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धर्म ध्यान और ज्ञान

सच्ची साधन क्या है?

वास्तव मे साधना ही ज्ञान की पूंजी है । वे साधक (जो साधना मे लीन हो ) जिन्होंने इस भौतिक युग के भाग दौड भरे जीवन मे साधना का मार्ग चुना है वे सभी धन्य है ।निश्चित ही उनमे कोई अलौकिक शक्ति निहित है, जो उन्हे दूसरे से हटकर बनाते है।

इस संसार मे सभी अपने सुखो को भोग रहे है , जबकी उपभोग मे असली सुख नही है, जितना हम भौतिक सुख के पीछे भागेंगे उतना अधिक कष्ट हमे प्राप्त होगा। और जो साधना करके अपने बुरे कर्मो का पश्चाताप करते है । उन्हे सही मार्ग चुनने मे कभी परेशानी नही होती ।

जो साधना मे लीन रहते है , उनका सौभाग्य इससे भी सहस्त्र गुना अधिक हो जाता है । यानी अगर वह व्यक्ति थोड़ा भी सदस्य कर्म करता है तो उस साधना उसे दुगुना फल प्राप्त होता है ।उन्हे अपने जीवन मे कोई ऐसा गुरू मिल जाता है , जो उसकी दशा और दिशा दोनो बदल कर रख देता है।

और ये ही सत्य है कि मनुष्य का उद्धार सद कर्मो से ही होता है, जिस ईश्वर ने हमे यह जीवन दिया है , उसकी भक्ति और भजन का मार्ग ही उसे मुक्त करता है । यानी अन्य मुक्ती का मार्ग और कोई नही है । इसी लिये किसी कोई भी अपना परम गुरु या आदर्श मानकर उसके निमित्त साधना करना व उसके आदर्शो का पालन करना।

साधना ही जीवन का वो श्रेयस्कर तथा श्रेष्ठ विधा है जिसको अपनाने से ही जीवन मे सफलतायें मिलने के साथ-साथ अद्वितीय व्यक्तित्व तथा चारित्रिक का निर्माण होता है ।

साधना की महत्ता को समझने के लिए किसी गुरू की आवश्यकता होती है , गुरु का अभिप्राय सिर्फ मानव मात्र ही नही अपितु वह जड,चेतन,पशु,पक्षी,प्रकृति कोई भी हो सकता है। साधना मे लीन व्यक्ति के मन मे कभी भी बुरे भाव,विचार, चेष्टा,लोभ,कर्म का आगमन नही होना चाहिए । इससे साधना करने वाले व्यक्ति की साधना का कोई प्रभाव या महत्व नही रह जाता।

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धर्म मन्त्र-विद्या

मन्त्र-विद्या

अग्रिदेव कहते हैं- वसिष्ठ ! अब मैं भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली मन्त्र-विद्याका वर्णन करता हूँ, ध्यान देकर उसका श्रवण कीजिये । द्विजश्रेष्ठ! बीससे अधिक अक्षरोंवाले मन्त्र ‘मालामन्त्र’ दससे अधिक अक्षरोंवाले ‘मन्त्र’ और दससे कम अक्षरोंवाले ‘बीजमन्त्र’ कहे गये हैं। ‘मालामन्त्र’ वृद्धावस्थामें सिद्धिदायक होते हैं, ‘मन्त्र’ । यौवनावस्थामें सिद्धिप्रद है। पाँच अक्षरसे अधिक तथा दस अक्षरतकके मन्त्र बाल्यावस्थामें सिद्धि न प्रदान करते हैं*। अन्य मन्त्र अर्थात् एकसे लेकर पाँच अक्षरतकके मन्त्र सर्वदा और सबके लिये सिद्धिदायक होते हैं ॥ १-२६ ॥

मन्त्रोंकी तीन जातियाँ होती हैं-स्त्री, पुरुष और नपुंसक। जिन मन्त्रोंक अन्तमें ‘स्वाहा’ पदका प्रयोग हो, वे स्त्रीजातीय हैं। जिनके अन्तमें ‘नमः’ पद जुड़ा हो, वे मन्त्र नपुंसक हैं। शेष सभी मन्त्र पुरुषजातीय हैं। वे वशीकरण और उच्चाटन – कर्ममें प्रशस्त माने गये हैं। क्षुद्रक्रिया तथा रोग निवारणार्थ अर्थात् शान्तिकर्ममें स्त्रीजातीय मन्त्र’ उत्तम माने गये हैं। इन सबसे भिन्न (विद्वेषण एवं अभिचार आदि) कर्ममें नपुंसक मन्त्र उपयोगी बताये गये हैं ।। ३-४ ॥

मन्त्रोंके दो भेद हैं-‘आग्रेय’ और ‘सौम्य’ | जिनके आदिमें ‘प्रणव’ लगा हो, वे ‘आग्रेय’ हैं और जिनके अन्तमें ‘प्रणव’का योग है, वे ‘सौम्य’ कहे गये हैं। इनका जप इन्हीं दोनोंके कालमें करना चाहिये (अर्थात् सूर्य-नाड़ी चलती हो तो ‘आग्रेय-मन्त्र’का और चन्द्र-नाड़ी चलती हो तो ‘सौम्य मन्त्रों का जप करे)। जिस मन्त्र में तार (ॐ), अन्त्य (क्ष), अग्नि (र), वियत् (ह) – इनका बाहुल्येन प्रयोग हो, वह ‘आग्रेय’ माना गया है। शेष मन्त्र ‘सौम्य’ कहे गये हैं। ये दो प्रकारके मन्त्र क्रमशः क्रूर और सौम्य कर्मोंमें प्रशस्त माने गये हैं। ‘ ‘आग्रेय मन्त्र’ प्रायः अन्तमें ‘नमः’ पदसे युक्त होनेपर ‘सौम्य’ हो जाता है और ‘सौम्य मन्त्र भी अन्तमें ‘फट्’ लगा देनेपर ‘आग्रेय’ हो जाता है। यदि मन्त्र सोया हो या सोकर तत्काल ही जगा हो तो वह सिद्धिदायक नहीं होता है। जब वामनाड़ी चलती हो तो वह ‘आग्रेय मन्त्र’ के सोनेका समय है और यदि दाहिनी नाड़ी (नासिकाके दाहिने छिद्रसे साँस ) चलती हो तो वह उसके जागरणका काल है। ‘सौम्य मन्त्र’ के सोने और जागनेका समय इसके विपरीत है। अर्थात् वामनाड़ी (साँस) उसके जागरणका और दक्षिणनाड़ी उसके शयनका काल है। जब दोनों नाड़ियाँ साथ-साथ चल रही हों, उस समय आग्रेय और सौम्य-दोनों मन्त्र | जगे रहते हैं। (अतः उस समय दोनोंका जप किया जा सकता है’।) दुष्ट नक्षत्र, दुष्ट राशि तथा शत्रुरूप आदि अक्षरवाले मन्त्रोंको अवश्य त्याग देना चाहिये ।। ५-९६ ॥

(नक्षत्र चक्र)

राज्यलाभोपकाराय प्रारभ्यारिः स्वरः कुरून् ॥ गोपालकुकुटीं प्रायात् फुल्लावित्युदिता लिपि:’ । 

(साधकके नामके प्रथम अक्षरको तथा मन्त्रके आदि अक्षरको लेकर गणना करके यह जानना है कि उस साधकके लिये वह मन्त्र ह अनुकूल है या प्रतिकूल ? इसीके लिये उपर्युक्त श्लोक एक संकेत देता है – ) ‘राज्य से लेकर ‘फुल्लौ’ तक लिपिका ही संकेत है। ‘इत्युदिता लिपि:’ इस प्रकार लिपि कही उ गयी है। ‘नारायणीय-तन्त्र ‘में इसकी व्याख्या करते हुए कहा गया है कि अश्विनीसे लेकर अ उत्तरभाद्रपदातकके छब्बीस नक्षत्रोंमें ‘अ’से लेकर ‘ह’ तकके अक्षरोंको बाँटना है। किस नक्षत्रमें कितने अक्षर लिये जायेंगे, इसके लिये उपर्युक्त श्लोक संकेत देता है। ‘रा’ से ‘ल्लौ’ तक छब्बीस अक्षर हैं; वे छब्बीस नक्षत्रोंके प्रतीक हैं। तन्त्रशास्त्रियोंने अपने संकेतवचनोंमें केवल व्यञ्जनोंको ग्रहण किया है और समस्त व्यञ्जनोंको कवर्ग, टवर्ग, पवर्ग तथा यवर्गमें बाँटा है। संकेत-लिपिका जो अक्षर जिस वर्गका प्रथम, द्वितीय, तृतीय या चतुर्थ अक्षर है, उससे उतनी ही संख्याएँ ली जायँगी। संयुक्ताक्षरोंमेंसे अन्तिम अक्षर ही गृहीत ब होगा। स्वरोंपर कोई संख्या नहीं है। उपर्युक्त श्लोकमें पहला अक्षर ‘रा’ है। यह यवर्गका दूसरा अक्षर है, अतः उससे दो संख्या ली । जायगी। इस प्रकार ‘रा’ यह संकेत करता है कि अश्विनी नक्षत्रमें दो अक्षर ‘अ आ’ गृहीत होंगे। – दूसरा अक्षर है ‘ज्य’, यह संयुक्ताक्षर है, इसका अन्तिम अक्षर ‘य’ गृहीत होगा। वह अपने वर्गका प्रथम अक्षर है, अतः एकका बोधक होगा। इस प्रकार पूर्वोक्त ‘ज्य ‘के संकेतानुसार भरणी नक्षत्रमें एक अक्षर ‘इ’ लिखा जायगा। इस बातको ठीक समझनेके लिये निम्नाङ्कित

  • महाकपिल रात्र तथा श्रीविद्यार्णव-तन्त्र’ में मालामन्त्रोंको ‘वृद्ध’ मन्त्रोंको ‘युवा’ तथा पाँचसे अधिक और दस अक्षरतकके मन्त्रोको ‘बाल’ बताया गया है। ‘भैरवी-तन्त्र’ में सात अक्षरवाले मन्त्रको ‘चाल’, आठ अक्षरवाले मन्त्रको ‘कुमार’, सोलह अक्षरोंक
  • मन्त्रको ‘तरुण’ तथा चालीस अक्षरोंके मन्त्रको ‘प्रौढ़’ बताया गया है। इससे ऊपर अक्षर संख्यावाला मन्त्र ‘वृद्ध’ कहा गया है।
  • हृदयान्ता मया २. ‘कुल प्रकाश- तन्त्र में स्त्रीजातीय मन्त्रोंको शान्तिकर्ममें उपयोगी बताया गया है। शेष बातें अग्रिपुराणके ही अनुसार स्त्रीमन्त्रा वहिजापान्ता नपुंसकाः । शेषाः पुमांस इत्युक्ताः स्त्रीमन्त्राः सादिशान्तिके ॥ नपुंसकाः स्मृता चाभिचारके । पुमांसः स्युः स्मृताः सर्वे बध्योच्चाटनकर्मसु ॥
  • १. ‘शारदातिलक की टीकामें उद्धृत प्रयोगसार ‘में शब्दभेदसे यही बात कही गयी है। श्रीनारायणीय-तन्त्र में तो ठीक ‘अग्निपुराण’ की आनुपूर्वी हो प्रयुक्त हुई है।
  • (श्रीविद्यार्णवतन्त्र २ उच्च्छास)
  • ‘प्रयोगसार ‘में’ वषट्’ और ‘फट्’ जिनके अन्तमें लगें, ये ‘पुल्लिङ्ग’ ‘पौषट्’ और ‘स्वाहा’ अन्तमें लगें, वे ‘स्त्रीलिङ्ग’ तथा ‘हुं नमः’ जिनके अन्तमें लगें, वे ‘नपुंसक लिङ्ग मन्त्र कहे गये हैं।
  • ३. ‘श्रीनारायणीय-तन्त्र में भी यह बात इसी आनुपूर्वीमें कही गयी है।
  • ४. ‘शारदातिलक’ में सौम्य मन्त्रोंकी भी सुस्पष्ट पहचान दी गयी है— जिसमें ‘सफार’ अथवा ‘यकार का बाहुल्य हो, यह ‘सौम्य- मन्त्र’ है। जैसा कि वचन है-‘सौम्या भूमिनेन्द्रमृताक्षराः । ‘
  • ५. ‘शारदातिलक’ में भी ‘विज्ञेयाः क्रूरसौम्ययो: ‘ कहकर इसी आतकी पुष्टि की गयी है। ईशानशम्भुने भी यही बात कही है- ‘स्यादाग्नेयैः क्रूरकार्यप्रसिद्धिः सौम्मीः सौम्यं कर्म कुर्याद् यथावत्।
  • ६. ईशानशम्भुने भी ऐसा ही कहा है- आग्नेयोऽपि स्यात्तु सौम्यो नमोऽन्तः सौम्योऽपि स्यादग्निमन्त्रः फडन्तः । ‘नारायणीय-तन्त्र में यही बात यों कही गयी है- आयमन्त्रः सौम्यः स्यात् प्रायशोऽन्ते नमोऽन्वितः । सौम्यमन्त्रस्तथाऽऽप्रेयः फटकारेणान्वितोऽन्ततः ॥ किया जा सकता है’।) दुष्ट नक्षत्र, दुष्ट राशि तथा शत्रुरूप आदि अक्षरवाले मन्त्रोंको अवश्य त्याग देना चाहिये ।। ५-९६ ॥
  • १. ‘बृहन्नारायणीय- तन्त्र’ में इसी भावकी पुष्टि निम्नाति श्लोकोंद्वारा की गयी है-
  • सुप्तः प्रयुद्धमात्रो वा मन्त्रः सिद्धिं न यच्छति । स्वापकालो वामवहो जागरो दक्षिणावहः ॥ आप्रेयस्य मनोः सौम्यमन्त्रस्यैतद्विपर्ययः । प्रबोधकालं जानीयादुभयोरुभयावहः ॥ स्थापकाले मन्त्रस्य जपो ऽनर्थफलप्रदः ।
  • इसमें स्पष्ट कहा गया है कि मन्त्र जब सो रहा हो, उस समय उसका जप अनर्थ फलदायक होता है। ‘नारायणीय-तन्त्र में ‘स्वाप’ और ‘जागरणकाल’को और भी स्पष्टताके साथ बताया गया है। वामनादी, इडानाड़ी और चन्द्रनाड़ी एक वस्तु है तथा दक्षिणनाही, सूर्यनाड़ी एवं पिङ्गलानाड़ी एक अर्थके वाचक पद हैं। पिङ्गसानादीमें श्वासवायु चलती हो तो ‘आग्रेय मन्त्र’ प्रबुद्ध होते हैं, इडानादीमें श्वासवायु चलती हो तो ‘सोममन्त्र’ जाग्रत् रहते हैं। पिङ्गला और इडा दोनोंमें बासवायुकी स्थिति हो अर्थात् यदि सुषुम्णामें वासवायु चलती हो तो सभी मन्त्र प्रयुद्ध (जाग्रत्) होते हैं। प्रबुद्ध मन्त्र ही साधकोंको अभीष्ट फल देते हैं। यथा-
  • पिङ्गलायां गते वायी प्रबुद्धा ह्यग्रिरूपिणः । इडां गते तु पवने बुध्यन्ते सोमरूपिणः ॥ पिङ्गलेडागते वायौ प्रबुद्धाः सर्व एव हि प्रयुद्धा मनवः सर्वे साधकानां फलन्त्युमे ॥
  • २. जैसा कि ‘भैरवी तन्त्र’ में कहा गया है- दुष्टराशिमूलेभूतादिवर्णप्रचुरमन्त्रकम्
  • । सम्यक् परीक्ष्य तं यत्नाद् वर्जयेन्मतिमान् नरः ॥ ३. श्रीरुद्रयामल ‘में तथा ‘नारायणीय तन्त्र में भी यह श्लोक आया है, जो लिपि (अक्षर)का संकेतमात्र है। इसमें शब्दार्थ अपेक्षित नहीं है। ‘शारदातिलक’ में दूसरा श्लोक संकेतके लिये प्रयुक्त हुआ है। इसमें छब्बीस नक्षत्रोंमें अक्षरोंके विभाजनका संकेत है, जो ज्यौतिषकी प्रक्रियासे भिन्न है।
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धर्म ध्यान और ज्ञान पवित्र आत्मा

मैं एक पवित्र आत्मा हूं

जब कहीं भीआत्मा को जानने की जिज्ञासा होती है । तो हमेशा यह अच्छी तरह समझना चाहिए कि संसार में आत्मा नाम की शक्ति अगर है तो वह अनंत रूप में सर्वत्र होकर भी एक है ठीक उसी तरह जैसे पानी में नमक की मात्रा मिलने पर सर्वत्र एक होती है । आत्मा प्रत्येक जीव में विद्यमान है । जहां भीआपकी सोच जाती है, वहां तक आत्मा का एक रूप विराजमान है । अब लोग बाग़ कहते हैं इस व्यक्ति में बुरी आत्मा का प्रवेश हो गया है ऐसा नहीं होताआत्मा तो एक ही थी पर जिसमें बुरी आत्मा का प्रवेश होना बता रहे हैं । उस जगह की कर्म ही बुरे थे और दोस आत्मा के दिया जाता है । आत्मा सदैव पवित्र है , निर्मल है , सर्वव्यापी है , आत्मा मेंकोई भेद नहीं है । भेद की दृष्टि से अगर देखा जाएतो जीवसंसार में अनंत प्रकार के पाए जाते हैं और उनके कर्म भी अनंत प्रकार के होते हैं । जिसके परिणाम स्वरूप जो मनुष्य को बुरा लगता है जिसे दूसरों का अहित होता है , वह जीव कठोर दुष्ट प्रवृत्ति का कहलाता है । ऐसे हीअलग-अलग तरह  के जीवन में विभिन्न प्रकार के स्वभाव पाए जाते हैं । जो उन्हें भला और बुरा बनाते हैं । तो हमेशा कोशिश यह करोकि आपकी आत्मा हमेशा पवित्र बनी रहे हमेशा सोच यह बनाई रखो …..

मैं एक पवित्र आत्मा हूं । मुझे अगर पहचाना है तो उस दीपक को देखो जिसके नीचे हमेशा अंधेरा रहता है । जो खुद जलकर दुनिया को प्रकाशित करता है और जो इससे आकर्षित होकर इसे जानना चाहते हैं, वह खुद इसमें (कीट पतंग की तरह) स्वाहा हो जाते हैं और जो इसकी सेवा ( तेल या घी डालना) करते हैं मैं हमेशा उन्हें प्रकाशित करता हूं

मैं आत्मा ही तो हूं , जो तुम्हारे बाहर और भीतर सर्वत्र सदैव विद्यमान रहती है । मैं ही गुरु हूं , मैं ही देवता हूं और मैं ही भगवान हूं । सर्वत्र मेरे होते हुए भी जीव दुखी है । इसकी वजह उस जीव का अज्ञान है । जो प्राणी मात्रा में भेद करता है । अपना और पराया समझता है , जब कि मै सदैव एक ही हू॔। दूसरे का बुरा करना मेरा ही बुरा है । दूसरे का भला करना वह भी मेरा ही  है । यह तो जीव को समझना है कि उसे क्या करता है । मैं आत्मा हूं । अजर हूं । अमर हूं । मेरा ना कोई बुरा कर सकताऔर ना ही भला , जीव अपने कर्मों से ही अपनी पोटली सर पर रखकर घूमता फिरता है । इसमें मेरा कोई दोस नहीं । ईश्वर कहते हैं , संसार से उबरने काअगर कोई रास्ता है तो वह सिर्फ सेवा करना है । इसके अलावा कोई रास्तामेरे तक नहीं पहुंच पाता है । बिना सेवा के मनुष्य यूं ही मेरे ब्रह्म के जाल में फंसा रहता है ।

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धर्म

सनातन धर्म क्या है,हमें क्या सीख देता है ?

सनातन’ का अर्थ है – शाश्वत या ‘सदा बना रहने वाला’, अर्थात् जिसका न आदि है न अन्त। सनातन धर्म मूलतः भारतीय धर्म है, जो किसी समय पूरे बृहत्तर भारत (भारतीय उपमहाद्वीप) तक व्याप्त रहा है और यह एक समय पर विश्व व्याप्त था परंतु विभिन्न कारणों से हुए भारी धर्मान्तरण के उपरांत भी विश्व के इस क्षेत्र की बहुसंख्यक जनसंख्या इसी धर्म में आस्था रखती है।

सनातन धर्म एक ऐसी व्यवस्था है जहां संपूर्ण विश्व को एक ही रूप में देखा जाता है यहां प्रत्येक जीव को परमात्मा के स्वरूप में देखा जाता है सनातन शब्द में ही इसका भाव छुपा है सनातन “सनातन धर्म” का अर्थ “सना+तन” “ध+रम”। “सना” का अर्थ “श्वास” से “तन”का अर्थ “शरीर” से है। जब मनुष्य जन्म लेता तो वह जब पहली श्वास से इसकी शुरुआत होती है तो इसे सनातन कहते है। इसको जब हम उल्टा करते हैं तो शब्द बनता है  नतनास (जो सदैव दूसरों की सेवा में नतमस्तक होकर रहता है उसका कभी नाश नहीं होता)सनातन धर्म प्रत्येक प्राणी को अपनी इच्छा के अनुरूप जीवन जीने का अधिकार देता है यहां भली-भांति यह सीख दी जाती है की सर्वप्रथम आप अपने माता-पिता को भगवान के स्वरूप में पूजा (सेवा) करें फिर उसके बाद जो पशु हमें दूध पिलाते हैं जैसे गौ माता व समस्त पशुधन जिसकी होली और दीपावली पर पूजा की जाती है व श्रृंगार किया जाता है जिससे हमारे बच्चों में सदैव प्रत्येक जानवर के प्रति प्रेम और मातृत्व का भाव बना रहे यह हमारे वेद और पुराणों की ही तो शिक्षा है जिसकी वजह से दत्तात्रेय नमक संत हुए थे जो भगवान के अवतार कहा आए थे उनके 24 गुरु बने थे जिम कुत्ते घोड़े गधे तक भी शामिल थे यह सनातन ही तो है जहां अपनी मिट्टी से इतना प्रेम होता है की मिट्टी के हर कण में उसे परमात्मा के अंश को देखा है समस्त जीव और जीवन के बीच अखंड प्रीति अगर कहीं देखी जा सकती है तो वह एकमात्र सनातन धर्म जिसको वर्तमान में हिंदू धर्म कहते हैं बस यही है इसके अलावा नजर प्रसार कर देखो इतना अधिक प्रेम जीवन के प्रति दिखाई नहीं देता

हमारे भारत की इस धरती पर महापुरुषों की कमी नहीं हुई कभी जिसकी वजह अगर देखी जाए तो वह सिर्फ यही है की सनातन हमें जीवो के प्रति प्रेम रखते हुए सभी के प्रति त्याग का भाव सीखना है और यह त्यागी तो है जो मनुष्य को बड़ा बनता है वह वृक्ष किस काम का जो किसी को छाया ही ना दे जो बुके की भूख ना मिटा सके वह भी किसी काम का इसलिए संसार में अगर कोई भगवान का स्वरूप है तो वह त्याग है बलिदान है जो हमेशा दूसरों के लिए अपना सर्वस्व स्वाहा करने में तत्पर रहता है

आज हमारे देश में अक्सर देखने में आता है की राजनीतिक संगठन जो अपने आप को धर्म के पहरेदार बात कर संसार को बरगलाकर अपनी  झूठी चिकनी चुपड़ी बातों से मुर्ख बनाकर धर्म की नई नई परिभाषाएं बताते हैं पर सच पूछो तो वह धर्म नहीं हो सकता जहां निजता के स्वार्थ छुपे हो वह धर्म कभी नहीं हो सकता जहां सिर्फ हम अपना ही भला सोचते हो अपने परिवार का भला सोचते हो धर्म सिर्फ वही है जहां निजता को छोड़कर सर्वव्यापी एक रूप संसार को जैसे हम सांस लेते हैं वही सांस प्रत्येक जीव लेता है  जो सूर्य के ताप से प्रत्येक प्राणी अपनी दिनचर्या पूरी करता है और वह समंदर का पानी जो सबके लिए समान रूप से प्रवाहित होता है और वह धरती जिसके आंगन पर सभी समान रूप से जीवन यापन करते हैं और वह आसमान जिसकी छत के तले सभी एक घर बनाकर जीवन यापन करते हैं यह सब समझते हुए भी इतनी दूरी होने की वजह सिर्फ अज्ञान रूपी अधर्म  है वह धर्म कभी नहीं होता जो एक दूसरे को तोड़ता हो धर्म का कार्य सिर्फ जोड़ना अपनी वास्तविकता का ज्ञान करवाना है

क्या हमारे देश में भगवान के स्वरूप में भगवत गीता के अर्जुन और कृष्णा अवतार नहीं हुए क्या रामायण के राम अवतार नहीं हुए अगर वर्तमान स्थिति देखें तो क्या गौतम बुद्ध अवतार नहीं हुए क्या महावीर अवतार नहीं हुए क्या पैगंबर अवतार नहीं हुए और तो और कुछ दिनों पहले एक मदर टेरेसा के नाम से स्त्री क्या वह अवतार नहीं थी और तो और सरल भाषा में समझा जाए तो क्या यहां जीवित प्रत्येक वह प्राणी जो सदैव अपने जीवन को लोक हितार्थ समस्त जन कल्याणकारी कार्यों में लगाने वाला अवतार नहीं है बिना हरि कृपा के बिना परमात्मा की कृपा की किसी से कोई सेवा नहीं हो सकती सेवा सिर्फ वही होगी जहां परमात्मा का अवतरण हुआ है और मैं ऐसे लोगों को जो सदैव सेवा में तल्लीन रहते हैं वे चाहे किसी भी संप्रदाय से हैं उदाहरण के लिए वह अपने आप को ईसाई धर्म कहते हैं चाहे मुसलमान धर्म चाहे सिख धर्म चाहे जैन धर्म और अनंत जिनका मैं यहां बखाना नहीं कर सकता वे सब कथा कथित धर्म इन सब में भी अगर ऐसा इंसान हो जो त्यागी हो सेवक हो ज्ञानी हो और गुनी हो तो मैं उसको भगवान का अवतार ही समझूंगा इसके अगर किसी की विपरीत सोच है तो उसे मैं धर्म ना समझ कर अधर्म मानता हूं                  

काश हमारे देश में वेद और पुराणों की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाती अगर ऐसा होता तो यहां हमारा समाज छोटे-छोटे टुकड़ों में बिखरता नहीं यह अज्ञान ही तो हैजो संप्रदाय विशेष को धर्म कहते हैं जबकि धर्म का भाव सेवा से वह किसी भी संप्रदाय विशेष का व्यक्ति कर सकता है और जो सेवा देने की चेष्टा में तत्पर रहता है वही तो अधर्म है ज्यादातर प्राणी धर्म की मर्यादाओं को भूलकर अधर्म के साथ ही रहना पसंद करते हैं क्योंकि अधर्म में सब कुछ फोकट का मिलता है धर्म एक तपस्या है वह सभी प्राणी नहीं करते यह सब मेरे व्यक्तिगत विचार है

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Ramayana धर्म ध्यान और ज्ञान

रामायण की इन चौपाइयों का करें पाठ, सभी मनोकामनाएं भी होंगी पूरी,  हर संकट होगा दूर

जीवन के किसी न किसी मोड़ पर इंसान के सामने कोई ऐसी विपत्ति आ खड़ी होती है, जिससे पार पाने में वह खुद को असमर्थ पाता है। ऐसे में हर कोई अपने इष्टदेव का नाम लेता है। इसके अलावा कई ऐसे मंत्र हैं, जो इंसान को किसी भी तरह के संकट से छुटकारा दिलाने में मददगार साबित हो सकते हैं। अगर आपको भी किसी तरह का संकट या चिंता सता रही है, तो आप मानस मंत्र का सहारा ले सकते हैं। वैसे तो रामायण की हर चौपाई अपने आप में मंत्र जैसा प्रभाव रखती है, पर कुछ चौपाइयों का मंत्र के रूप में प्रयोग प्रचलित है, जो आपको संकट से उबारने में मदद करते हैं। साथ ही किसी भी तरह की मनोकामना को भी पूरी करते हैं। आइए जानते हैं रामचरितमानस की कुछ चौपाइयों के बारे में, जो एकदम सरल एवं बेहद प्रभावकारी हैं। जीवन में किसी भी तरह की परेशानी में आप इसका जाप कर सकते हैं। मान्यता है कि इससे आपको जरूर लाभ मिलेगा…

परीक्षा में सफलता के लिए रामायण चौपाई

जेहि पर कृपा करहिं जनुजानी।
कवि उर अजिर नचावहिं बानी।।
मोरि सुधारहिं सो सब भांती।
जासु कृपा नहिं कृपा अघाती।|

लक्ष्मी प्राप्ति के लिए रामायण चौपाई

जिमि सरिता सागर मंहु जाही।
जद्यपि ताहि कामना नाहीं।।
तिमि सुख संपत्ति बिनहि बोलाएं।
धर्मशील पहिं जहि सुभाएं।।

रिद्धि-सिद्धि की प्राप्ति के लिये रामायण चौपाई

साधक नाम जपहिं लय लाएं।
होहि सिद्धि अनिमादिक पाएं।।

प्रेम वृद्धि के लिए रामायण चौपाई

सब नर करहिं परस्पर प्रीती।
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुतिनीती।।

धन-संपत्ति की प्राप्ति के लिए रामायण चौपाई

जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं।
सुख सम्पत्ति नानाविधि पावहिंII

सुख प्राप्ति के लिए रामायण चौपाई

सुनहि विमुक्त बिरत अरू विबई।
लहहि भगति गति संपति नई।।

विद्या प्राप्ति के लिए रामचरितमानस चौपाई

गुरु ग्रह गए पढ़न रघुराई।
अलपकाल विद्या सब आई।।

शास्त्रार्थ में विजय पाने के लिए रामायण चौपाई

तेहि अवसर सुनि शिव धनु भंगा।
आयउ भृगुकुल कमल पतंगा।।

ज्ञान प्राप्ति के लिए रामचरितमानस चौपाई

तेहि अवसर सुनि शिव धनु भंगा।
आयउ भृगुकुल कमल पतंगा।।

विपत्ति में सफलता के लिए रामायण चौपाई

राजिव नयन धरैधनु सायक।
भगत विपत्ति भंजनु सुखदायक।।

पुत्र प्राप्ति के लिए रामायण चौपाई

प्रेम मगन कौशल्या निसिदिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बाल चरित कर गान।।

दरिद्रता दूर करने के लिए रामचरितमानस चौपाई

अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के ।
कामद धन दारिद्र दवारिके।।

अकाल मृत्यु से बचने के लिए रामचरितमानस चौपाई

नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित प्रान केहि बात।।

रोगों से बचने के लिए

दैहिक दैविक भौतिक तापा।
राम काज नहिं काहुहिं व्यापा।।

जहर को खत्म करने के लिए

नाम प्रभाऊ जान सिव नीको।
कालकूट फलु दीन्ह अमी को।।

खोई हुई वास्तु वापस पाने के लिए

गई बहारे गरीब नेवाजू।
सरल सबल साहिब रघुराजू।।

शत्रु को मित्र बनाने के लिए

वयरू न कर काहू सन कोई।
रामप्रताप विषमता खोई।।

भूत प्रेत के डर को भगाने के लिए

प्रनवउ पवन कुमार खल बन पावक ग्यान धुन।
जासु हृदय आगार बसहि राम सर चाप घर।।

ईश्वर से माफ़ी मांगने के लिए

अनुचित बहुत कहेउं अग्याता।
छमहु क्षमा मंदिर दोउ भ्राता।।

सफल यात्रा के लिए

प्रबिसि नगर कीजै सब काजा।
हृदय राखि कौशलपुर राजा।।

वर्षा की कामना की पूर्ति के लिए

सोइ जल अनल अनिल संघाता।
होइ जलद जग जीवनदाता।।

मुकदमा में विजय पाने के लिए

पवन तनय बल पवन समानाI

बुधि विवके बिग्यान निधाना।।

प्रसिद्धि पाने के लिए

साधक नाम जपहिं लय लाएं।

होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएं।।

विवाह के लिए

तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज संवारि कै।

मांडवी श्रुतिकीरित उरमिला कुंअरि लई हंकारि कै।।

किसी भी संकट को दूर करने के लिए

दीनदयाल बिरिदु सम्भारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।

रोजगार पाने के लिए

विस्व भरण पोषण कर जोई। ताकर नाम भरत जस होई।।

यात्रा की सफलता के लिए

प्रबिसि नगर कीजै सब काजा। ह्रदय राखि कोसलपुर राजा।।

आलस्य से मुक्ति पाने के लिए

हनुमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रणाम।

राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहां विश्राम।।

सभी मनोरथ को पूरा करने के लिए

भव भेषज रघुनाथ जसु,सुनहि जे नर अरू नारि।

तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहि त्रिसिरारि।।

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My life धर्म ध्यान और ज्ञान

श्रीमद्भागवत गीता में जीवन जीने का सार, जानिए कुछ अंश

श्रीमद्भागवत गीता में भगवान कृष्ण के द्वारा रण भूमि में अर्जुन को उपदेश दिए गए हैं। गीता की बातें मनुष्य को सही तरह से जीवन जीने का रास्ता दिखाती हैं। गीता के उपदेश हमें धर्म के मार्ग पर चलते हुए अच्छे कर्म करने की शिक्षा देते हैं। महाभारत में युद्ध भूमि में खड़े अर्जुन और कृष्ण के बीच के संवाद से हर मनुष्य को प्रेरणा लेनी चाहिए। चलिए जानते हैं…

  • जब अर्जुन युद्ध भूमि में जाते हैं तो अपने सामने पितामह और सगे संबंधियों को देखकर विचलित हो जाते हैं। तब भगवान श्री कृष्ण उन्हें सही ज्ञान देते हैं। श्री कृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं कि हे पार्थ ये युद्ध धर्म और अधर्म के मध्य है । इसलिए अपने शस्त्र उठाओ और धर्म की स्थापना करो। भगवान श्री कृष्ण धर्म के मार्ग पर चलने की शिक्षा देते हैं। मनुष्य को भी धर्म का पालन करना चाहिए।
  • गीता में कहा गया है कि क्रोध से भ्रम उत्पन्न होता है जिससे बुद्धि व्यग्र हो जाती है। भ्रमित मनुष्य अपने मार्ग से भटक जाता है। तब सारे तर्कों का नाश हो जाता है, जिसके कारण मनुष्य का पतन हो जाता है। इसलिए हमें अपने क्रोध पर नियंत्रण रखना चाहिए।
  • गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि मनुष्य को उसके द्वारा किए गए कर्मों के अनुसार ही फल प्राप्त होता है। इसलिए मनुष्य को सदैव सत्कर्म करने चाहिए। गीता में कही गई इन बातों को प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में मानना चाहिए। 
  • भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि आत्म मंथन करके स्वयं को पहचानो क्योंकि जब स्वयं को पहचानोगे तभी क्षमता का आंकलन कर पाओगे। ज्ञान रूपी तलवार से अज्ञान को काट कर अलग कर देना चाहिए। जब व्यक्ति अपनी क्षमता का आंकलन कर लेता है तभी उसका उद्धार हो पाता है।
  • भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि मृत्यु एक अटल सत्य है, किंतु केवल यह शरीर नश्वर है। आत्मा अजर अमर है, आत्मा को कोई काट नहीं सकता अग्नि जला नहीं सकती और पानी गीला नहीं कर सकता। जिस प्रकार से एक वस्त्र बदलकर दूसरे वस्त्र धारण किए जाते हैं उसी प्रकार आत्मा एक शरीर का त्याग करके दूसरे जीव में प्रवेश करती है।
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ज्ञान का अर्थ, परिभाषा प्रकार, स्रोत, महत्व

मस्तिष्क में आई नवीन चेतना तथा विचारों का विकास स्वयं तथा देखकर होने लगा इस प्रकार से वह अपने वैचारिक क्षमता अर्थात् ज्ञान के आधार पर अपने नवीन कार्यों को करने एवं सीखने, किस प्रकार से कोई भी काम को आसान तरीके से किया जाये और उसे किस प्रकार से असम्भव बनाया जाये। इसी सोच विचारों की क्षमता या शक्ति को हम ज्ञान कहते है, जिसके आधार पर हम सभी प्रकार के कार्यों को करते है एवं निरन्तर आगे बढ़ते है अर्थात उन्नति करते है, यह उन्नति तरक्की और आगे बढ़ने की शक्ति ही व्यक्ति को और आगे बढ़ाने और अच्छे कार्य करने की प्रेरणा देती है जिससे वह सदैव सत्कर्म एवं निरन्तर उचित कार्य करता है और आगे बढ़ता रहता है इस प्रकार से सरल एवं सुव्यवस्थित जीवन को चलाने की प्रक्रिया ही हमें ज्ञान से अवगत कराती है। किसी की निश्चित समय में किसी भी व्यक्ति या सम्पर्क में आने वाली कोई भी वस्तु जो कि जीवन को चलाने के लिए उपयोग में आती है उसके प्रति जागरूकता तथा साझेदारी ही ज्ञान कहलाती है। ज्ञान के प्रकार (Types of Knowledge) हम अपने जीवन के अनुभवों के माध्यम से तथा निरीक्षण के माध्यम से प्राप्त करते है जो कि हमारे समक्ष घटित होती है घटना के आधार पर प्राप्त करते है। ज्ञान कितने प्रकार का होता है? 1. प्रयोगमूलक ज्ञान (Practical knowledge) – प्रयोजनवादी मानते है कि ज्ञान प्रयागे द्वारा प्राप्त होता है। हम विधियों का प्रयोग करके तथा किसी भी तथ्य को प्रयोग द्वारा समझते है व आत्मसात करते है। 2. प्रागनुभव ज्ञान (Preliminary knowledge) – स्वयं प्रत्यक्ष की भॉति ज्ञान को समझा जाता है जैसे गणित का ज्ञान प्रागनुभव ज्ञान है जो की सत्य है वह अनुभव के आधार पर होते है तथा-स्वयं में स्पष्ट एवं निश्चित ज्ञान प्रागनुभव ज्ञान होता है। ज्ञान के स्रोत (Sources of knowledge) मनुष्य सदैव स्रोतों के माध्यम से सीखता है ज्ञान के स्रोत ये है। प्रकृति (Nature) पुस्तकें (Books) इंद्रिय अनुभव (sense experience) साक्ष्य (Evidence) तर्क बुद्धि (Logic intelligence) अंतर्ज्ञान (Intuition) अन्त:दृष्टि द्वारा ज्ञान (Wisdom through insight) अनुकरणीय ज्ञान (Exemplary knowledge) जिज्ञासा (Curiosity) अभ्यास (Practice) संवाद (Dialogue) 1. प्रकृति (Nature) – प्रकृति ज्ञान का प्रमुख स्रोत है एवं प्रथम स्रोत है प्रत्येक मनुष्य ज्ञान प्राप्त करता है जन्म से पूर्व एवं जन्म के पश्चात जैसे अभिमन्यु ने चक्र व्यहू तोड़कर अन्दर जाना अपनी माता के गर्भ से ही सीखा था और हम आगे किस प्रकार से प्रत्यके व्यक्ति अपनी योग्यतानुसार प्रकृति से सीखता है जैसे- फलदार वृक्ष सदैव झुका रहता है कभी भी वह पतझड की तरह नहीं रहता हमेशा पंछियों को छाया देता रहता है। सूर्य ब्रहृमाण्ड का चक्कर लगाता है पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करता है यह क्रिया सब अपने आप होती है और उसी से दिन रात का होना और मौसम का बनना तथा इस प्रकार से प्रकृति अपने नियमों का पालन करती है और उनसे हम सीखते है कि किस प्रकार से अपना जीवन ठीक से चला सकेंगे। हमारे आस-पास के सभी पेड़ पौधे, नदी, तालाब तथा पर्वत पठार मैदान सभी से हम दिन रात सीखते रहते है वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दोनों रूप हो सकते है। और इन्ही से हम अपना ज्ञानार्जन करते रहते है इस प्रकार से प्रकृति हमें सीखाती है और हम सीखते है। 2. पुस्तकें (Books) – किताबें ज्ञान का प्रमुख स्रोत है प्राचीन समय मैं जब कागज का निर्माण नहीं हुआ था तब हमारे पूर्वज ताम्रपत्र, पत्थर तथा भोज पत्रों पर आवश्यक बाते लिखते थे और उन्ही के आधार पर चलते थे अर्थात् नियमों का अनुसरण करते थे इस प्रकार से प्रत्येक पीढ़ियाँ समयानुसार उनका उपयोग करती थी और सदैव अनुपालन करती थी। वर्तमान युग आधुनिकता का युग है आज के समय में सभी लोग पाठ्य पुस्तकों के द्वारा तथा प्रमुख पुस्तकों के माध्यम से अपना अध्ययन करते है इनके द्वारा हम ज्ञान वृद्धि कर चौगुनी तरक्की कर सकते है। आज के युग में प्रत्येक विषय पर हमें किताबे मिल सकती है यह ज्ञान का भण्डार होती है आज के समय में हम जिस विषय में चाहे उस विषय की पुस्तक खरीद सकते है और अपने ज्ञान का अर्जन कर-सकते है। ऑनलाइन भी ई-लाइब्रेरी के द्वारा अध्ययन कर सकते है। 3. इंद्रिय अनुभव (sense experience) – इंद्रिय अर्थात् शारीरिक अंग जोकि मनुष्य को उसकी जीवितता का आभास कराते है। वह सदैव उन्ही के द्वारा अनुभव करता जाता है, और संवेदना जागृत करता जाता है, यह संवेदना ही ज्ञान प्रदान करती है अनुभव के आधार पर वह प्रत्येक व्यक्ति अपनी कार्यशैली और प्रत्यक्षी करण कराती है, अर्थात् प्रत्येक पदार्थों से जो कि हमारे जीवन को चलाने में संचालित करते है उनके सहारे ही हम आगे बढते है तथा अपने जीवन में निरन्तर आगे बढ़ाते है। 4. साक्ष्य (Evidence) – साक्ष्य के द्वारा हम दूसरों के अनुभवों एवं आधारित ज्ञान को मानते है जो हम अपने अनुभवों के द्वारा ज्ञान प्राप्त करते है। साक्ष्य में व्यक्ति स्वयं निरीक्षण नहीं करता है दूसरों के निरीक्षण पर ही तथ्यों का ज्ञान लेता है। इस प्रकार से हम कह सकते है कि हम किसी अन्य के अनुभवों के द्वारा ही हम सीखते है। किसी अन्य के द्वारा किसी भी वस्तु का ज्ञान देना और समझाना तथा बताना और उसी बात को समझना ही साक्ष्य है। हमारा भौतिक वातावरण जो हमें प्रकृति के साथ रखकर कार्य करता है जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए उद्यत करता है, या प्रेरणा देता है वही साक्ष्य है। 5. तर्क बुद्धि (Logic intelligence) – प्रतिदिन जीवन में होने वाले अनुभवों से हमें ज्ञान प्राप्त होता है तथा यही ज्ञान हमारा तर्क में परिवर्तित हो जाता है, जब हम इसे प्रमाण के साथ स्पष्ट कर स्वीकार करते है अर्थात् तर्क द्वारा हम संगठित करके हम ज्ञान का निर्माण करते है। यह एक मानसिक प्रक्रिया है। 6. अंतर्ज्ञान (Intuition) – इसका तात्पर्य है किसी तथ्य को पा जाना। इसके लिए किसी भी तर्क की आवश्यकता नहीं होती है, हमारा उस ज्ञान में पूर्ण विश्वास हो जाता है। 7. अन्त:दृष्टि द्वारा ज्ञान (Knowledge through insight) – यह ज्ञान प्रतिभाशाली लोगों को अकस्मात कुछ बोध होकर प्राप्त होता है, जैसे महात्मा बुद्ध को बोधि वृक्ष के नीचे बैठने से ज्ञान प्राप्त हुआ और भी संत तथा महात्मा हुए है जिन्हें विभिन्न स्थानों पर बैठने से ज्ञान प्राप्त हुआ। कई मनाेि वज्ञानिकों द्वारा पशुओं पर किए गए प्रयोगों से सिद्ध हुआ कि समस्या से जुझते हुए जानवर अकस्मात समस्या का हल प्राप्त हो जाता है, ऐसा तब होता है जब वह समस्या की संपूर्ण जानकारी प्राप्त कर लेता है। 8. अनुकरणीय ज्ञान (Exemplary knowledge) मानव समाज में सभी मनुष्य विभिन्न मानसिक शक्तियों के है कुछ बहुत ही तीव्र बुद्धि वाले कुछ निम्न बुद्धि वाले होते है। इनमें जो प्रतिभाशाली होते है। वह प्रत्येक कार्य को इस प्रकार करते है कि वह सैद्धान्तिक बन जाता है। अत: उनके द्वारा किया गया किसी भी संग में कार्य जिसको हम स्वीकार करते है अनुकरणीय हो जाता है। अनुकरण के द्वारा ही हम सामाजिक कुरीतियों को दूर कर सकते है इसी के माध्यम से हम समाज को नई दिशा प्रदान कर सकते है। 9. जिज्ञासा (Curiosity) – जानने की इच्छा, समझने की इच्छा किसी भी विषय या प्रकरण को अर्थात शीर्षक को समझने की उत्सुकता ही जिज्ञासा है। जिज्ञासा मनुष्य के अन्र्तमन की एक ऐसी क्रिया है जो सदैव जानने, समझने हेतु प्रोत्साहित करती है, जब तक कि उसको पूर्णत: उत्तर नहीं मिल जाता और वह संतुष्ट न हो जाता है। संतुष्टि उसको तभी प्राप्त होती है, जब वह पूर्ण रूप से मन की जिज्ञासा को शांत नहीं कर लेता हैं। इस प्रकार से वह ज्ञान एकत्रित करता है तथा उसका सदैव उपयोग करता है। जिज्ञासा पूर्ण होने पर प्रत्येक व्यक्ति खोज, आविष्कार एवं अवलोकन तथा सीखने के माध्यम का उपयोग कर उसे दैनिक व्यवहार में लाता है और अपने अनुभवों को सांझा करता है जिससे अन्य लोगों में किसी भी कार्य को करने व आगे बढ़ने की उत्सुकता बढ़ती है। 10. अभ्यास (Practice) – अभ्यास के माध्यम से ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है। प्रत्येक मनुष्य अपने अनुभवों के माध्यम से सीखता है, प्रतिदिन वह नए अनुभवों को ग्रहण करता है और उसी को प्रमाण मानकर आगे कार्य रूप देकर उसे अपने जीवन में उतारता है तथा उसी के आधार पर प्रत्येक कार्य को करता है और आगे आने वाले सभी लोगों को इसी के अनुसार ज्ञान प्रदान करता जाता है। अभ्यास के माध्यम से ही विभिन्न आविस्कार हुए तथा हम आधुनिकता के इस युग में प्रत्येक कार्य को परिणाम तक पहुँचा सके है। यदि हमारा अभ्यास पूर्ण नहीं है तो हम परिणाम नहीं प्राप्त कर सकते है। प्रत्येक मनुष्य में ईश्वरीय देन है कि, वह अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुसार प्रत्येक क्षेत्र जिसमें उसको रूचि हो अभ्यास के द्वारा अच्छे कार्य करके उनका प्रदर्शन कर सकता है और समाज को एक नई दिशा प्रदान कर सकता है चाहे वह विज्ञान, समाज तथा शिक्षा या अन्य किसी भी क्षेत्र में हो उसी आधार पर वह अपने व्यक्तित्व अनुभवों को सदैव आविष्कारिक रूप में आगे बढ़ाता रहता है। 11. संवाद (Dialogue) – संवाद ज्ञान को प्रसारित तथा बढ़ाने का एक माध्यम है जिसके द्वारा हम ज्ञान प्राप्त करते है एवं इसको आत्मसात करते है, जैसे कि लोकोक्तियाँ एवं मुहावरों के द्वारा तथा अनेकों दार्शनिकों: समाज सुधारकों एवं विद्वजनो द्वारा प्रेरित अनुभवों के आधार पर संवाद के माध्यम से ज्ञान का प्रसारण करते है जो कि प्रत्येक मनुष्य को लाभान्वित करता है। संवाद के उदाहरण – ‘‘स्वच्छ भारत स्वस्थ भारत।’’ ‘‘पानी पीयो छानकर, गुरू करो जानकर।’’ पढे़गा इंडिया, बढे़गा इंडिया’’ आदि। इस प्रकार से कई संवाद प्रत्येक मनुष्य प्राणी के मन पर प्रभाव डालते है, जिससे ज्ञान का अर्विभाव होता है तथा वह प्रत्येक मनुष्य के मन मस्तिष्क पर अत्यधिक प्रभाव डालता है। ज्ञान का महत्व (Importance of knowledge) मानव जीवन में ज्ञान का बहुत अधिक महत्व है। मानव जीवन के लिये उसकी रीढ़ की हड्डी की तरह कार्य करता है इसलिए ज्ञान का महत्व आज और ज्यादा बढ़ गया है। ज्ञान का महत्व निम्नवत है- ज्ञान को मनुष्य की तीसरी आँख कहा गया है। ज्ञान भौतिक जगत और आध्यात्मिक जगत को समझने में मदद करता है। ज्ञान से ही मानसिक, बौद्धिक, स्मृति, निरीक्षण, कल्पना व तर्क आदि शक्तियों का विकास होता है। ज्ञान समाज सुधारने में सहायता करता है जैसे- अन्धविश्वास, रूढि़वादिता को दूर करता है। ज्ञान शिक्षा प्राप्ति हेतु साधन का काम करता है। ज्ञान अपने आप को जानने का सशक्त साधन है। ज्ञान का प्रकाश सूर्य के समान है ज्ञानी मनुष्य ही अपना और दूसरे का कल्याण करने में सक्षम होता है। ज्ञान विश्व के रहस्य को खोजता है। ज्ञान धन के समान है जितना प्राप्त होता है उससे अधिक पाने की इच्छा रखते है। ज्ञान सत्य तक पहुंचने का साधन है। ज्ञान शक्ति है। ज्ञान प्रेम तथा मानव स्वतंत्रता के सिद्धांतों का ही आधार है। ज्ञान क्रमबद्ध चलता है आकस्मिक नहीं आता है। तथ्य, मूल्य, ज्ञान के आधार के रूप में कार्य करते है। ज्ञान मानव को अंधकार से प्रकाश की और ले जाता है।
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मृत्यु क्या है ?

मृत्यु क्या है ? – मृत्यु को जानना है तो पहले जीवन को जानियेमृत्यु क्या है? मृत्यु एक बड़ी रहस्यमय घटना है। क्या अपने मन की मदद से हम मौत को समझ सकते हैं? क्या हम अमरता तक पहुँच सकते हैं? क्या हम जीते हुए मृत्यु का अनुभव कर सकते हैं?

मृत्यु और मरना

मृत्यु एक बहुत मूल सवाल है। वास्तव में मृत्यु के जो आंकड़े हमें पता चलते हैं, उसकी तुलना में, मृत्यु हमारे ज्यादा पास है। हर एक पल में हम मर रहे हैं, अंगों और कोशिकाओं के स्तर पर। यही वजह है कि डॉक्टर आपके अंदर देख कर ही आपकी उम्र बता देता है। सही बात तो ये है कि हमारा जन्म होने से भी पहले हमारे अंदर मृत्यु की शुरुआत हो जाती है। अगर आप अज्ञानी और अनजान हैं, तो ही आपको ऐसा लगता है कि मृत्यु बाद में किसी दिन आयेगी। अगर आप जागरूक हैं तो आप देखेंगे कि जीवन और मृत्यु, दोनों ही, हर पल में हो रहे हैं। अगर आप बस इतना ही करें कि थोड़ी ज्यादा जागरूकता के साथ साँस लें तो आप देखेंगे कि हर ली हुई साँस जीवन है और छोड़ी हुई साँस मृत्यु है।
अगर आप बस इतना ही करें कि थोड़ी ज्यादा जागरूकता के साथ साँस लें तो आप देखेंगे कि हर ली हुई साँस जीवन है, और छोड़ी हुई साँस मृत्य है।
जन्म होने पर, पहला काम जो एक बच्चा करता है वो है साँस लेने का, हवा का दम लेने का। और, अपने जीवन का आखिरी काम जो आप करेंगे वो होगा साँस छोड़ने का। आप साँस छोड़ेंगे और फिर, अगर आप अगली साँस नहीं लेंगे तो आप मर जायेंगे। अगर ये बात आपको अभी समझ में नहीं आ रही है तो बस साँस छोड़िये और अपनी नाक को बंद कर लीजिये। कुछ ही सेकंड्स में आपके शरीर की हर कोशिका जीवन के लिये चीखना शुरू कर देगी। जीवन और मृत्यु हर समय हो रहे हैं। वे, बिना एक दूसरे से अलग हुए, एक साथ रहते हैं, एक साँस के जैसे। यहाँ तक कि उनका ये संबंध साँस से भी आगे जाता है, वो साँस से भी परे है। साँस तो बस एक सहायक भूमिका में है। वास्तविक काम तो जीवन ऊर्जा का है, जिसे हम प्राण कहते हैं और जो हमारे भौतिक अस्तित्व को काबू में रखती है। प्राण पर एक खास महारत हासिल कर के हम, काफी समय तक, साँस से परे जा कर भी जीवित रह सकते हैं। हालाँकि साँस की ज़रूरत शरीर को हर पल होती है, पर वैसे ही जैसे भोजन और पानी की है।

मृत्यु एक बहुत ही मूल पहलू है, क्योंकि अगर कोई छोटी सी बात भी हो जाती है तो हो सकता है कि कल सुबह तक आप न हों। और, कल सुबह क्यों? अभी ही, कुछ छोटी सी बात हो जाये तो अगले ही पल आप मर सकते हैं। अगर आप अन्य जीवों की तरह होते तो हो सकता है कि आप इस सब के बारे में न सोच सकते, पर एक बार जब आपको मानवीय बुद्धि मिली है तो फिर आप अपने जीवन के ऐसे महत्वपूर्ण पहलू को अनदेखा कैसे कर सकते हैं? आप इसे अनदेखा करते हुए ऐसे कैसे रह सकते हैं जैसे आप हमेशा यहाँ रहने वाले हैं? ये कैसी बात है कि यहाँ लाखों साल रहने के बाद भी मनुष्य मृत्यु के बारे में कुछ भी नहीं जानता। वैसे तो वह जीवन के बारे में भी कुछ नहीं जानता। हम जीवन के झमेलों के बारे में जानते हैं, पर जीवन के बारे में हम क्या जानते हैं?

मूल रूप से, ये परिस्थिति इसलिये आयी है क्योंकि इस ब्रह्मांड में आप कौन हैं, इसके बारे में आपने समझ खो दी है। हम जिस सौर प्रणाली में हैं, वो अगर कल गायब हो जाये तो बाकी के ब्रह्मांड को इसका पता भी नहीं चलेगा। ये सौर प्रणाली इतनी छोटी है, एक कण जैसी! इस छोटे से कण जैसी सौर प्रणाली में हमारी धरती एक सूक्ष्म परमाणु जैसी है और इस धरती पर आपका शहर एक परम सूक्ष्म परमाणु जैसा महीन है। पर, उसमें, आप एक बहुत बड़े आदमी हैं। ये एक गंभीर समस्या है। जब आपने, ‘आप कौन हैं’ के बारे में समझ पूरी तरह से खो दी है तो आपको ये क्यों लगता है कि आप जीवन या मृत्यु के बारे में कुछ भी जान पायेंगे?

प्रश्न: पर, मृत्यु की बात से मैं बहुत परेशान, अशांत हो जाता हूँ, चाहे मेरी बालकनी में कोई कबूतर मर गया हो या रास्ते पर कोई कुत्ता। मैं ऐसा क्यों महसूस करता हूँ?

गुरु: सारे डर की जड़ यह है कि हम सब मरने वाले हैं। अगर आप मरने वाले नहीं होते तो आप में कोई डर नहीं होता क्योंकि अगर काट के आपके टुकड़े भी कर दिये जाते तो भी आप नहीं मरते। पर, इसमें डरने की बात क्या है? मृत्य तो एक अद्भुत घटना है। इससे कई चीजें खत्म हो जाती हैं। अभी तो आप जिस तरह से हैं, उससे आपको ये लगता होगा कि ये एक खराब चीज़ है पर अगर आप हज़ार साल तक जीवित रहें तो मृत्यु आपके लिये एक बड़ी राहत होगी। अगर आप बहुत ज्यादा समय तक जीवित रहें तो लोग सोचने लगेंगे कि आप कब मरेंगे? मृत्यु एक जबरदस्त राहत है। बस, बात इतनी ही है कि ये अकाल न हो, समय से पहले न हो। हम उस समय तक मरना नहीं चाहते जब तक हम कुछ कर सकते हैं, कुछ बना सकते हैं, कोई योगदान दे सकते हैं।
मृत्यु अनिवार्य है
यदि आप सही समय पर मरना चाहते हैं तो आपको साधना करनी चाहिये, जिससे आप यह तय कर सकें कि आप कब मरेंगे। नहीं तो, एक मरा हुआ कबूतर भी आपको याद दिलायेगा कि आप भी मरने वाले हैं। कल जो उड़ सकता था, वो आज मर कर सूख चुका है। ये कल्पना करना कि आप भी एक दिन ऐसे हो जायेंगे, आपके लिये भयावह हो सकता है, क्योंकि आपने यहाँ जो कुछ इकट्ठा किया है उसके साथ आपकी पहचान एक मजबूरी बन गयी है, आप उससे बहुत ज्यादा जुड़ गये हैं। जब मैं कहता हूँ ‘आपने यहाँ जो कुछ इकट्ठा किया है, उसके साथ आपकी पहचान’, तो याद रखिये – आप जिस शरीर को लेकर घूमते हैं, वो इस जमीन का ही एक टुकड़ा है। जिस मिट्टी को इकट्ठा कर के आपने अपना शरीर बनाया है, और अपनी कई तरह की पहचान बना ली है, वो पहचान इतनी मजबूत हो गयी है कि उसे खोना बहुत ज्यादा भयानक लगता है।

मान लीजिये, आपका वजन जरूरत से ज्यादा हो गया है और हम आपको 10 कि.ग्रा. वज़न कम करने में मदद करते हैं तो क्या ये आपको खराब लगेगा? क्या आप इसके लिये रोयेंगे? बिल्कुल नहीं! अधिकतर लोग बहुत ज्यादा खुश होते हैं जब वे 10 कि.ग्रा. वजन कम कर लेते हैं। अब मान लीजिये कि आपने अपना पूरा 60 या 50 कि.ग्रा. वजन छोड़ दिया, तो इसमें क्या बड़ी बात है? अगर आप जीवन को वैसे ही जानते हैं जैसा वो है, और अपने इकट्ठा किये हुए वजन के ढेर में ही पूरी तरह से खोये हुए नहीं है तो शरीर छोड़ देना कोई बड़ी बात नहीं है।

पक्षियों, कीड़ों, कुत्तों या मनुष्यों के शरीर तो बस ऐसे ही हैं जैसे मिट्टी को वापस मिट्टी में डाल दिया गया हो। ये कोई बड़ा नाटक नहीं है, बस एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। आपने जो कुछ उठाया था, उसे वापस करना और एक नये रूप में बदल देना ही है। आप अपने जन्म लेने, जीवन और मृत्यु को बहुत महत्व दे सकते हैं, पर जहाँ तक धरती माँ का सवाल है, वह तो सिर्फ़ चीजों को नये रूप में ढाल रही है। वह आपको अपने में से बाहर निकालती है और फिर वापस खींच लेती है। आप अपने बारे में बहुत सारी कल्पनायें कर लेते होंगे पर आपने जो इकट्ठा किया है वो आपको वापस तो करना ही है। ये एक अच्छी आदत है। आप किसी से कुछ भी लेते हैं तो वो आपको कभी ना कभी तो वापस करना ही है। मेरी बात पर विश्वास कीजिये, मरना एक अच्छी आदत है।

प्रश्न : पर, मृत्यु के बारे में जानने का अच्छी तरह से जीने से क्या संबंध है?

गुरु: मृत्यु जीवन की आधार-रेखा है। अगर आप मृत्यु को नहीं समझते तो जीवन को कभी न जान सकेंगे और न ही संभाल सकेंगे, क्योंकि जीवन और मृत्यु साँस लेने और छोड़ने की क्रिया जैसे हैं। वे साथ साथ रहते हैं। आध्यात्मिक प्रक्रिया तभी शुरू होती है जब आपका सामना मृत्यु से होता है, वो चाहे आपकी खुद की हो या किसी ऐसे प्रिय व्यक्ति की जिसके लिये आपको लगता हो कि उसके बिना आप जीवित रह ही नहीं पायेंगे। जब मृत्यु पास आ रही हो या आ गयी हो तब ही ये सवाल अधिकतर लोगों के मन में आता है, “ये सब क्या है? इसके बाद क्या होगा”? जब तक जीवन का अनुभव बहुत ज्यादा वास्तविक लगता है तब तक आप विश्वास ही नहीं कर पाते कि ये सब ऐसे ही खत्म होने वाला है। पर, जब मृत्यु पास में आ जाती है तब मन ऐसा सोचने लगता है कि अभी कुछ और बाकी है, कुछ और होना चाहिये। मन चाहे कुछ भी सोच ले पर सही तौर पर ये जानता कुछ नहीं है क्योंकि मन सिर्फ उसी जानकारी के आधार पर सोचता है जो उसने इकट्ठा की है। मन का मृत्यु के लिये कोई खिंचाव नहीं है क्योंकि उसके पास मृत्यु के बारे में कोई सच्ची जानकारी नहीं है, सिर्फ सुनी सुनायी बातें हैं, गपशप है।

आपने ये सब गपशप सुनी है कि मरने पर आप जा कर भगवान की गोद में बैठ जायेंगे। अगर ऐसा है तो आपको आज ही मर जाना चाहिये। अगर आपको ऐसा विशेषाधिकार मिलने वाला है तो मुझे समझ में नहीं आ रहा कि आप इसे टाल क्यों रहे हैं? आपने स्वर्ग और नर्क के बारे में भी गप्पें सुनी हैं। देवदूत और दूसरे जो भी हैं, उनके बारे में भी गप्पें सुनी हैं। पर, आपके पास कोई पक्की जानकारी नहीं है। मृत्यु के बाद क्या होता है उसके बारे में सोचने में अपना समय व्यर्थ मत कीजिये क्योंकि वो आपके मन का क्षेत्र नहीं है।

जागरूकतापूर्वक मरना

इसे जानने का एक ही तरीका है, और वो है – प्रज्ञा, जैसा कि भारतीय भाषाओं में हम इसे कहते हैं। अंग्रेज़ी में हम इसे एवेयरनेस अर्थात जागरूकता कहेंगे। पर, कृपया इस शब्द को इसके सामान्य अर्थ में मत लीजिये। अगर आप जागरूक हैं तो आप चीजों के बारे में सोचे बिना, और उनकी जानकारी मिले बिना उन्हें जान सकते हैं। अगर आप अपने आसपास के जीवन को ध्यान से देखते हैं तो ऐसी बहुत सी बातें हैं, जिनके बारे में बिना सोचे हुए भी हर प्राणी उनको जानता है। सही तौर पर अगर आपको उनके बारे में सोचना हो तो आपको ये भी पता नहीं चलेगा कि साँस कैसे लें! ये बस होता है। वो आपकी बुद्धिमत्ता नहीं है, वो तो सृष्टिकर्ता की बुद्धिमत्ता है। आपके शरीर जैसी जटिल मशीन अगर आपको चलाने के लिये दी जाती तो एक बड़ी आफत खड़ी हो जाती।
बहुत सारी चीजें आपकी सहायता, समझ और सोच के बिना होती हैं। प्रज्ञा विचारों से भी परे है। प्रज्ञा वो है जो सृष्टिरचना का स्रोत है। अगर आप उस तक पहुँच बना लेते हैं तो आप उस सीमारेखा को पार कर सकते हैं जो हमें लगता है कि जीवन और मृत्यु के बीच में है। असल में, कोई सीमारेखा नहीं है – आप अभी ही जी भी रहे हैं और मर भी रहे हैं। सामाजिक स्तर पर, लोगों के सीमित अनुभवों और उनकी सीमित समझ में, कोई आज यहाँ हो सकता है और कल जा चुका हुआ हो सकता है। पर जीवन के संदर्भ में, अस्तित्व की प्रक्रिया के संदर्भ में, जीना और मरना जैसा कुछ भी नहीं है। ये बस लीला है, एक नाटक, एक खेल।

दिव्य खेल

जब हम कहते हैं कि ये सब एक दिव्य लीला है तो इसका अर्थ ये नहीं है कि दिव्यता दूसरों को दुख दे कर खुश होने वाली कोई दुष्ट शक्ति है, जो आपके जीवन के साथ खेलने का मजा ले रही है। हम इसे खेल इसलिये कहते हैं क्योंकि सब एक दूसरे के साथ गुँथा हुआ है। अस्तित्व की दृष्टि से आप बचपन, जवानी, प्रौढ़ता, और बुढ़ापे में फर्क नहीं कर सकते। ये सब एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। आप जिसे व्यक्ति कहते हैं और आप जिसे ब्रह्मांड कहते हैं, वे एक दूसरे से अलग नहीं किये जा सकते। आप जिसे परमाण्विक कहते हैं और आप जिसे ब्रह्मांडीय कहते हैं, उन्हें एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। इस अर्थ में, ये सब एक खेल ही है।

मृत्यु और उसके परे जो कुछ है, वो कोई ऐसा रहस्य नहीं है जो कहीं स्वर्ग या नर्क में छुपा हुआ हो – ये यहीं है, अभी है।
पर जब आप किसी एक चीज़ और दूसरी के बीच सीमारेखा खींच देते हैं तो फिर कोई खेल नहीं होगा। जब आप यहाँ बैठे हैं, तब साँस आपके और पेड़ के बीच में खेल रही है। आप उसको इस अर्थ में अलग नहीं कर सकते कि, “मैं अपनी साँस ले रहा हूँ, उसको उसकी साँस लेने दो”। बहुत से घरों में ऐसा होता है – “मैं अपना काम कर रहा हूँ, तुम अपना काम करो”। जिस पल आप खेल को रोकने की कोशिश करेंगे, जीवन आपके हाथों से फिसल जायेगा।

जीवन और मृत्यु को जानने के लिये सभी तरह की चीजें की गयीं हैं। पर, इसके बारे में सोच कर या प्रयोग कर के आप इसे नहीं जान सकते। लोग जब मुझसे मृत्यु और उसके बाद क्या होता है, इसके बारे में पूछते हैं तो मैं उन्हें याद दिलाता रहता हूँ कि इसके बारे में जानने का सबसे बेहतर तरीका इसका अनुभव करना है। मैं ये इशारा नहीं कर रहा कि उन्हें मर जाना चाहिये। मेरा ऐसा कहने का मतलब बस ये होता है कि आप जीवन का अनुभव करें, अपने अंदर के जीवन का। अगर आपको सिर्फ शरीर का ही अनुभव है, तो मैं जो कुछ भी कहूँगा उसका आप गलत निष्कर्ष निकालेंगे। अगर जीवन के बारे में आपके अनुभव सिर्फ शारीरिक और मानसिक संरचना तक ही सीमित हैं तो आप इस आयाम तक अपनी पहुँच नहीं बना पायेंगे। मृत्यु और उसके परे जो कुछ है, वो कोई रहस्य नहीं है जो कहीं स्वर्ग या नर्क में छुपा हुआ हो – ये यहीं है, अभी है। बात ये है कि अधिकतर मनुष्यों ने इस तरफ पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है क्योंकि वे बाकी चीजों के साथ बहुत ज्यादा व्यस्त रहते हैं।

उनके लिये उनका पेशा, कारोबार उनके जीवन से ज्यादा महत्वपूर्ण है। उनके प्रेम सम्बंध उनके लिये जीवन से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। अपने पड़ोस में किसी के साथ एक छोटा सा झगड़ा उनके लिये उनके जीवन से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। और, जीवन से बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण उनके कपड़े हैं जो वे पहनते हैं। ये बस कुछ उदाहरण हैं। चूंकि जीवन के बारे में आपकी समझ गलत है तो जीवन आपसे दूर रहता है। पर, वास्तव में जीवन आपकी पकड़ से दूर नहीं रहता – आप जीवन से दूर भाग रहे हैं। जीवन आपको टालने की कोशिश नहीं कर रहा, आप ही हर तरीके से इसे नज़रअंदाज़ कर रहे हैं।

आपके जीवन में, आपको जो कड़वे, दर्दभरे अनुभव हुए, वे कभी भी जीवन ने नहीं बनाये। वे सिर्फ इस वजह से हुए क्योंकि आप अपने शरीर और मन को ठीक तरह से संभाल नहीं रहे थे। जीवन ने कभी भी आपको दुख और दर्द नहीं दिये हैं। ये बस आपके शरीर और मन की वजह से हुए। आप नहीं जानते कि अपनी शारीरिक और मानसिक संरचना को कैसे संभालें? आपको दो अद्भुत साधन दिये गये थे पर आप उनके साथ गड़बड़ करते रहे। सभी दुख और दर्द सिर्फ आपकी ही वजह से आये हैं, ये जीवन से नहीं आये हैं।

प्रज्ञा, समझ का वो आयाम है जो आपको जीवन, उसके स्वभाव और उसके स्रोत तक पहुँचा देता है। ये अलग-अलग चीजें नहीं हैं, ये बस अलग-अलग नाम हैं जो हम जीवन को देते हैं। यहाँ कोई स्रोत नहीं है, कोई अभिव्यक्ति नहीं है – ये सब बस एक ही हैं। जीवन और मृत्यु जैसी कोई चीज़ नहीं है। यहाँ, न तो जीवन है, न ही मृत्यु – ये सब बस इन चीजों का खेल है। आप इस पर एक खेल खेलते हैं, और फिर किसी दिन रुक जाते हैं। जीवन खेलता है और रुकता है, खेलता है और रुकता है, पर मूल जीवन कोई खास गतिविधि नहीं है, कोई ऐसी ख़ास चीज़ नहीं है जो हो रही हो। ये एक अद्भुत घटना है जो बस यहॉं है। ये सृष्टिरचना की पृष्ठभूमि है। सृष्टिरचना का स्रोत है।

प्रश्न : मैंने मृत्यु को बेहद नज़दीक से देखा, जब मैं एक कार द्वारा टक्कर मारे जाने से, बस कुछ ही सेकंडों से बाल-बाल बच गया। उन कुछ सेकंडों में, मैंने सब कुछ एकदम धीमी गति में और असाधारण रूप से विस्तार में अनुभव किया। तो, उन कुछ सेकंडों का मेरा अनुभव उस तरह से क्यों हुआ और क्या मैं जीवन का अनुभव विस्तार के उस स्तर पर जागरूकतापूर्वक कर सकता हूँ?

सद्गुरु:: एक बार कुछ ऐसा हुआ – इंडियाना, अमेरिका के एक छोटे से कस्बे के एक शराबखाने में दो बूढ़े आदमी मिले। दोनों अलग-अलग टेबल पर चिड़चिड़ाते हुए से बैठे थे और पी रहे थे। फिर, उनमें से एक ने दूसरे की ओर देखा और उस आदमी की कनपटी पर एक जन्मचिन्ह देखा। उसकी तरफ देख कर वो बोला, “अरे, क्या तुम जोशुआ हो”? “हाँ, तुम कौन हो”? “क्या तुम नहीं जानते, मैं मार्क हूँ, हम लोग युद्ध में साथ थे”। “अच्छा, हे भगवान”! फिर वे दोनों खुश हो गये, “दूसरे विश्वयुद्ध में हम साथ-साथ थे, उसको अब पचास साल हो गये हैं”।

फिर, वे एक ही टेबल पर बैठ कर पीने लगे। वे खा भी रहे थे और बातें भी कर रहे थे। उन्होंने यूरोप में युद्ध के दौरान 40 मिनिट की एक कार्रवाई में एक साथ भाग लिया था। वो 40 मिनिट की बमबारी का समय था। उन 40 मिनिटों के बारे में वे दो घंटों तक गजब के विस्तार से बातें करते रहे। जब उनकी बातें खत्म हुईं तो एक ने दूसरे से पूछा, “तब से तुम क्या करते रहे हो”? वो बोला, “अरे, मैं बस एक सेल्समैन का काम कर रहा था”। 40 मिनिट के युद्ध के बारे में वे दो घंटों तक खूब उत्तेजना के साथ बातें करते रहे पर फिर 40 साल का जीवन – बस एक वाक्य में – मैं बस एक सेल्समैन था। उसके जीवन में 40 साल बस यही हुआ।

कब्र के लिये अभ्यास

दुर्भाग्यवश, बहुत सारे लोग केवल तभी जीवंत होते हैं जब मृत्यु उनके सामने खड़ी होती है – चाहे युद्ध में या कार दुर्घटना में। जब मरने की संभावना से आप आमने-सामने होते है – तभी आप पूरी तरह से जीवंत होते हैं। ये कितना दुर्भाग्यपूर्ण है! जब आप सही ढंग से, वास्तव में अपने मरणशील होने का सामना करते हैं तभी ये समझते हैं कि आपका जीवित होना सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है।

मैं जब लोगों को देखता हूँ तो ऐसा लगता है जैसे वे कब्र के अंदर जाने का अभ्यास कर रहे हैं – जब वे अपनी कब्र में होंगे तब उन्हें कैसा होना चाहिये, उनके चेहरे के भाव कैसे होने चाहिये? वे ये बात नहीं समझते कि मरना तो उन्हें है ही। उन्हें लगता है कि वे हमेशा यहाँ रहेंगे। जब वे जीवित हैं तो हमेशा मृत्यु का अभ्यास करते रहते हैं। पर, जब आप उन्हें मृत्यु का खतरा दिखायेंगे तो वे जीवंत हो उठेंगे। आप को क्या लगता है, कृष्ण ने अपना उपदेश युद्ध के मैदान में क्यों दिया? किसी आश्रम के शांतिपूर्ण माहौल में नहीं, भारत के सुंदर जंगलों में नहीं, न ही हिमालय की किसी गुफा में, पर एक खतरनाक युद्ध के मैदान में – क्योंकि मारे जाने का खतरा दिखे बिना ज्यादातर मनुष्यों में अपने जीवन की ओर देखने की बुद्धि ही नहीं होती।

मुझे लगता है कि जब बिना ड्राइवर के अपने आप चलने वाली कारें आ जायेंगी, तब बहुत सारे लोगों को आत्मज्ञान हो जायेगा। कुछ समय बाद शायद आप सीख जायेंगे कि इस बात को कैसे अनदेखा करें – वो बात अलग है – पर शुरुआत में आप नहीं जानते कि ये रुकेगी या नहीं। आप को नहीं मालूम कि ये ठीक समय पर रुकेगी या कहीं जा कर भिड़ जायेगी। मुझे लगता है कि जब ये अपने आप चलने वाली कारें उपयोग में आ जायेंगी, तब उसके कुछ ही महीनों में इस धरती पर कुछ लोगों को तो आत्मज्ञान हो ही जायेगा। तो हमें कुछ आत्मज्ञानियों के लिये तैयार रहना चाहिये।

जीवन के लिये जीवंत होना

किसी कार दुर्घटना की राह मत देखिये। आपको ये जानना ही चाहिये कि आप इसी समय गिर कर मर सकते हैं। मैं आपके लिये ऐसा नहीं चाहता और आपको लंबे जीवन का आशीर्वाद भी देता हूँ, पर ये संभव है। हर रोज़, कई सारे लोग इस तरह से मर जाते हैं। बैठे-बैठे, खड़े-खड़े, लेटे हुए – वे हर तरह की मुद्रा में मरते हैं। जब आपको समझ आती है कि आप मर सकते हैं तो अचानक ही आपको जीवन का मूल्य समझ में आता है, आप उसके प्रति जीवंत हो उठते हैं। मैं लोगों को याद दिलाता रहता हूँ कि इस जीवन में आप असफल नहीं हो सकते। हर कोई सफल होगा। आपने कभी ऐसा नहीं देखा होगा कि किसी को इसलिये बंदी बनाया गया कि उसने जीवन ठीक से नहीं जिया। हर कोई सफल रहता है। पर, बहुत सारे लोग, बिना ये जाने कि वे किस चीज़ में से गुजरे हैं, बस गुज़र जाते हैं।

जब आपकी दुर्घटना होने वाली थी, कुछ सेकंडों के लिये, आप जान रहे थे कि आप किस परिस्थिति में से हो कर गुज़र रहे थे। बाकी के समय आप ये नहीं जानते। अभी तो आपके दिमाग का नाटक हर चीज़ पर हावी है। इसका मतलब ये है कि आपकी मूर्खतापूर्ण रचना उस भव्य सृष्टिरचना पर हावी है, जिसमें हम रह रहे हैं। पर, जब आपकी ये मूर्खतापूर्ण रचना टूट गयी, तब आप परिस्थिति के उस जबरदस्त खतरे के कारण न कुछ सोच सके, न किन्हीं भावनाओं में बह सके, तब ही आपको लगा कि आप वास्तविक रूप से जीवंत थे।

ये सारा योग जो हम आपको सिखा रहे हैं, वे सारी प्रक्रियायें जिनमें हम आपको दीक्षित कर रहे हैं, वे बस इसीलिये हैं कि आप अपने खुद के नाटक से दूर रहें जिससे ब्रह्मांड का ये खेल आपकी समझ में आ सके। क्योंकि इसके बिना इस जीवन में कुछ भी नहीं है।

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ध्यान और ज्ञान

जीवन एक तृष्णा

जीवन एक तृष्णा संसार में जन्म लेने के बाद माया के कुचक्र में फंसने से इस तृष्णा नाम की बीमारी का जन्म होता है यह तृष्णा नाम की बीमारी माया के कुचक्र जाल में फंस कर और ज्यादा बढ़ जाती है मनुष्य अपने आपको भूलने लगता है और ध्यान में उसकी तृष्णा ही रहती है इस रोग का इलाज सिर्फ ध्यान ज्ञान ही है अगर यह नहीं हो तो यह बढ़ती बढ़ती इतनी बढ़ जाती है कि कभी नहीं मिटती यह जानते हुए कि मृत्यु निश्चित है कब आ जाए कोई भरोसा नहीं फिर भी यह बीमारी मनुष्य को चौतरफा घिरी रहती है ना मनुष्य को जीवन जीने का उद्देश्य ध्यान में आने देती और ना ही मृत्यु के बाद क्या हो, यह पहचानने की बुद्धि देती,  इस बीमारी के हो जाने से धीरे धीरे सब पतन होने लगता है अभिलाषा जागती हैं पर फिर भी मनुष्य का पतन होने लगता है आखिरकार यह तृष्णा नर्क की राह पर ले जाती है अगर समय रहते ध्यान और ज्ञान से इसका उपाय किया जाए तो संभव है इलाज है परंतु इसके अलावा सिर्फ और सिर्फ परमात्मा ही इस रोग से मुक्त कर सकते हैं         

  आमतौर पर देखने में पाया जाता है कि लोग बाग हमेशा ऐसी बातें करते हुए पाए जाते हैं वह मुझे देख लेगा वह मुझसे आगे निकल गया है मैं उसकी बराबरी कैसे करूं उसके पास मेरे से ज्यादा शक्तियां हैं उसके पास मेरे से ज्यादा धन है उसके पास मेरे से ज्यादा संपत्ति है क्या कभी मैं भी ऐसा बन पाऊंगा बस इसी प्रयास में लगभग सारा जीवन व्यतीत हो जाता है कभी मनुष्य ऐसा नहीं सोचता मैं कहां से आया हूं मैं क्यों आया हूं मुझे किसने भेजा है मेरे जीवन का क्या उद्देश्य है क्या मैं भी परमात्मा का स्वरूप हूं अगर ऐसा भाव मनुष्य  रखने लगे कि संसार में जो भी मैं देखता हूं जो भी मैं सुनता हूं जो भी मैं महसूस करता हूं जो भी मैं सुनता हूं सब कुछ मेरा ही स्वरूप है मैं ही सर्व व्याप्त हूं मैं कभी नहीं मरता मैं कभी नहीं जन्म था मैं यही था यही हूं और यही रहूंगा पूरे ब्रह्मांड में जहां तक नजर जाती है जो भी दिखता है वह मेरा ही स्वरूप है अगर ऐसा भाव मनुष्य के भीतर भरा हो तो यह तृष्णा नाम की बीमारी कभी निकट नहीं आती ऐसी सोच वाला व्यक्ति हमेशा धनी रहता है उसके पास कुछ भी ना होते हुए भी सब कुछ होने का भाव हमेशा रहता है यही ईश्वर की कृपा है हमेशा अपनी सोच सकारात्मक और सार्थक रखनी चाहिए दूसरों को पीड़ा देने से पहले यह सोचना चाहिए कि वह पीड़ा मेरी ही है और उस पीड़ा का दंड हमेशा मुझे ही मिलना है      

मैं जहां तक सोचता हूं ईश्वर ने दिन और रात बनाया है सुख और दुख बनाया है भला और बुरा बनाया है देवता और राक्षस बनाया है और यह सब ईश्वर का ही स्वरूप है बुराई में भी ईश्वर बैठते हैं भलाई में भी सर बैठते हैं जहां देखो वहां आपको ईश्वर ही दिखेंगे क्योंकि साधारण भाषा में अगर समझ ना चाहो तो हमारे शरीर में भी ऐसे अंग हैं जिन अंगों से हमें ला जाती है हम हमेशा उनको छुपा कर रखते हैं पर कभी उनको काटकर तो नहीं फेंकते क्योंकि उनका भी हमारी सेवा में कार्य रहता है ठीक इसी प्रकार दुष्ट व्यक्ति भी ऐसा ही होता है हम उसका नाम लेने से हिचकी चाहते हैं हमें शर्म आती है कि हमारा कोई शत्रु व्यवहार करने वाला व्यक्ति है पर फिर भी है तो वह भी हमारा ही हमेशा प्रेम से जियो यही ईश्वर सेवा है और यही तपस्या है और यही त्याग है समझदार ओं के लिए तो इशारा ही काफी होता है धन्यवाद आपने मेरे विचारों को पढ़ा और समझा मेरी आत्मा को शांति मिलती है जब आप मेरे विचारों को ध्यान देते हैं

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धर्म

आत्मा क्या हैं?

आत्मा का निरूपण श्रीमद्भगवदगीता या गीता में किया गया है। आत्मा को शस्त्र से काटा नहीं जा सकता, अग्नि उसे जला नहीं सकती, जल उसे गीला नहीं कर सकता और वायु उसे सुखा नहीं सकती।[1] जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीर को त्याग कर नवीन शरीर धारण करता है।[2] इस संसार मे अनगिनत ज्ञानी पुरुष हुए है जिन्होंने अपनी आत्मा पाई और आत्मा को पाने के रास्ते बताये है। कृष्ण, बुद्ध, जीसस, अष्टावक्र, राजा जनक , संत कबीर, मीरा बाई, गुरु नानक, साई बाबा आदि ।सभी ज्ञानी पुरुषो ने एक मत से यह कहा कि आत्मा अमर है, नाहीं कभी जन्म लेती, नाहीं उसकी मृत्यु होती। आत्मा सनातन है। आत्मा एक उर्जा का रुप हैं जिसे आत्म ज्ञान और परमात्म ज्ञान के समय देखा जा सकता है। कई धार्मिक, दार्शनिक और पौराणिक परंपराओं में, आत्मा एक जीवित प्राणी का निराकार सार है। सुकरात, प्लेटो और अरस्तू जैसे यूनानी दार्शनिकों ने समझा कि आत्मा में एक तार्किक क्षमता होनी चाहिए, जिसका अभ्यास मानव क्रियाओं में सबसे दिव्य था।[3] fयहूदी धर्म में और कुछ ईसाई संप्रदायों के अनुसार केवल मनुष्यों के पास अमर आत्माएं होती हैं (हालांकि यहूदी धर्म के भीतर अमरता विवादित है और अमरता की अवधारणा प्लेटो से प्रभावित हो सकती है)। उदाहरण के लिए, कैथोलिक धर्मशास्त्री थॉमस एक्विनास ने सभी जीवों को "आत्मा" (एनिमा) के लिए जिम्मेदार ठहराया लेकिन तर्क दिया कि केवल मानव आत्माएं अमर हैं[4]। अन्य धर्मों (विशेष रूप से हिंदू धर्म और जैन धर्म) का मानना ​​है कि सबसे छोटे जीवाणु से लेकर सबसे बड़े स्तनधारियों तक सभी जीवित चीजें स्वयं आत्माएं हैं (आत्मान, जीव) और दुनिया में उनके भौतिक प्रतिनिधि (शरीर) हैं। वास्तविक स्वयं आत्मा है, जबकि शरीर उस जीवन के कर्म का अनुभव करने के लिए केवल एक तंत्र है। इस प्रकार यदि कोई बाघ को देखता है तो उसमें (आत्मा) रहने वाली एक आत्म-चेतन पहचान है, और दुनिया में एक भौतिक प्रतिनिधि (बाघ का पूरा शरीर, जो देखने योग्य है) है। कुछ सिखाते हैं कि गैर-जैविक संस्थाओं (जैसे नदियाँ और पहाड़) में भी आत्माएँ होती हैं। इस विश्वास को जीववाद कहा जाता है।[5]

विभिन्न संप्रदायों के विचार

ईसाई
चर्च ऑफ जीसस क्राइस्ट ऑफ लैटर-डे सेंट्स सिखाता है कि आत्मा और शरीर मिलकर मनुष्य की आत्मा (मानव जाति) का निर्माण करते हैं। “आत्मा और शरीर मनुष्य की आत्मा हैं।” लैटर-डे सेंट कॉस्मोलॉजी का मानना ​​है कि आत्मा एक पूर्व-मौजूदा, ईश्वर-निर्मित आत्मा और एक अस्थायी शरीर का मिलन है। , जो पृथ्वी पर भौतिक गर्भाधान से बनता है। मृत्यु के बाद, आत्मा जीवित रहती है और पुनरुत्थान तक आत्मा की दुनिया में प्रगति करती है, जब यह उस शरीर के साथ फिर से जुड़ जाती है जो एक बार इसे रखा गया था। शरीर और आत्मा के इस पुनर्मिलन के परिणामस्वरूप एक पूर्ण आत्मा मिलती है जो अमर और शाश्वत है और आनंद की पूर्णता प्राप्त करने में सक्षम है। [6]

हिंदू धर्म
आत्मान एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है आंतरिक स्वयं या आत्मा। हिंदू दर्शन में, विशेष रूप से हिंदू धर्म के वेदांत में, आत्मा पहला सिद्धांत है, घटना के साथ पहचान से परे एक व्यक्ति का सच्चा आत्मा, एक व्यक्ति का सार। मुक्ति (मोक्ष) प्राप्त करने के लिए, एक इंसान को आत्म-ज्ञान (आत्मज्ञान) तथा परमात्म ज्ञान प्राप्त करना चाहिए, जो यह महसूस कर सके कि उसकी सच्ची आत्मा (आत्मान) अद्वैत वेदांत के अनुसार पारलौकिक ब्रह्म के समान है।[7]
कबीर साहेब जी ने कहा है  कूप की छाया कूप के माही, ऐसा आत्म ज्ञान।
जैन दर्शन
मुख्य लेख: जीव (जैन दर्शन)
जैन दर्शन में आत्मा के लिए जीव शब्द का प्रयोग किया जाता है। जीव (चेतना) को अजीव (शरीर) से पृथक बताया जाता है।
इस्लाम
कुरान, इस्लाम की पवित्र पुस्तक, आत्मा को संदर्भित करने के लिए दो शब्दों का उपयोग करती है: रूह (आत्मा, चेतना, न्यूमा या "आत्मा" के रूप में अनुवादित) और नफ़्स (स्वयं, अहंकार, मानस या "आत्मा" के रूप में अनुवादित), हिब्रू नेफेशंड रुच के संज्ञेय। दो शब्दों को अक्सर एक दूसरे के स्थान पर प्रयोग किया जाता है, हालांकि रूह का उपयोग अक्सर दिव्य आत्मा या "जीवन की सांस" को दर्शाने के लिए किया जाता है, जबकि नफ़्स किसी के स्वभाव या विशेषताओं को निर्दिष्ट करता है। इस्लामी दर्शन में, अमर रूह नश्वर नफ़्स को "ड्राइव" करता है, जिसमें जीवन के लिए आवश्यक अस्थायी इच्छाएं और धारणाएं शामिल हैं।[8] कुरान में दो अंश जो रूह का उल्लेख करते हैं, अध्याय 17 ("द नाइट जर्नी") और 39 ("द ट्रूप्स") में होते हैं: और वे आपसे, [हे मुहम्मद], रूह के बारे में पूछते हैं। कहो, "रूह मेरे रब के मामले में है। और मानव जाति को थोड़े से ज्ञान के अलावा ज्ञान नहीं दिया गया है।[8]
— कुरान १७:८५
अल्लाह उनकी मृत्यु के समय आत्माओं को ले जाता है, और जो नहीं मरते उनकी नींद के दौरान। फिर वह उन लोगों को रखता है जिनके लिए उसने मौत का फैसला किया है और दूसरों को एक निश्चित अवधि के लिए रिहा कर देता है। निश्चय ही इसमें उन लोगों के लिए निशानियाँ हैं जो विचार करते हैं..
— कुरान 39:42
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