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Ayurveda

मृत्युञ्जय योगोंका वर्णन

भगवान् धन्वन्तरि कहते हैं- सुश्रुत ! अब मैं मृत्युञ्जय-कल्पोंका वर्णन करता हूँ, जो आयु देनेवाले एवं सब रोगोंका मर्दन करनेवाले हैं। मधु, घृत, त्रिफला और गिलोयका सेवन करना चाहिये। यह रोगको नष्ट करनेवाली है तथा तीन सौ वर्षतककी आयु दे सकती है। चार तोले, दो तोले अथवा एक तोलेकी मात्रामें त्रिफलाका सेवन वही फल देता है। एक मासतक बिल्व- तैलका नस्य लेनेसे पाँच सौ वर्षकी आयु और कवित्व शक्ति उपलब्ध होती है। भिलावा एवं तिलका सेवन रोग, अपमृत्यु और वृद्धावस्थाको दूर करता है। वाकुचीके पञ्चाङ्गके चूर्णको खैर (कत्था) के क्वाथके साथ छः मासतक प्रयोग करनेसे रोगी कुष्ठपर विजयी होता है। नीली कटसरैयाके चूर्णका मधु या दुग्धके साथ सेवन हितकर है। खाँडयुक्त दुग्धका पान करनेवाला सौ वर्षोंकी आयु प्राप्त करता है। प्रतिदिन प्रातः काल मधु, घृत और सोंठका चार तोलेकी मात्रामें सेवन करनेवाला मनुष्य मृत्युविजयी होता है। ब्राह्मीके चूर्णके साथ दूधका सेवन करनेवाले मनुष्यके चेहरेपर झुर्रियाँ नहीं पड़ती हैं और उसके बाल। नहीं पकते हैं; वह दीर्घजीवन लाभ करता है। मधुके साथ उच्चटा (भुई आँवला) को एक तोलेकी मात्रामें खाकर दुग्धपान करनेवाला मनुष्य मृत्युपर विजय पाता है। मधु, घी अथवा दूधके साथ मेउड़के रसका सेवन करनेवाला रोग एवं मृत्युको जीतता है। छः मासतक प्रतिदिन एक तोलेभर पलाश-तैलका मधुके साथ सेवन करके दुग्धपान करनेवाला पाँचे सौ वर्षोंकी आयु प्राप्त करता है। दुग्धके साथ काँगनीके पत्तोंके रसका या त्रिफलाका प्रयोग करे। इससे मनुष्य एक हजार वर्षोंकी आयु प्राप्त कर सकता है। इसी प्रकार मधुके साथ घृत और चार तोलेभर शतावरी चूर्णका सेवन करनेसे भी सहस्रों वर्षोंकी आयु प्राप्त हो सकती है। घी अथवा दूधके साथ मेठड़की जड़का चूर्ण या पत्रस्वरस रोग एवं मृत्युका नाश करता है। नीमके पञ्चाङ्ग चूर्णको खैरके क्वाथ (काढ़े) की भावना देकर भृङ्गराजके रसके साथ एक तोलाभर सेवन करनेसे मनुष्य रोगको जीतकर अमर हो सकता है। रुदन्तिकाचूर्ण घृत और मधुके साथ सेवन करनेसे या केवल दुग्धाहारसे मनुष्य मृत्युको जीत लेता है। हरीतकीके चूर्णको भृङ्गराजरसकी भावना देकर एक तोलेकी मात्रामें घृत और मधुके साथ सेवन करनेवाला रोगमुक्त होकर तीन सौ वर्षोंकी आयु प्राप्त कर सकता है। गेठी, लोहचूर्ण, शतावरी समान भागसे भृङ्गराज-रस तथा घीके साथ एक तोला मात्रा में सेवन करनेसे मनुष्य पाँच सौ वर्षकी आयु प्राप्त करता है। लौहभस्म तथा शतावरीको भृङ्गराजके रसमें भावना देकर मधु एवं घीकें साथ लेनेसे तीन सौ वर्षकी आयु प्राप्त होती है। ताम्र भस्म, गिलोय, शुद्ध गन्धक समान भाग घीकुँवारके रसमें घोटकर दो-दो रत्तीकी गोली बनाये। | इसका घृतसे सेवन करनेसे मनुष्य पाँच सौ वर्षकी आयु प्राप्त करता है। असगन्ध, त्रिफला, चीनी, तैल और घृतमें सेवन करनेवाला सौ वर्षतक जीता है। गदहपूर्नाका चूर्ण एक पल मधु घृत और दुग्धके साथ भक्षण करनेवाला भी शतायु होता है। अशोककी छालका एक पल चूर्ण मधु और घृतके साथ खाकर दुग्धपान करनेसे रोगनाश होता है। निम्बके तैलकी मधुसहित नस्य लेनेसे मनुष्य सौ वर्ष जीता है और उसके केश सदा काले रहते हैं। बहेड़ेके चूर्णको एक तोला मात्रामें शहद, घी और दूधसे पीनेवाला शतायु होता है। मधुरादिगणकी ओषधियों और हरीतकीको गुड़ और घृतके साथ खाकर दूधके सहित अन्न भोजन करनेवालोंके केश सदा काले रहते हैं तथा वह रोगरहित होकर पाँच सौ वर्षोंका जीवन प्राप्त करता है। एक मासतक सफेद पेठेके एक पल चूर्णको मधु, घृत और दूधके साथ सेवन करते हुए दुग्धान्नका भोजन करनेवाला नीरोग रहकर एक सहस्र वर्षकी आयुका उपभोग करता है। कमलगन्धका चूर्ण भाँगरेके रसकी भावना देकर मधु और घृतके साथ लिया जाय तो वह सौ वर्षोंकी आयु प्रदान करता है। कड़वी तुम्बीके एक तोलेभर तेलका नस्य दो सौ वर्षोंकीआयु प्रदान करता है। त्रिफला, पीपल और सोंठ -इनका प्रयोग तीन सौ वर्षोंकी आयु प्रदान करता है। इनका शतावरीके साथ सेवन अत्यन्त बलप्रद और सहस्र वर्षोंकी आयु प्रदान करनेवाला है। इनका चित्रकके साथ तथा सोंठके साथ विडंगका प्रयोग भी पूर्ववत् फलप्रद है। त्रिफला, पीपल और सोंठ – इनका लोह, भृङ्गराज, खरेटी, – निम्ब-पञ्चाङ्ग, खैर, निर्गुण्डी, कटेरी, अडूसा और पुनर्नवाके साथ या इनके रसकी भावना देकर या इनके संयोगसे बटी या चूर्णका निर्माण करके उसका घृत, मधु, गुड़ और जलादि अनुपानोंके साथ सेवन करनेसे पूर्वोक्त फलकी प्राप्ति होती है। ‘ॐ हुं सः ‘ – इस मन्त्रसे* अभिमन्त्रित योगराज मृतसंजीवनीके समान होता है। उसके सेवनसे मनुष्य रोग और मृत्युपर विजय प्राप्त करता है। देवता, असुर और मुनियोंने इन कल्प-सागरोंका सेवन किया है ॥ १-२३ ॥

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धर्म मन्त्र-विद्या

मन्त्र-विद्या

अग्रिदेव कहते हैं- वसिष्ठ ! अब मैं भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली मन्त्र-विद्याका वर्णन करता हूँ, ध्यान देकर उसका श्रवण कीजिये । द्विजश्रेष्ठ! बीससे अधिक अक्षरोंवाले मन्त्र ‘मालामन्त्र’ दससे अधिक अक्षरोंवाले ‘मन्त्र’ और दससे कम अक्षरोंवाले ‘बीजमन्त्र’ कहे गये हैं। ‘मालामन्त्र’ वृद्धावस्थामें सिद्धिदायक होते हैं, ‘मन्त्र’ । यौवनावस्थामें सिद्धिप्रद है। पाँच अक्षरसे अधिक तथा दस अक्षरतकके मन्त्र बाल्यावस्थामें सिद्धि न प्रदान करते हैं*। अन्य मन्त्र अर्थात् एकसे लेकर पाँच अक्षरतकके मन्त्र सर्वदा और सबके लिये सिद्धिदायक होते हैं ॥ १-२६ ॥

मन्त्रोंकी तीन जातियाँ होती हैं-स्त्री, पुरुष और नपुंसक। जिन मन्त्रोंक अन्तमें ‘स्वाहा’ पदका प्रयोग हो, वे स्त्रीजातीय हैं। जिनके अन्तमें ‘नमः’ पद जुड़ा हो, वे मन्त्र नपुंसक हैं। शेष सभी मन्त्र पुरुषजातीय हैं। वे वशीकरण और उच्चाटन – कर्ममें प्रशस्त माने गये हैं। क्षुद्रक्रिया तथा रोग निवारणार्थ अर्थात् शान्तिकर्ममें स्त्रीजातीय मन्त्र’ उत्तम माने गये हैं। इन सबसे भिन्न (विद्वेषण एवं अभिचार आदि) कर्ममें नपुंसक मन्त्र उपयोगी बताये गये हैं ।। ३-४ ॥

मन्त्रोंके दो भेद हैं-‘आग्रेय’ और ‘सौम्य’ | जिनके आदिमें ‘प्रणव’ लगा हो, वे ‘आग्रेय’ हैं और जिनके अन्तमें ‘प्रणव’का योग है, वे ‘सौम्य’ कहे गये हैं। इनका जप इन्हीं दोनोंके कालमें करना चाहिये (अर्थात् सूर्य-नाड़ी चलती हो तो ‘आग्रेय-मन्त्र’का और चन्द्र-नाड़ी चलती हो तो ‘सौम्य मन्त्रों का जप करे)। जिस मन्त्र में तार (ॐ), अन्त्य (क्ष), अग्नि (र), वियत् (ह) – इनका बाहुल्येन प्रयोग हो, वह ‘आग्रेय’ माना गया है। शेष मन्त्र ‘सौम्य’ कहे गये हैं। ये दो प्रकारके मन्त्र क्रमशः क्रूर और सौम्य कर्मोंमें प्रशस्त माने गये हैं। ‘ ‘आग्रेय मन्त्र’ प्रायः अन्तमें ‘नमः’ पदसे युक्त होनेपर ‘सौम्य’ हो जाता है और ‘सौम्य मन्त्र भी अन्तमें ‘फट्’ लगा देनेपर ‘आग्रेय’ हो जाता है। यदि मन्त्र सोया हो या सोकर तत्काल ही जगा हो तो वह सिद्धिदायक नहीं होता है। जब वामनाड़ी चलती हो तो वह ‘आग्रेय मन्त्र’ के सोनेका समय है और यदि दाहिनी नाड़ी (नासिकाके दाहिने छिद्रसे साँस ) चलती हो तो वह उसके जागरणका काल है। ‘सौम्य मन्त्र’ के सोने और जागनेका समय इसके विपरीत है। अर्थात् वामनाड़ी (साँस) उसके जागरणका और दक्षिणनाड़ी उसके शयनका काल है। जब दोनों नाड़ियाँ साथ-साथ चल रही हों, उस समय आग्रेय और सौम्य-दोनों मन्त्र | जगे रहते हैं। (अतः उस समय दोनोंका जप किया जा सकता है’।) दुष्ट नक्षत्र, दुष्ट राशि तथा शत्रुरूप आदि अक्षरवाले मन्त्रोंको अवश्य त्याग देना चाहिये ।। ५-९६ ॥

(नक्षत्र चक्र)

राज्यलाभोपकाराय प्रारभ्यारिः स्वरः कुरून् ॥ गोपालकुकुटीं प्रायात् फुल्लावित्युदिता लिपि:’ । 

(साधकके नामके प्रथम अक्षरको तथा मन्त्रके आदि अक्षरको लेकर गणना करके यह जानना है कि उस साधकके लिये वह मन्त्र ह अनुकूल है या प्रतिकूल ? इसीके लिये उपर्युक्त श्लोक एक संकेत देता है – ) ‘राज्य से लेकर ‘फुल्लौ’ तक लिपिका ही संकेत है। ‘इत्युदिता लिपि:’ इस प्रकार लिपि कही उ गयी है। ‘नारायणीय-तन्त्र ‘में इसकी व्याख्या करते हुए कहा गया है कि अश्विनीसे लेकर अ उत्तरभाद्रपदातकके छब्बीस नक्षत्रोंमें ‘अ’से लेकर ‘ह’ तकके अक्षरोंको बाँटना है। किस नक्षत्रमें कितने अक्षर लिये जायेंगे, इसके लिये उपर्युक्त श्लोक संकेत देता है। ‘रा’ से ‘ल्लौ’ तक छब्बीस अक्षर हैं; वे छब्बीस नक्षत्रोंके प्रतीक हैं। तन्त्रशास्त्रियोंने अपने संकेतवचनोंमें केवल व्यञ्जनोंको ग्रहण किया है और समस्त व्यञ्जनोंको कवर्ग, टवर्ग, पवर्ग तथा यवर्गमें बाँटा है। संकेत-लिपिका जो अक्षर जिस वर्गका प्रथम, द्वितीय, तृतीय या चतुर्थ अक्षर है, उससे उतनी ही संख्याएँ ली जायँगी। संयुक्ताक्षरोंमेंसे अन्तिम अक्षर ही गृहीत ब होगा। स्वरोंपर कोई संख्या नहीं है। उपर्युक्त श्लोकमें पहला अक्षर ‘रा’ है। यह यवर्गका दूसरा अक्षर है, अतः उससे दो संख्या ली । जायगी। इस प्रकार ‘रा’ यह संकेत करता है कि अश्विनी नक्षत्रमें दो अक्षर ‘अ आ’ गृहीत होंगे। – दूसरा अक्षर है ‘ज्य’, यह संयुक्ताक्षर है, इसका अन्तिम अक्षर ‘य’ गृहीत होगा। वह अपने वर्गका प्रथम अक्षर है, अतः एकका बोधक होगा। इस प्रकार पूर्वोक्त ‘ज्य ‘के संकेतानुसार भरणी नक्षत्रमें एक अक्षर ‘इ’ लिखा जायगा। इस बातको ठीक समझनेके लिये निम्नाङ्कित

  • महाकपिल रात्र तथा श्रीविद्यार्णव-तन्त्र’ में मालामन्त्रोंको ‘वृद्ध’ मन्त्रोंको ‘युवा’ तथा पाँचसे अधिक और दस अक्षरतकके मन्त्रोको ‘बाल’ बताया गया है। ‘भैरवी-तन्त्र’ में सात अक्षरवाले मन्त्रको ‘चाल’, आठ अक्षरवाले मन्त्रको ‘कुमार’, सोलह अक्षरोंक
  • मन्त्रको ‘तरुण’ तथा चालीस अक्षरोंके मन्त्रको ‘प्रौढ़’ बताया गया है। इससे ऊपर अक्षर संख्यावाला मन्त्र ‘वृद्ध’ कहा गया है।
  • हृदयान्ता मया २. ‘कुल प्रकाश- तन्त्र में स्त्रीजातीय मन्त्रोंको शान्तिकर्ममें उपयोगी बताया गया है। शेष बातें अग्रिपुराणके ही अनुसार स्त्रीमन्त्रा वहिजापान्ता नपुंसकाः । शेषाः पुमांस इत्युक्ताः स्त्रीमन्त्राः सादिशान्तिके ॥ नपुंसकाः स्मृता चाभिचारके । पुमांसः स्युः स्मृताः सर्वे बध्योच्चाटनकर्मसु ॥
  • १. ‘शारदातिलक की टीकामें उद्धृत प्रयोगसार ‘में शब्दभेदसे यही बात कही गयी है। श्रीनारायणीय-तन्त्र में तो ठीक ‘अग्निपुराण’ की आनुपूर्वी हो प्रयुक्त हुई है।
  • (श्रीविद्यार्णवतन्त्र २ उच्च्छास)
  • ‘प्रयोगसार ‘में’ वषट्’ और ‘फट्’ जिनके अन्तमें लगें, ये ‘पुल्लिङ्ग’ ‘पौषट्’ और ‘स्वाहा’ अन्तमें लगें, वे ‘स्त्रीलिङ्ग’ तथा ‘हुं नमः’ जिनके अन्तमें लगें, वे ‘नपुंसक लिङ्ग मन्त्र कहे गये हैं।
  • ३. ‘श्रीनारायणीय-तन्त्र में भी यह बात इसी आनुपूर्वीमें कही गयी है।
  • ४. ‘शारदातिलक’ में सौम्य मन्त्रोंकी भी सुस्पष्ट पहचान दी गयी है— जिसमें ‘सफार’ अथवा ‘यकार का बाहुल्य हो, यह ‘सौम्य- मन्त्र’ है। जैसा कि वचन है-‘सौम्या भूमिनेन्द्रमृताक्षराः । ‘
  • ५. ‘शारदातिलक’ में भी ‘विज्ञेयाः क्रूरसौम्ययो: ‘ कहकर इसी आतकी पुष्टि की गयी है। ईशानशम्भुने भी यही बात कही है- ‘स्यादाग्नेयैः क्रूरकार्यप्रसिद्धिः सौम्मीः सौम्यं कर्म कुर्याद् यथावत्।
  • ६. ईशानशम्भुने भी ऐसा ही कहा है- आग्नेयोऽपि स्यात्तु सौम्यो नमोऽन्तः सौम्योऽपि स्यादग्निमन्त्रः फडन्तः । ‘नारायणीय-तन्त्र में यही बात यों कही गयी है- आयमन्त्रः सौम्यः स्यात् प्रायशोऽन्ते नमोऽन्वितः । सौम्यमन्त्रस्तथाऽऽप्रेयः फटकारेणान्वितोऽन्ततः ॥ किया जा सकता है’।) दुष्ट नक्षत्र, दुष्ट राशि तथा शत्रुरूप आदि अक्षरवाले मन्त्रोंको अवश्य त्याग देना चाहिये ।। ५-९६ ॥
  • १. ‘बृहन्नारायणीय- तन्त्र’ में इसी भावकी पुष्टि निम्नाति श्लोकोंद्वारा की गयी है-
  • सुप्तः प्रयुद्धमात्रो वा मन्त्रः सिद्धिं न यच्छति । स्वापकालो वामवहो जागरो दक्षिणावहः ॥ आप्रेयस्य मनोः सौम्यमन्त्रस्यैतद्विपर्ययः । प्रबोधकालं जानीयादुभयोरुभयावहः ॥ स्थापकाले मन्त्रस्य जपो ऽनर्थफलप्रदः ।
  • इसमें स्पष्ट कहा गया है कि मन्त्र जब सो रहा हो, उस समय उसका जप अनर्थ फलदायक होता है। ‘नारायणीय-तन्त्र में ‘स्वाप’ और ‘जागरणकाल’को और भी स्पष्टताके साथ बताया गया है। वामनादी, इडानाड़ी और चन्द्रनाड़ी एक वस्तु है तथा दक्षिणनाही, सूर्यनाड़ी एवं पिङ्गलानाड़ी एक अर्थके वाचक पद हैं। पिङ्गसानादीमें श्वासवायु चलती हो तो ‘आग्रेय मन्त्र’ प्रबुद्ध होते हैं, इडानादीमें श्वासवायु चलती हो तो ‘सोममन्त्र’ जाग्रत् रहते हैं। पिङ्गला और इडा दोनोंमें बासवायुकी स्थिति हो अर्थात् यदि सुषुम्णामें वासवायु चलती हो तो सभी मन्त्र प्रयुद्ध (जाग्रत्) होते हैं। प्रबुद्ध मन्त्र ही साधकोंको अभीष्ट फल देते हैं। यथा-
  • पिङ्गलायां गते वायी प्रबुद्धा ह्यग्रिरूपिणः । इडां गते तु पवने बुध्यन्ते सोमरूपिणः ॥ पिङ्गलेडागते वायौ प्रबुद्धाः सर्व एव हि प्रयुद्धा मनवः सर्वे साधकानां फलन्त्युमे ॥
  • २. जैसा कि ‘भैरवी तन्त्र’ में कहा गया है- दुष्टराशिमूलेभूतादिवर्णप्रचुरमन्त्रकम्
  • । सम्यक् परीक्ष्य तं यत्नाद् वर्जयेन्मतिमान् नरः ॥ ३. श्रीरुद्रयामल ‘में तथा ‘नारायणीय तन्त्र में भी यह श्लोक आया है, जो लिपि (अक्षर)का संकेतमात्र है। इसमें शब्दार्थ अपेक्षित नहीं है। ‘शारदातिलक’ में दूसरा श्लोक संकेतके लिये प्रयुक्त हुआ है। इसमें छब्बीस नक्षत्रोंमें अक्षरोंके विभाजनका संकेत है, जो ज्यौतिषकी प्रक्रियासे भिन्न है।
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