दिशा सम्बन्धी नियम
१. हमेशा दक्षिण की ओर सिर रख कर सोना चाहिए !
२. पश्चिम दिशा शयन हेतु द्वितीय उत्तम अवस्था है !
३ उत्तर की ओर सिर करके कभी नहीं सोना चाहिए !
४ इशान / पूर्व की ओर भी सिर करके नहीं सोना चाहिए !
( उपरोक्त दिशाए इस लिए बताई जा रही है क्योकि मैग्नटिक फ़ील्ड के दुष्प्रभाव से बचा जा सके और प्राण ऊर्जा ज्यादा से ज्यादा प्राप्त किया जा सके ! )
अन्य नियम ,
५ बहुत ऊंची खाट , मैली खाट , टूटी खाट पर नहीं सोना चाहिए !
6 सिर नीचा करके नहीं सोये !
7 बहुत ऊंची तकिया लगाकर नहीं सोये !
८. जूंठे मुह , भीगे पैर रख कर , मुख में ताम्बूल , पान मसाला आदि रख कर नहीं सोना चाहिए !
९ कभी भी नग्न-अवस्था में नहीं सोना चाहिए , आयु कम होती है !
१० सिर पर पगड़ी अथवा , जाड़ो में गरम टोपी लगाकर नहीं सोना चाहिए !
११. घुटने से नीची चारपाई या बेड पर सोने से घुटने की बीमारिया होती है !
१२. सोने से पूर्व ध्यान , बड़ो को प्रणाम करके सोना चाहिए !
१३. बेड के नीचे कुछ भी नहीं रखना चाहिए , आज कल बॉक्स बेड का प्रचलन अनिद्रा अथवा अतिनिद्रा की बीमारिया लाता है !
१४ बेड का सिरहाना दीवार के पास हो , बीचोबीच कमरे में नहीं सोना चाहिए , लोग पंखे के बिलकुल नीचे सोते है , यह ठीक नहीं है !
१५. काले या बहुत डार्क रंग की बेडशीट या तकिया लगाने से डरावने स्वप्न बहुत आते है अतः light कलर की बेडशीट बिछाए !
१६. छोटे बच्चो को इतिहास , पुराण की प्रेरक कहानिया सुना कर सुलाए जो चरित्र निर्माण में सहायक होती है !
अंत में यदि सयुक्त परिवार में है , यदि संभव हो सके तो अपने से बड़ो की यथा संभव सेवा करके ही सोये ! बड़ो , बुजुर्गो का आशीवाद , सदगुरु का ध्यान करके ही सोये , यह बहुत आवश्यक है !
भगवान् श्री राम भी सोने से पूर्व गुरु के चरणों की सेवा अवश्य ही करते थे ! कृपया राम चरित मानस का सन्दर्भ ले ,
निशि प्रवेश मुनि आयसु दीन्हा , सबही संध्या बंदनु कीन्हा !!
कहत कथा इतिहास पुरानी , रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी !!
मुनिवर सयन कीन्हि तब जाई , लगे चरण चापन दोउ भाई !!
जिन्हके चरण सरोरुह लागी , करत विविध जप जोग बिरागी !!
तेई दोउ बन्धु प्रेम जणू जीते , गुरु पद कमल पलोटत प्रीते !!
बार बार मुनि आज्ञा दीन्ही , रघुबर जाई सयन तब कीन्ही !!
Author: Shri Mukesh Dass
Since 1997, the National Bird Peacock Dana water is being provided by Shri Ramchandra Seva Dham Trust. The only trust of Nawalgarh is where the national bird is served and this is the most peacock found.
शिव महापुराण में भगवान शिव के अनेक अवतारों का वर्णन मिलता है, लेकिन बहुत ही कम लोग इन अवतारों के बारे में जानते हैं। धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान शिव के 19 अवतार हुए थे। आज हम आपको बता रहे हैं भगवान शिव के 19 अवतारों के बारे में-
1- वीरभद्र अवतार : – भगवान शिव का यह अवतार तब हुआ था, जब दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में माता सती ने अपनी देह का त्याग किया था। जब भगवान शिव को यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने क्रोध में अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और उसे रोषपूर्वक पर्वत के ऊपर पटक दिया। उस जटा के पूर्वभाग से महाभंयकर वीरभद्र प्रगट हुए। शिव के इस अवतार ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दिया और दक्ष का सिर काटकर उसे मृत्युदंड दिया।
2- पिप्पलाद अवतार :- मानव जीवन में भगवान शिव के पिप्पलाद अवतार का बड़ा महत्व है। शनि पीड़ा का निवारण पिप्पलाद की कृपा से ही संभव हो सका। कथा है कि पिप्पलाद ने देवताओं से पूछा- क्या कारण है कि मेरे पिता दधीचि जन्म से पूर्व ही मुझे छोड़कर चले गए? देवताओं ने बताया शनिग्रह की दृष्टि के कारण ही ऐसा कुयोग बना।
पिप्पलाद यह सुनकर बड़े क्रोधित हुए। उन्होंने शनि को नक्षत्र मंडल से गिरने का श्राप दे दिया।श्राप के प्रभाव से शनि उसी समय आकाश से गिरने लगे। देवताओं की प्रार्थना पर पिप्पलाद ने शनि को इस बात पर क्षमा किया कि शनि जन्म से लेकर 16 साल तक की आयु तक किसी को कष्ट नहीं देंगे।
तभी से पिप्पलाद का स्मरण करने मात्र से शनि की पीड़ा दूर हो जाती है। शिव महापुराण के अनुसार स्वयं ब्रह्मा ने ही शिव के इस अवतार का नामकरण किया था।
3- नंदी अवतार :- भगवान शंकर सभी जीवों का प्रतिनिधित्व करते हैं। भगवान शंकर का नंदीश्वर अवतार भी इसी बात का अनुसरण करते हुए सभी जीवों से प्रेम का संदेश देता है। नंदी (बैल) कर्म का प्रतीक है, जिसका अर्थ है कर्म ही जीवन का मूल मंत्र है। इस अवतार की कथा इस प्रकार है- शिलाद मुनि ब्रह्मचारी थे।
वंश समाप्त होता देख उनके पितरों ने शिलाद से संतान उत्पन्न करने को कहा। शिलाद ने अयोनिज और मृत्युहीन संतान की कामना से भगवान शिव की तपस्या की। तब भगवान शंकर ने स्वयं शिलाद के यहां पुत्र रूप में जन्म लेने का वरदान दिया। कुछ समय बाद भूमि जोतते समय शिलाद को भूमि से उत्पन्न एक बालक मिला।
शिलाद ने उसका नाम नंदी रखा। भगवान शंकर ने नंदी को अपना गणाध्यक्ष बनाया। इस तरह नंदी नंदीश्वर हो गए। मरुतों की पुत्री सुयशा के साथ नंदी का विवाह हुआ।
4- भैरव अवतार :- शिव महापुराण में भैरव को परमात्मा शंकर का पूर्ण रूप बताया गया है। एक बार भगवान शंकर की माया से प्रभावित होकर ब्रह्मा व विष्णु स्वयं को श्रेष्ठ मानने लगे। तब वहां तेज-पुंज के मध्य एक पुरुषाकृति दिखलाई पड़ी। उन्हें देखकर ब्रह्माजी ने कहा- चंद्रशेखर तुम मेरे पुत्र हो।
अत: मेरी शरण में आओ। ब्रह्मा की ऐसी बात सुनकर भगवान शंकर को क्रोध आ गया। उन्होंने उस पुरुषाकृति से कहा- काल की भांति शोभित होने के कारण आप साक्षात कालराज हैं। भीषण होने से भैरव हैं। भगवान शंकर से इन वरों को प्राप्त कर कालभैरव ने अपनी अंगुली के नाखून से ब्रह्मा के पांचवे सिर को काट दिया। ब्रह्मा का पांचवा सिर काटने के कारण भैरव ब्रह्महत्या के पाप से दोषी हो गए।
काशी में भैरव को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिली। काशीवासियों के लिए भैरव की भक्ति अनिवार्य बताई गई है
5- अश्वत्थामा :- महाभारत के अनुसार पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा काल, क्रोध, यम व भगवान शंकर के अंशावतार थे। आचार्य द्रोण ने भगवान शंकर को पुत्र रूप में पाने की लिए घोर तपस्या की थी और भगवान शिव ने उन्हें वरदान दिया था कि वे उनके पुत्र के रूप मे अवतीर्ण होंगे।
समय आने पर सवन्तिक रुद्र ने अपने अंश से द्रोण के बलशाली पुत्र अश्वत्थामा के रूप में अवतार लिया। ऐसी मान्यता है कि अश्वत्थामा अमर हैं तथा वह आज भी धरती पर ही निवास करते हैं। शिवमहापुराण (शतरुद्रसंहिता-37) के अनुसार अश्वत्थामा आज भी जीवित हैं और वे गंगा के किनारे निवास करते हैं किंतु उनका निवास कहां हैं, यह नहीं बताया गया है।
6- शरभावतार :- भगवान शंकर का छटा अवतार है शरभावतार। शरभावतार में भगवान शंकर का स्वरूप आधा मृग (हिरण) तथा शेष शरभ पक्षी (पुराणों में वर्णित आठ पैरों वाला जंतु जो शेर से भी शक्तिशाली था) का था। इस अवतार में भगवान शंकर ने नृसिंह भगवान की क्रोधाग्नि को शांत किया था।
लिंगपुराण में शिव के शरभावतार की कथा है, उसके अनुसार-हिरण्यकशिपु का वध करने के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंहावतार लिया था। हिरण्यकशिपु के वध के पश्चात भी जब भगवान नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ तो देवता शिवजी के पास पहुंचे।
तब भगवान शिव ने शरभावतार लिया और वे इसी रूप में भगवान नृसिंह के पास पहुंचे तथा उनकी स्तुति की, लेकिन नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत नहीं हुई। यह देखकर शरभ रूपी भगवान शिव अपनी पूंछ में नृसिंह को लपेटकर ले उड़े। तब कहीं जाकर भगवान नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत हुई। उन्होंने शरभावतार से क्षमा याचना कर अति विनम्र भाव से उनकी स्तुति की।
7- गृहपति अवतार :- भगवान शंकर का सातवां अवतार है गृहपति। इसकी कथा इस प्रकार है- नर्मदा के तट पर धर्मपुर नाम का एक नगर था। वहां विश्वानर नाम के एक मुनि तथा उनकी पत्नी शुचिष्मती रहती थीं। शुचिष्मती ने बहुत काल तक नि:संतान रहने पर एक दिन अपने पति से शिव के समान पुत्र प्राप्ति की इच्छा की।
पत्नी की अभिलाषा पूरी करने के लिए मुनि विश्वनार काशी आ गए। यहां उन्होंने घोर तप द्वारा भगवान शिव के वीरेश लिंग की आराधना की। एक दिन मुनि को वीरेश लिंग के मध्य एक बालक दिखाई दिया। मुनि ने बालरूपधारी शिव की पूजा की।
उनकी पूजा से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने शुचिष्मति के गर्भ से अवतार लेने का वरदान दिया। कालांतर में शुचिष्मति गर्भवती हुई और भगवान शंकर शुचिष्मती के गर्भ से पुत्ररूप में प्रकट हुए। कहते हैं, पितामह ब्रह्म! ने ही उस बालक का नाम गृहपति रखा था।
8- ऋषि दुर्वासा :- भगवान शंकर के विभिन्न अवतारों में ऋषि दुर्वासा का अवतार भी प्रमुख है। धर्म ग्रंथों के अनुसार सती अनुसूइया के पति महर्षि अत्रि ने ब्रह्मा के निर्देशानुसार पत्नी सहित ऋक्षकुल पर्वत पर पुत्रकामना से घोर तप किया। उनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों उनके आश्रम पर आए।
उन्होंने कहा- हमारे अंश से तुम्हारे तीन पुत्र होंगे, जो त्रिलोकी में विख्यात तथा माता-पिता का यश बढ़ाने वाले होंगे। समय आने पर ब्रह्माजी के अंश से चंद्रमा उत्पन्न हुए। विष्णु के अंश से श्रेष्ठ संन्यास पद्धति को प्रचलित करने वाले दत्तात्रेय उत्पन्न हुए और रुद्र के अंश से मुनिवर दुर्वासा ने जन्म लिया।
9- हनुमान जी :- भगवान शिव का हनुमान अवतार सभी अवतारों में श्रेष्ठ माना गया है। इस अवतार में भगवान शंकर ने एक वानर का रूप धरा था। शिवमहापुराण के अनुसार देवताओं और दानवों को अमृत बांटते हुए विष्णुजी के मोहिनी रूप को देखकर लीलावश शिवजी ने कामातुर होकर अपना वीर्यपात कर दिया।
सप्तऋषियों ने उस वीर्य को कुछ पत्तों में संग्रहित कर लिया। समय आने पर सप्तऋषियों ने भगवान शिव के वीर्य को वानरराज केसरी की पत्नी अंजनी के कान के माध्यम से गर्भ में स्थापित कर दिया, जिससे अत्यंत तेजस्वी एवं प्रबल पराक्रमी श्री हनुमानजी उत्पन्न हुए।
10- वृषभ अवतार :- भगवान शंकर ने विशेष परिस्थितियों में वृषभ अवतार लिया था। इस अवतार में भगवान शंकर ने विष्णु पुत्रों का संहार किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार जब भगवान विष्णु दैत्यों को मारने पाताल लोक गए तो उन्हें वहां बहुत सी चंद्रमुखी स्त्रियां दिखाई पड़ी।
विष्णु ने उनके साथ रमण करके बहुत से पुत्र उत्पन्न किए। विष्णु के इन पुत्रों ने पाताल से पृथ्वी तक बड़ा उपद्रव किया। उनसे घबराकर ब्रह्माजी ऋषिमुनियों को लेकर शिवजी के पास गए और रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे। तब भगवान शंकर ने वृषभ रूप धारण कर विष्णु पुत्रों का संहार किया।
11- यतिनाथ अवतार :- भगवान शंकर ने यतिनाथ अवतार लेकर अतिथि के महत्व का प्रतिपादन किया था। उन्होंने इस अवतार में अतिथि बनकर भील दम्पत्ति की परीक्षा ली थी, जिसके कारण भील दम्पत्ति को अपने प्राण गवाने पड़े। धर्म ग्रंथों के अनुसार अर्बुदाचल पर्वत के समीप शिवभक्त आहुक-आहुका भील दम्पत्ति रहते थे।
एक बार भगवान शंकर यतिनाथ के वेष में उनके घर आए। उन्होंने भील दम्पत्ति के घर रात व्यतीत करने की इच्छा प्रकट की। आहुका ने अपने पति को गृहस्थ की मर्यादा का स्मरण कराते हुए स्वयं धनुषबाण लेकर बाहर रात बिताने और यति को घर में विश्राम करने देने का प्रस्ताव रखा। इस तरह आहुक धनुषबाण लेकर बाहर चला गया।
प्रात:काल आहुका और यति ने देखा कि वन्य प्राणियों ने आहुक का मार डाला है। इस पर यतिनाथ बहुत दु:खी हुए। तब आहुका ने उन्हें शांत करते हुए कहा कि आप शोक न करें। अतिथि सेवा में प्राण विसर्जन धर्म है और उसका पालन कर हम धन्य हुए हैं। जब आहुका अपने पति की चिताग्नि में जलने लगी तो शिवजी ने उसे दर्शन देकर अगले जन्म में पुन: अपने पति से मिलने का वरदान दिया।
12- कृष्णदर्शन अवतार :- भगवान शिव ने इस अवतार में यज्ञ आदि धार्मिक कार्यों के महत्व को बताया है। इस प्रकार यह अवतार पूर्णत: धर्म का प्रतीक है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इक्ष्वाकुवंशीय श्राद्धदेव की नवमी पीढ़ी में राजा नभग का जन्म हुआ।
विद्या-अध्ययन को गुरुकुल गए नभग जब बहुत दिनों तक न लौटे तो उनके भाइयों ने राज्य का विभाजन आपस में कर लिया। नभग को जब यह बात ज्ञात हुई तो वह अपने पिता के पास गए। पिता ने नभग से कहा कि वह यज्ञ परायण ब्राह्मणों के मोह को दूर करते हुए उनके यज्ञ को सम्पन्न करके, उनके धन को प्राप्त करे।
तब नभग ने यज्ञभूमि में पहुंचकर वैश्य देव सूक्त के स्पष्ट उच्चारण द्वारा यज्ञ संपन्न कराया। अंगारिक ब्राह्मण यज्ञ अवशिष्ट धन नभग को देकर स्वर्ग को चले गए। उसी समय शिवजी कृष्णदर्शन रूप में प्रकट होकर बोले कि यज्ञ के अवशिष्ट धन पर तो उनका अधिकार है।
विवाद होने पर कृष्णदर्शन रूपधारी शिवजी ने उसे अपने पिता से ही निर्णय कराने को कहा। नभग के पूछने पर श्राद्धदेव ने कहा-वह पुरुष शंकर भगवान हैं। यज्ञ में अवशिष्ट वस्तु उन्हीं की है। पिता की बातों को मानकर नभग ने शिवजी की स्तुति की।
13- अवधूत अवतार :- भगवान शंकर ने अवधूत अवतार लेकर इंद्र के अंहकार को चूर किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार एक समय बृहस्पति और अन्य देवताओं को साथ लेकर इंद्र शंकर जी के दर्शनों के लिए कैलाश पर्वत पर गए। इंद्र की परीक्षा लेने के लिए शंकरजी ने अवधूत रूप धारण कर उनका मार्ग रोक लिया।
इंद्र ने उस पुरुष से अवज्ञापूर्वक बार-बार उसका परिचय पूछा तो भी वह मौन रहा। इस पर क्रुद्ध होकर इंद्र ने ज्यों ही अवधूत पर प्रहार करने के लिए वज्र छोडऩा चाहा, वैसे ही उनका हाथ स्तंभित हो गया। यह देखकर बृहस्पति ने शिवजी को पहचान कर अवधूत की बहुविधि स्तुति की, जिससे प्रसन्न होकर शिवजी ने इंद्र को क्षमा कर दिया।
14- भिक्षुवर्य अवतार :- भगवान शंकर देवों के देव हैं। संसार में जन्म लेने वाले हर प्राणी के जीवन के रक्षक भी हैं। भगवान शंकर काभिक्षुवर्य अवतार यही संदेश देता है। धर्म ग्रंथों के अनुसार विदर्भ नरेश सत्यरथ को शत्रुओं ने मार डाला।
उसकी गर्भवती पत्नी ने शत्रुओं से छिपकर अपने प्राण बचाए। समय आने पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया। रानी जब जल पीने के लिए सरोवर गई तो उसे घडिय़ाल ने अपना आहार बना लिया। तब वह बालक भूख-प्यास से तड़पने लगा। इतने में ही शिवजी की प्रेरणा से एक भिखारिन वहां पहुंची। तब शिवजी ने भिक्षुक का रूप धर उस भिखारिन को बालक का परिचय दिया और उसके पालन-पोषण का निर्देश दिया तथा यह भी कहा कि यह बालक विदर्भ नरेश सत्यरथ का पुत्र है।
यह सब कह कर भिक्षुक रूपधारी शिव ने उस भिखारिन को अपना वास्तविक रूप दिखाया। शिव के आदेश अनुसार भिखारिन ने उस बालक का पालन-पोषण किया। बड़ा होकर उस बालक ने शिवजी की कृपा से अपने दुश्मनों को हराकर पुन: अपना राज्य प्राप्त किया।
15- सुरेश्वर अवतार :- भगवान शंकर का सुरेश्वर (इंद्र) अवतार भक्त के प्रति उनकी प्रेमभावना को प्रदर्शित करता है। इस अवतार में भगवान शंकर ने एक छोटे से बालक उपमन्यु की भक्ति से प्रसन्न होकर उसे अपनी परम भक्ति और अमर पद का वरदान दिया।
धर्म ग्रंथों के अनुसार व्याघ्रपाद का पुत्र उपमन्यु अपने मामा के घर पलता था। वह सदा दूध की इच्छा से व्याकुल रहता था। उसकी मां ने उसे अपनी अभिलाषा पूर्ण करने के लिए शिवजी की शरण में जाने को कहा। इस पर उपमन्यु वन में जाकर ऊँ नम: शिवाय का जप करने लगा।
शिवजी ने सुरेश्वर (इंद्र) का रूप धारण कर उसे दर्शन दिया और शिवजी की अनेक प्रकार से निंदा करने लगा। इस पर उपमन्यु क्रोधित होकर इंद्र को मारने के लिए खड़ा हुआ। उपमन्यु को अपने में दृढ़ शक्ति और अटल विश्वास देखकर शिवजी ने उसे अपने वास्तविक रूप के दर्शन कराए तथा क्षीरसागर के समान एक अनश्वर सागर उसे प्रदान किया। उसकी प्रार्थना पर कृपालु शिवजी ने उसे परम भक्ति का पद भी दिया।
16- किरात अवतार :- किरात अवतार में भगवान शंकर ने पाण्डुपुत्र अर्जुन की वीरता की परीक्षा ली थी। महाभारत के अनुसार कौरवों ने छल-कपट से पाण्डवों का राज्य हड़प लिया व पाण्डवों को वनवास पर जाना पड़ा। वनवास के दौरान जब अर्जुन भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए तपस्या कर रहे थे, तभी दुर्योधन द्वारा भेजा हुआ मूड़ नामक दैत्य अर्जुन को मारने के लिए शूकर( सुअर) का रूप धारण कर वहां पहुंचा।
अर्जुन ने शूकर पर अपने बाण से प्रहार किया, उसी समय भगवान शंकर ने भी किरात वेष धारण कर उसी शूकर पर बाण चलाया। शिव कीमाया के कारण अर्जुन उन्हें पहचान न पाए और शूकर का वध उसके बाण से हुआ है, यह कहने लगे। इस पर दोनों में विवाद हो गया।
अर्जुन ने किरात वेषधारी शिव से युद्ध किया। अर्जुन की वीरता देख भगवान शिव प्रसन्न हो गए और अपने वास्तविक स्वरूप में आकर अर्जुन को कौरवों पर विजय का आशीर्वाद दिया।
17- सुनटनर्तक अवतार :- पार्वती के पिता हिमाचल से उनकी पुत्री का हाथ मागंने के लिए शिवजी ने सुनटनर्तक वेष धारण किया था। हाथ में डमरू लेकर शिवजी नट के रूप में हिमाचल के घर पहुंचे और नृत्य करने लगे। नटराज शिवजी ने इतना सुंदर और मनोहर नृत्य किया कि सभी प्रसन्न हो गए। जब हिमाचल ने नटराज को भिक्षा मांगने को कहा तो नटराज शिव ने भिक्षा में पार्वती को मांग लिया।
इस पर हिमाचलराज अति क्रोधित हुए। कुछ देर बाद नटराज वेषधारी शिवजी पार्वती को अपना रूप दिखाकर स्वयं चले गए। उनके जाने पर मैना और हिमाचल को दिव्य ज्ञान हुआ और उन्होंने पार्वती को शिवजी को देने का निश्चय किया।
18- ब्रह्मचारी अवतार :- दक्ष के यज्ञ में प्राण त्यागने के बाद जब सती ने हिमालय के घर जन्म लिया तो शिवजी को पति रूप में पाने के लिए घोर तप किया। पार्वती की परीक्षा लेने के लिए शिवजी ब्रह्मचारी का वेष धारण कर उनके पास पहुंचे। पार्वती ने ब्रह्मचारी को देख उनकी विधिवत पूजा की। जब ब्रह्मचारी ने पार्वती से उसके तप का उद्देश्य पूछा और जानने पर शिव की निंदा करने लगे तथा उन्हें श्मशानवासी व कापालिक भी कहा।
यह सुन पार्वती को बहुत क्रोध हुआ। पार्वती की भक्ति व प्रेम को देखकर शिव ने उन्हें अपना वास्तविक स्वरूप दिखाया। यह देख पार्वती अति प्रसन्न हुईं।
19- यक्ष अवतार :- यक्ष अवतार शिवजी ने देवताओं के अनुचित और मिथ्या अभिमान को दूर करने के लिए धारण किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार देवता व असुर द्वारा किए गए समुद्रमंथन के दौरान जब भयंकर विष निकला तो भगवान शंकर ने उस विष को ग्रहण कर अपने कण्ठ में रोक लिया।
इसके बाद अमृत कलश निकला। अमृतपान करने से सभी देवता अमर तो हो गए साथ ही उनहें अभिमान भी हो गया कि वे सबसे बलशाली हैं। देवताओं के इसी अभिमान को तोडऩे के लिए शिवजी ने यक्ष का रूप धारण किया व देवताओं के आगे एक तिनका रखकर उसे काटने को कहा। अपनी पूरी शक्ति लगाने पर भी देवता उस तिनके को काट नहीं पाए।
तभी आकाशवाणी हुई कि यह यक्ष सब गर्वों के विनाशक शंकर भगवान हैं। सभी देवताओं ने भगवान शंकर की स्तुति की तथा अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी।
भगवान शिव के माता पिता कौन हैं ?
पौराणिक मान्यता के अनुसार भगवान शिव के माता पिता से जुड़े रहस्य को जानने के लिए ऋषि यों ने एक बार उनसे प्रशन किया और पूछा कि हे महादेव आपको किसने जन्म दिया है ?
शिव के माता पिता से जुड़े प्रशन का उत्तर देते हुए भगवान शिव ने ऋषियो की इस जिज्ञासा को शांत करते हुए कहा कि ,मुझे इस सृष्टि का निर्माण करने वाले भगवान ब्रह्मा ने जन्म दिया है !
ऋषियों की जिज्ञासा इतने में शांत नहीं हुई तो उन्होंने फिर एक बार भगवान शिव से प्रशन पूछा कि अगर ब्रह्मा आपके पिता है ,तो फिर आप के दादाजी कौन है ?
भगवान शिव ने इस बात का जवाब देते हुए कहा कि इस सृष्टि का पालन करने वाले भगवान विष्णु ही मेरे दादाजी हैं !
भगवान की इस लीला से अंजान ऋषियों ने फिर से प्शन किया कि अगर आपके पिता ब्रह्मा है ,और दादाजी विष्णु है ! तो फिर आपके परदादा कौन है ?
ऋषियों के इस प्रशन को सुन भगवान शिव ने मुस्कुराते हुए कहा कि भगवान शिव खुद ही मेरे परदादा है !
श्रीमद् देवी महापुराण के अनुसार कहा जाता है ,कि एक बार नारद जी ने अपने पिता ब्रह्मा से सवाल किया था ! कि इस सृष्टि का निर्माण किसने किया है ?
ब्रह्माजी ने भगवान विष्णु ने या फिर स्वयं भगवान शिव ने तथा इन तीनों भगवान को जन्म किसने दिया है ?
अर्थात आपके माता पिता कौन है ?
तब परमपिता ब्रम्हा ने त्रिदेवों की जन्म की गाथा का वर्णन करते हुए कहा की …..
प्रकृति स्वरूप दुर्गा और काल सदाशिव स्वरूप ब्रह्मा के योग से ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उत्पत्ति हुई है !
अर्थात प्रकृति स्वरूप दुर्गा की माता है ,और ब्रह्मा यानि काल सदाशिव के पिता है !
पुराणों में भगवान शिव और आदि-शक्ति की महिमाँओं के अलग-अलग उल्लेख मिलते हैं !
लेकिन ईश्वर की लीला तो वही जाने उनकी लीलाओं को समझना हम इंसानों के बस की बात नहीं है !
क्यो कि भगवान शिव तो देवों के देव भी हैं ,और वही आदि है ,और वही अंत भी है !
ज्ञानोदय
जीवन की महत्ता और सफलता उसकी आत्मिक प्रगति पर निर्भर है, यह विश्वास मन में रखना चाहिए व नित्य सुदृढ़ बनाना चाहिए। भौतिक सफलताएं तो उतनी ही देर आनन्द देती हैं, जब तक कि उनकी प्राप्ति नहीं हो जाती। मिलते ही आनन्द समाप्त हो जाता है व और अधिक के लिए व्याकुलता, बेचैनी आरंभ हो जाती है। जो मानव जीवन का श्रेष्ठतम सदुपयोग कर उस आनन्द की प्राप्ति के इच्छुक हैं, जिसके लिए यह जन्म मिला है, उन्हें आत्मिक प्रगति के लिए तत्पर होना चाहिए और उसके दोनों आधारों उपासना और साधना का अवलम्बन लेना चाहिए।
मनुष्य में जो असीम एवं अपरिमित शक्तियाँ भरी पड़ी हैं उनके अस्तित्व में विश्वास करने और तद्नुरूप उन्हें हस्तगत कर लेने की योग्यता-क्षमता को प्रतिभा के नाम से जाना जाता है। यह न तो जन्मजात उपलब्धि है और न किसी का दिया हुआ वरदान-आशीर्वाद। भाग्यवश मिला हुआ आकस्मिक संयोग-सुयोग भी नहीं कहा जा सकता। वह स्व उपार्जित ऐसी विलक्षण सम्पदा है, जिसके सहारे जीवन की प्रतिकूल दीखने वाली परिस्थितियों को अनुकूल बनाया जा सकता है।
जिन व्यक्तियों ने अपनी प्रसुप्त प्रतिभा को उपयोगी दिशा में लगाया है, उसके सत्परिणाम उन्हें हाथों हाथ मिलते देखे गये हैं। परिस्थितियाँ कितनी विपन्न और विषम क्यों न बनी रही हों, पर धुन के धनी लोगों ने जीवन की महत्वपूर्ण सफलताएँ अर्जित कर दिखाई हैं।
मौली बांधना वैदिक परंपरा का हिस्सा है। यज्ञ के दौरान इसे बांधे जाने की परंपरा तो पहले से ही रही है, लेकिन इसको संकल्प सूत्र के साथ ही रक्षा-सूत्र के रूप में तब से बांधा जाने लगा, जबसे असुरों के दानवीर राजा बलि की अमरता के लिए भगवान वामन ने उनकी कलाई पर रक्षा-सूत्र बांधा था। इसे रक्षाबंधन का भी प्रतीक माना जाता है, जबकि देवी लक्ष्मी ने राजा बलि के हाथों में अपने पति की रक्षा के लिए यह बंधन बांधा था। मौली को हर हिन्दू बांधता है। इसे मूलत: रक्षा सूत्र कहते हैं।
मौली का अर्थ :– ‘मौली’ का शाब्दिक अर्थ है ‘सबसे ऊपर’। मौली का तात्पर्य सिर से भी है। मौली को कलाई में बांधने के कारण इसे कलावा भी कहते हैं। इसका वैदिक नाम उप मणिबंध भी है। मौली के भी प्रकार हैं। शंकर भगवान के सिर पर चन्द्रमा विराजमान है इसीलिए उन्हें चंद्रमौली भी कहा जाता है।
मौली बांधने का मंत्र : – ‘येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।’
कैसी होती है मौली? : – मौली कच्चे धागे (सूत) से बनाई जाती है जिसमें मूलत: 3 रंग के धागे होते हैं- लाल, पीला और हरा, लेकिन कभी-कभी यह 5 धागों की भी बनती है जिसमें नीला और सफेद भी होता है। 3 और 5 का मतलब कभी त्रिदेव के नाम की, तो कभी पंचदेव।
कहां-कहां बांधते हैं मौली? :- मौली को हाथ की कलाई, गले और कमर में बांधा जाता है। इसके अलावा मन्नत के लिए किसी देवी-देवता के स्थान पर भी बांधा जाता है और जब मन्नत पूरी हो जाती है तो इसे खोल दिया जाता है। इसे घर में लाई गई नई वस्तु को भी बांधा जाता और इसे पशुओं को भी बांधा जाता है।
मौली बांधने के नियम :- *शास्त्रों के अनुसार पुरुषों एवं अविवाहित कन्याओं को दाएं हाथ में कलावा बांधना चाहिए। विवाहित स्त्रियों के लिए बाएं हाथ में कलावा बांधने का नियम है।
*कलावा बंधवाते समय जिस हाथ में कलावा बंधवा रहे हों, उसकी मुट्ठी बंधी होनी चाहिए और दूसरा हाथ सिर पर होना चाहिए।
*मौली कहीं पर भी बांधें, एक बात का हमेशा ध्यान रहे कि इस सूत्र को केवल 3 बार ही लपेटना चाहिए व इसके बांधने में वैदिक विधि का प्रयोग करना चाहिए।
कब बांधी जाती है मौली? :- *पर्व-त्योहार के अलावा किसी अन्य दिन कलावा बांधने के लिए मंगलवार और शनिवार का दिन शुभ माना जाता है।
*हर मंगलवार और शनिवार को पुरानी मौली को उतारकर नई मौली बांधना उचित माना गया है। उतारी हुई पुरानी मौली को पीपल के वृक्ष के पास रख दें या किसी बहते हुए जल में बहा दें।
*प्रतिवर्ष की संक्रांति के दिन, यज्ञ की शुरुआत में, कोई इच्छित कार्य के प्रारंभ में, मांगलिक कार्य, विवाह आदि हिन्दू संस्कारों के दौरान मौली बांधी जाती है।
क्यों बांधते हैं मौली? :- * मौली को धार्मिक आस्था का प्रतीक माना जाता है।
* किसी अच्छे कार्य की शुरुआत में संकल्प के लिए भी बांधते हैं।
* किसी देवी या देवता के मंदिर में मन्नत के लिए भी बांधते हैं।
* मौली बांधने के 3 कारण हैं- पहला आध्यात्मिक, दूसरा चिकित्सीय और तीसरा मनोवैज्ञानिक।
* किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत करते समय या नई वस्तु खरीदने पर हम उसे मौली बांधते हैं ताकि वह हमारे जीवन में शुभता प्रदान करे।
* हिन्दू धर्म में प्रत्येक धार्मिक कर्म यानी पूजा-पाठ, उद्घाटन, यज्ञ, हवन, संस्कार आदि के पूर्व पुरोहितों द्वारा यजमान के दाएं हाथ में मौली बांधी जाती है।
* इसके अलावा पालतू पशुओं में हमारे गाय, बैल और भैंस को भी पड़वा, गोवर्धन और होली के दिन मौली बांधी जाती है।
मौली करती है रक्षा :– मौली को कलाई में बांधने पर कलावा या उप मणिबंध करते हैं। हाथ के मूल में 3 रेखाएं होती हैं जिनको मणिबंध कहते हैं। भाग्य व जीवनरेखा का उद्गम स्थल भी मणिबंध ही है। इन तीनों रेखाओं में दैहिक, दैविक व भौतिक जैसे त्रिविध तापों को देने व मुक्त करने की शक्ति रहती है।
इन मणिबंधों के नाम शिव, विष्णु व ब्रह्मा हैं। इसी तरह शक्ति, लक्ष्मी व सरस्वती का भी यहां साक्षात वास रहता है। जब हम कलावा का मंत्र रक्षा हेतु पढ़कर कलाई में बांधते हैं तो यह तीन धागों का सूत्र त्रिदेवों व त्रिशक्तियों को समर्पित हो जाता है जिससे रक्षा-सूत्र धारण करने वाले प्राणी की सब प्रकार से रक्षा होती है। इस रक्षा-सूत्र को संकल्पपूर्वक बांधने से व्यक्ति पर मारण, मोहन, विद्वेषण, उच्चाटन, भूत-प्रेत और जादू-टोने का असर नहीं होता।
आध्यात्मिक पक्ष :- *शास्त्रों का ऐसा मत है कि मौली बांधने से त्रिदेव- ब्रह्मा, विष्णु व महेश तथा तीनों देवियों- लक्ष्मी, पार्वती व सरस्वती की कृपा प्राप्त होती है। ब्रह्मा की कृपा से कीर्ति, विष्णु की कृपा से रक्षा तथा शिव की कृपा से दुर्गुणों का नाश होता है। इसी प्रकार लक्ष्मी से धन, दुर्गा से शक्ति एवं सरस्वती की कृपा से बुद्धि प्राप्त होती है।
*यह मौली किसी देवी या देवता के नाम पर भी बांधी जाती है जिससे संकटों और विपत्तियों से व्यक्ति की रक्षा होती है। यह मंदिरों में मन्नत के लिए भी बांधी जाती है।
*इसमें संकल्प निहित होता है। मौली बांधकर किए गए संकल्प का उल्लंघन करना अनुचित और संकट में डालने वाला सिद्ध हो सकता है। यदि आपने किसी देवी या देवता के नाम की यह मौली बांधी है तो उसकी पवित्रता का ध्यान रखना भी जरूरी हो जाता है।
*कमर पर बांधी गई मौली के संबंध में विद्वान लोग कहते हैं कि इससे सूक्ष्म शरीर स्थिर रहता है और कोई दूसरी बुरी आत्मा आपके शरीर में प्रवेश नहीं कर सकती है। बच्चों को अक्सर कमर में मौली बांधी जाती है। यह काला धागा भी होता है। इससे पेट में किसी भी प्रकार के रोग नहीं होते।
चिकित्सीय पक्ष : प्राचीनकाल से ही कलाई, पैर, कमर और गले में भी मौली बांधे जाने की परंपरा के चिकित्सीय लाभ भी हैं। शरीर विज्ञान के अनुसार इससे त्रिदोष अर्थात वात, पित्त और कफ का संतुलन बना रहता है। पुराने वैद्य और घर-परिवार के बुजुर्ग लोग हाथ, कमर, गले व पैर के अंगूठे में मौली का उपयोग करते थे, जो शरीर के लिए लाभकारी था। ब्लड प्रेशर, हार्टअटैक, डायबिटीज और लकवा जैसे रोगों से बचाव के लिए मौली बांधना हितकर बताया गया है।
हाथ में बांधे जाने का लाभ : शरीर की संरचना का प्रमुख नियंत्रण हाथ की कलाई में होता है अतः यहां मौली बांधने से व्यक्ति स्वस्थ रहता है। उसकी ऊर्जा का ज्यादा क्षय नहीं होता है। शरीर विज्ञान के अनुसार शरीर के कई प्रमुख अंगों तक पहुंचने वाली नसें कलाई से होकर गुजरती हैं। कलाई पर कलावा बांधने से इन नसों की क्रिया नियंत्रित रहती है।
कमर पर बांधी गई मौली : कमर पर बांधी गई मौली के संबंध में विद्वान लोग कहते हैं कि इससे सूक्ष्म शरीर स्थिर रहता है और कोई दूसरी बुरी आत्मा आपके शरीर में प्रवेश नहीं कर सकती है। बच्चों को अक्सर कमर में मौली बांधी जाती है। यह काला धागा भी होता है। इससे पेट में किसी भी प्रकार के रोग नहीं होते।
मनोवैज्ञानिक लाभ : मौली बांधने से उसके पवित्र और शक्तिशाली बंधन होने का अहसास होता रहता है और इससे मन में शांति और पवित्रता बनी रहती है। व्यक्ति के मन और मस्तिष्क में बुरे विचार नहीं आते और वह गलत रास्तों पर नहीं भटकता है। कई मौकों पर इससे व्यक्ति गलत कार्य करने से बच जाता है।
ॐ के उच्चारण से शारीरिक लाभ
“ॐ” का उच्चारण है बड़ा चमत्कारिक , जाप से होता है शारीरिक लाभ!
ॐ अर्थात् ओउम् तीन अक्षरों से बना है, जो सर्व विदित है । अ उ म् । “अ” का अर्थ है उत्पन्न होना, “उ” का तात्पर्य है उठना, उड़ना अर्थात् विकास, “म” का मतलब है मौन हो जाना अर्थात् “ब्रह्मलीन” हो जाना। ॐ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और पूरी सृष्टि का द्योतक है। ॐ का उच्चारण शारीरिक लाभ प्रदान करता है। जानें, ॐ कैसे है स्वास्थ्यवर्द्धक और अपनाएं आरोग्य के लिए मात्र ॐ के उच्चारण का मार्ग
इस मंत्र का प्रारंभ है अंत नहीं। यह ब्रह्मांड की अनाहत ध्वनि है। अनाहत अर्थात किसी भी प्रकार की टकराहट या दो चीजों या हाथों के संयोग के उत्पन्न ध्वनि नहीं। इसे अनहद भी कहते हैं। संपूर्ण ब्रह्मांड में यह अनवरत जारी है।
उच्चारण की विधि :
प्रातः उठकर पवित्र होकर ओंकार ध्वनि का उच्चारण करें। ॐ का उच्चारण पद्मासन, अर्धपद्मासन, सुखासन, वज्रासन में बैठकर कर सकते हैं। इसका उच्चारण 5, 7, 10, 21 बार अपने समयानुसार कर सकते हैं। ॐ जोर से बोल सकते हैं, धीरे-धीरे बोल सकते हैं। ॐ जप माला से भी कर सकते हैं।
ॐ के उच्चारण से शारीरिक लाभ –
1. अनेक बार ॐ का उच्चारण करने से पूरा शरीर तनाव-रहित हो जाता है।
2. अगर आपको घबराहट या अधीरता होती है तो ॐ के उच्चारण से उत्तम कुछ भी नहीं।
3. यह शरीर के विषैले तत्त्वों को दूर करता है, अर्थात तनाव के कारण पैदा होने वाले द्रव्यों पर नियंत्रण करता है।
4. यह हृदय और ख़ून के प्रवाह को संतुलित रखता है।
5. इससे पाचन शक्ति तेज़ होती है।
6. इससे शरीर में फिर से युवावस्था वाली स्फूर्ति का संचार होता है।
7. थकान से बचाने के लिए इससे उत्तम उपाय कुछ और नहीं।
8. नींद न आने की समस्या इससे कुछ ही समय में दूर हो जाती है। रात को सोते समय नींद आने तक मन में इसको करने से निश्चित नींद आएगी।
9. कुछ विशेष प्राणायाम के साथ इसे करने से फेफड़ों में मज़बूती आती है।
10. ॐ के पहले शब्द का उच्चारण करने से कंपन पैदा होती है। इन कंपन से रीढ़ की हड्डी प्रभावित होती है और इसकी क्षमता बढ़ जाती है।
11. ॐ के दूसरे शब्द का उच्चारण करने से गले में कंपन पैदा होती है जो कि थायरायड ग्रंथी पर प्रभाव डालता है।
वास्तु के इस नियम से होंगे मालामाल
पश्चिम दिशा: भूलकर भी न करें ये गलतियां वरना… यदि दक्षिणमुखी भवन या भूमि खरीदना अनिवार्य हो ही जाए तो सबसे पहले उस भूखंड को किसी और व्यक्ति के नाम पर खरीद लें और यदि पहले से उस पर कुछ निर्माण है तो उसे तोड़ दें। उसके बाद पश्चिम या दक्षिण दिशा की ओर से भवन का निर्माण प्रारंभ करें। भवन पूरा बन जाने के बाद उसे अपने नाम करवा लें और गृहप्रवेश करें। हालांकि ऐसा नहीं हैकि दक्षिणमुखी भवन हमेशा ही बुरे परिणाम देता है। यदि कुछ बातों का ध्यान रखा जाए तो दक्षिणमुखी भवन में भी सुख से रहा जा सकता है। आइए जानते हैं दक्षिणमुखी भवन से जुड़ी ऐसी ही कुछ अच्छी-बुरी बातें:
अच्छे परिणाम दक्षिणमुखी भूमि पर भवन बना रहे है तो ध्यान रखें दक्षिण भाग ऊंचा होना चाहिए। इससे उस भवन में रहने वाले स्वस्थ एवं सुखी होंगे। दक्षिण दिशा की भूमि ऊंची करके उस पर अटाला, बेकार का सामान रखने से शुभ परिणाम मिलेगा। भवन के सभी द्वार दक्षिणोन्मुखी ही होना चाहिए। ऐसा होने पर घर में संपन्नता आती है। दक्षिणी हिस्से में कमरे ऊंचे बनवाने चाहिए इससे मकान का मालिक ऐश्वर्य संपन्न होता है। दक्षिण दिशा के घर का पानी उत्तरी दिशा से होकर बाहर की ओर प्रवाहित हो तो धन लाभा होता है। ऐसे घर में रहने वाली स्त्रियों का स्वास्थ्य ठीक रहता है। घर के भीतर का पानी या बारिश का पानी उत्तर दिशा की ओर से बाहर निकलने का प्रबंध न हो तो यह जल पूर्वी दिशा से बाहर की ओर जाने की व्यवस्था करना चाहिए। ऐसा होने से उस भवन में रहने वाले लोग स्वस्थ रहते हैं।
बुरे परिणाम दक्षिणमुखी भवन में खाली जगह, बरामदे, घर के सभी कमरे आदि का दक्षिणी भाग नीचा हो तो उस घर में रहने वाली स्त्रियां बीमार बनी रहती हैं। उनकी आकस्मिक मृत्यु जैसे दुर्योग भी बनते हैं। क्षिण भाग में यदि कुआं हो तो धन की हानि होती है। परिवारजनों पर दुर्घटना की आशंका भी बनी रहती है।
यम का निवास चूंकि दक्षिण दिशा में यम का निवास होता है इसलिए भवन बनवाते समय दक्षिण दिशा की ओर कुछ जगह छोड़ देना चाहिए। इसके बाद भवन की दीवार बनाएं। दक्षिण भाग की चारदीवार भी भवन की दीवार से ऊंची होनी चाहिए।
आग्नेयमुखी दक्षिण भाग के द्वार आग्नेयमुखी हों तो चोर एवं अग्नि का भय रहता है। ऐसे भवन में रहने वालों के शत्रु बहुत होते हैं। दक्षिण भाग के द्वारा नैऋत्यमुखी हों तो कोई लाइलाज बीमारी होती है।
क्या करें भवन में दक्षिण दिशा का कोई दोष रह गया है तो उन्हें दूर करने के लिए दक्षिणी भाग की दीवारों को लाल रंग में रंगना चाहिए। दक्षिण दिशा की ओर लाल रंग का बल्ब लगाना चाहिए, जिसे शाम के समय नियमित जलाना चाहिए। दक्षिणी दीवार पर शीशा लगवाएं ताकि नकारात्मक ऊर्जा उससे परावर्तित हो सके। दक्षिण भाग में लाल रंग के सुगंधित फूलों के पौधे लगाएं।
आध्यात्मिक, पौराणिक
Shri Ramchandra Sevadham Trust, Nawalgarhसूतमहर्षि ने नारदमुनि की कहानी सुनाना प्रारंभ किया – पिछले जन्म में नारद ने एक दासी-पुत्र के रूप में जन्म लिया था। वह दासी एक भक्त के घर में काम किया करती थी। उस भक्त के घर में सदा ऋषि-मुनि, साधु-संत अतिथि-सत्कार पाया करते थे। बालक नारद उन ज्ञानियों की सेवा में लगा रहता था। जरूरत के व़क्त उन्हें पानी पिलाया करता था। विष्णु भगवान की महिमाओं की चर्चा भी बड़ी श्रद्धा व भक्ति से सुनता था। नीर याने पानी देनेवाले बालक का नामकरण ‘‘नारदश्श् करके वे लोग इसी नाम से उसे पुकारा करते थे।
इस बीच नारद की माँ साँप के डँसने से मर गई। बालक नारद को अपने पिता का बिलकुल पता न था। उसके साथी नारद को दासी-पुत्र और अनाथ बालक कहा करते थे। कुछ ही दिनों में उस मकान के मालिक का स्वर्गवास हो गया ।
नारद को कहीं आश्रय नहीं मिला। वह इधर-उधर भटकता था। भूख लगने पर यदि वह किसी मकान
के सामने जाकर खड़ा हो जाता तो लोग उसे भगा देते थे और गालियां देते थे कि यह बालक ऐसा पापी है जिसे अपने पिता का भी पता नहीं है। नारद साधु स्वभाव का था। इसलिए नटखट बच्चे उसपर पत्थर फेंकते और उसे सता कर आनंद का अनुभव करते थे।
गाँव के लोगों से तंग आकर नारद सोचने लगा – ‘‘इन मनुष्यों के बीच मेरा जन्म क्यों हुआ है? मैंने कौन-सा अपराध किया है? ये लोग मेरे प्रति ऐसे अत्याचार क्यों करते हैं? आखि़र कीड़े-मकोड़े, जंगल के जानवर भी मजे से जी रहे हैं।श्श् यों सोचते हुए नारद जंगल की ओर चल पड़ा। उसे ऋषि मुनियों की बातें याद हो आईं।
मुझे भी तपस्या करके देवताओं के बीच जन्म लेना है!श्श् यों निश्चय कर नारद ने तपस्या करना शुरू किया। अनाथों का जो रक्षक है, जो सारे जगत का पिता है, वही मेरे लिए भी पिता है। वह मुझे कुछ भी बनाये, पसंद है।श्श् इस प्रकार सोचते नारद ने समय का ख्याल किये बिना भयंकर तपस्या शुरू कर दी । नारद की तपस्या पूर्ण हो गई। उसके भीतर एक तेज ने प्रवेश किया।
एक ज्योति के रूप में प्रत्यक्ष होकर विष्णु भगवान ने कहा- ‘‘वत्स नारद, तुम मेरे अन्दर विलीन होने जा रहे हो! इसके बाद तुम ब्रह्मा के मानस पुत्र के रूप में जन्म धारण करोगे! तुम चिरंजीवी होकर तीनों लोकों का भ्रमण करते हुए सदा मेरी स्तुति किया करोगे!श्श्
इसके बाद नारद ने विष्णु के अंश को लेकर ब्रह्मा के मानस पुत्र के रूप में जन्म लिया और देवमुनि के रूप में पूजा पाने लगे। विष्णु भगवान की लीलाओं के अवतारों में एक नारद का अवतार भी बताया गया है!
ऐसे नारद मुनि से उपदेश पाकर ध्रुव तेज गति के साथ आगे बढ़े चले जा रहे थे । उस समय उत्तमकुमार रोते हुए आ पहुँचा और ध्रुव के सामने हाथ फैला कर उनको रोकते हुए बोला- ‘‘भैया, आप कृपया जंगल में मत जाइये! आप जंगल में चले जायेंगे तो मैं किसके साथ मिलकर हरि का भजन करूँगा? मेरी माताजी ने आप को डांटा, पर मैंने क्या किया है? मुझ पर आप क्यों नाराज़ होते हैं? आप रुक जाइये।श्श् यों कहते हुए उत्तम फूट-फूट कर रोने लगा।
ध्रुव ने उत्तम कुमार के गले लगकर समझाया- ‘‘मेरे छोटे भैया! मेरी माताजी ने मुझे जन्म दिया। मुझे क्या यह साबित नहीं करना है कि मेरी माताजी भी महान हैं? इसीलिए मैं जा रहा हूँ!श्श्
उत्तम बोला- ‘‘तब तो मैं भी आप के साथ चलूँगा! आप तपस्या में लग जाइये। मैं आपके लिए कंद-मूल – फल लाया करूँगा।श्श्
ऐसा करने पर तुम्हारी माँ रोयेंगी! मेरे छोटे भाई! मैं तुम्हारा बड़ा भाई हूँ। इसलिए तुम्हें मेरी बात माननी ही पड़ेगी। जाओ!श्श् ध्रुव ने कहा।
ध्रुव के मुँह से ये बातें सुनकर उत्तमकुमार वहीं पर लुढ़क पड़ा और रोने लगा। सुरुचि आकर उसे समझाने लगी। इसपर उत्तम गुस्से में आकर बोला-‘‘माँ, तुम मुझे छुओ मत! तुम्हारी वजह से ही बड़े भैया जंगल में जा रहे हैं!श्श्
सुरुचि लज्जा के मारे सर झुकाकर अपने को कोसने लगी-‘‘मैं पापिन हूँ! मेरे ही कारण यह सब हुआ ।श्श् इतने में राजा उत्तानपाद पहुँचकर बोले- ‘‘ध्रुव! तुम रुक जाओ! यह सब मेरी मंद बुद्धि की वजह से ही हुआ है। मेरा राज्य तुम्हारा है। वापस चलो!श्श्
इस बीच ध्रुव काफी दूर तक चले गये थे। नारद ने सुनीति से कहा- ‘‘माताजी, तुम्हारे गर्भ से एक रत्न जैसा पुत्र पैदा हुआ है। तुम अपने बेटे के बारे में बिलकुल चिंता मत करो! नारायण स्वयं उसकी रक्षा करेंगे।श्श् फिर उत्तानपाद की ओर मुड़कर नारद बोले- ‘‘राजन्, हम सबको इस बात पर खुश होना चाहिए! आपके पिता और ध्रुव के दादा स्वायंभुव मनु के वंश के लिए भी बालक ध्रुव अपार यश का कारण बनेगा। इसमें किसी का कोई दोष नहीं है। यह श्रीमन्नारायण का संकल्प है!श्श् यों समझाकर नारद मुनि ने सब को शांत किया।
मधुवन में बैठकर ध्रुव ‘‘ओम् नमोनारायणायश्श् का मंत्र जापते तपस्या कर रहे थे। यमुनानदी उस मंत्र में श्रुति मिला रही थी। ध्रुव की तपस्या से तीनों लोक कांपने लगे।
कोई यदि कहीं भी तपस्या करता हो, तो इंद्र यह सोच कर डरते हैं कि कहीं वह तप करके उनके पद की कामना न कर बैठे। इस डर से उनके तप में विघ्न डालने के लिए वे भयंकर इंद्रजाल रचा करते हैं। इसी प्रकार इंद्र ने अपने वज्रायुध को हिला कर आंधी-तूफान और बिजली गिराकर भयंकर उत्पात मचाये; पर ध्रुव थोड़ा भी विचलित न हुए। इस पर इंद्र ने पत्थरों की वर्षा शुरू की। मगर ध्रुव के सर पर घूमते हुए विष्णुचक्र ने उन पत्थरों को दूर फेंक दिया।
उस समय नारद ने जाकर इंद्र को समझाया – ‘‘आप ने ध्रुव को साधारण बालक मात्र समझा है। आप उनका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते। आपको व्यर्थ में अपमानित होना पड़ेगा। इंद्रपद तो ध्रुव के लिए घास के तिनके के बराबर है।श्श्
अंत में ध्रुव की तपस्या पर प्रसन्न हो विष्णु भगवान प्रत्यक्ष हुए। ध्रुव विष्णु के पैरों से लिपटकर अपार आनंद के मारे मूक रह गये। वे अपने मन में सोचने लगे – ‘‘भगवान! मैं पूर्ण हृदय से आपकी स्तुति करना चाहता हूँ। लेकिन मैं एक छोटा बालक हूँ! आप की स्तुति करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं!श्श्
इस पर विष्णु ने अपने शंख को ध्रुव के गालों पर छुआ दिया। दूसरे ही क्षण वेदों के तत्वों से भरे स्तोत्र-पाठ साम गान के रूप में ध्रुव के मुँह से निकलने लगे। विष्णु ने मंदहास करते हुए पूछा- ‘‘ध्रुव! माँग लो, तुम क्या चाहते हो?श्श्
ध्रुव भक्तिपूर्वक बोला-‘‘हे परम पुरुष! जैसे भौंरा कमल से हमेशा लगा रहता है, वैसे ही सदा आप के मधुर मंदहास वाले मुख पद्म को देखते रहने की मेरी इच्छा है! इससे बढ़कर मैं कुछ नहीं चाहता!श्श्
‘‘अच्छी बात है! लेकिन पहले तुम अपने राज्य में जाकर धर्म का पालन करते हुए शासन करो। इसके बाद तुम मेरे विश्वरूप का शिरो भाग बने ध्रुव पद पर पहुँच जाओगे। कल्पांतों के बाद भी तुम उस अचल पद को ग्रहण कर सदा प्रकाशमान रहोगे।श्श् यों समझा कर विष्णु भगवान अंतर्धान हो गये। इसीलिए ध्रुव को अनुग्रह प्रदान करनेवाले विष्णु का अवतरण ‘ध्रुव नारायणावतारश् कहा गया है।
इसके बाद ध्रुव अपनी महिष्मती पुरी में आ गये। उत्तानपाद ध्रुव को अपना राज्य सौंप कर तपस्या करने चले गये।
उत्तमकुमार का अभी तक विवाह नहीं हुआ था। राजधर्म के अनुसार जंगली जानवरों से जनता की रक्षा करने के लिए वह शिकार खेल हिमालय के पहाड़ी जंगलों में दुष्ट यक्षों ने उस पर हमला करके उसको मार डाला।
अपने पुत्र की मृत्यु पर सुरुचि दुखी हो वहाँ पर पहुँची और जंगल के दावानल में फंसकर भस्म हो गई।
ध्रुव ने यक्षों का नाश करने के लिए यक्षनगर अलकापुरी को घेर लिया। मायावी यक्षों ने अपनी क्षुद्र मायाओं का उन पर प्रयोग किया। ध्रुव ने नारायण अस्त्र के द्वारा मायाओं को विफल बनाकर उनको हरा दिया। यक्ष-राज कुबेर ध्रुव की शरण में आये। उनसे मैत्री करके उनको संपति देकर वापस भेज दिया। ध्रुव के कई पुत्र हुए। उन्होंने अनेक वर्षों तक आदर्श शासन द्वारा स्वायंभुव मनुवंश को यश प्रदान किया। अनेक वर्षों तक शासन करने के बाद ध्रुव ने अपने ज्येष्ठ पुत्र का राज्याभिषेक किया और वे बदरिकाश्रम में चले गये। वहाँ पर भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए स्वर्ण शरीर को प्राप्त किया।
भगवान विष्णु के आदेश पर उनके सेवक एक विमान ले आये। वे लोग भी देखने में विष्णु के समान थे और उनके भी चार-चार हाथ थे।
ध्रुव उन दूतों से बोले- ‘‘मेरी माताजी के लिए जो पद प्राप्त नहीं है, उसकी मुझे भी ज़रूरत नहीं।श्श् इस पर विष्णु के दूतों ने उनके आगे एक दिव्य विमान में जानेवाली सुनीति को दिखाया। इसे देख ध्रुव प्रसन्न हो उठे। वे विमान पर सवार हो ग्रह मण्डल, नक्षत्र मण्डल तथा सप्तर्षि मण्डल को पारकर ध्रुव पद पर पहुँचे। ध्रुव मण्डल को विष्णु पद भी कहते हैं। विष्णु का निवास वैकुण्ठ भी वहीं पर है। ध्रुव देति में गोलोक भी होता है। गोलोक में विष्णु प्रकृति स्वरूपिणी राधादेवी के साथ वेणुगान करते हुए आनंद भोगते हैं। गोलोक के ऊपर गहरा अंधकार छाया रहता है। उस अंधकार के पार विष्णु वैकुण्ठवासी बने प्रकाशमान होते हैं! ध्रुव सदा विष्णु को देखते उज्ज्वल कांति से द्युतिमान हो उठे। खूंटे से बंधी गाय की भांति सप्तर्षि मण्डल उनकी प्रदक्षिणा किया करता है। समस्त ग्रह गणों से पूर्ण शिशुमार चक्र उनके नीचे परिभ्रमण करता रहता है।
गोलोक के नीचे ब्रह्मा का निवास सत्यलोक, तपलोक, जनलोक, महलोक, स्वलोक, भुवलोक, भूलोक, नामक सात ऊर्ध्वलोक, तथा भूलोक के नीचे अधोलोक कहलानेनाले अतल, वितल, सुतल, रसातल, तलातल, महातल और पाताल लोक ये सातों मिलाकर चौदह लोकों के ऊपर विश्व के शिवराग्र पर ध्रुव समस्त दिशाओं के लिए दिशासूचक बनकर अचल पद नक्षत्र के रूप में प्रकाशमान रहते हैं। लगन हो तो छोटे-बड़े सभी कार्य साधे जा सकते हैं। इसका प्रमाण पांच साल की उम्र में ही तप करने जानेवाला ध्रुव है।श्श् यों ध्रुव की कहानी समाप्त कर सूतमहर्षि फिर सुनाने लगेः अगर मत्स्य केवल जलचर है तो कच्छप यानी कछुआ जल और भूमि पर भी चलता है। जल में से प्राणी भूमि पर आ गया यानी जलचर की दशा से भूचर तक का विकास हुआ । इसीलिए कछुए के रूप में विष्णु अवतरित हुए जो दशावतारों में दूसरा अवतार है।
इन शब्दों के साथ सूतमुनि ने कूर्मावतार की कहानी शुरू कीः