान् ही गुरु और भगवान् ही साध्य होते हैं! यहाँ उलझे तो क्या ? स्वयं भगवान् ही सारे उलझन सुलझाते हैं ! भगवान् स्पष्ट कह रहे हैं, समस्त धर्मों (अधर्म सहित) को छोड़कर, सर्व कर्मों का संन्यास करके, मुझ एक की शरण में आ, अर्थात् मैं जो कि सबका आत्मा, समभाव से सर्व भूतों में स्थित, ईश्वर, अच्युत तथा गर्भ, जन्म, जरा और मरण से रहित हूँ, उस एक के इस प्रकार शरण हो। अभिप्राय यह है कि ‘मुझ परमेश्वर से अन्य कुछ है ही नहीं’ ऐसा निश्चय कर। “मोक्ष” की प्राप्ति निश्चित है !!
जय श्री कृष्ण !!

error: Content is protected !!