Shri Ramchandra Sevadham Trust, Nawalgarhवेदव्यास जी का परामर्श यह प्रसंग पांडवों के वनवास के समय का है। अपने वनवास के समय एक बार पांडव वेदव्यास जी के आश्रम में पहुंचे और उन्हें अपना दुःख बताया।
युधिष्ठर ने वेदव्यास जी से प्रार्थना करी की वो उन्हें अपना राज्य पुनः प्राप्त करने का कोई उपाय बताए। तब वेदव्यास जी ने कहा की पुनः अपना राज्य प्राप्त करने के लिए तुम्हे दिव्य अस्त्रों की आवश्यकता पड़ेगी क्योंकि कौरवो के पास भीष्म द्रोणाचार्य कृपाचार्य कर्ण जैसे महारथी है। अतः बिना दिव्य अस्त्र प्राप्त किये तुम उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते।
युधिष्ठर के यह पूँछने पर की वो देवताओं से यह दिव्य अस्त्र कैसे प्राप्त करे वेदव्यास जी ने कहा की आप सब में केवल अर्जुन ही देवताओं को प्रसन्न करके दिव्यास्त्र प्राप्त कर सकते है। अतः अर्जुन को देवताओं को तपस्या करके प्रसन्न करना चाहिए।
अर्जुन गए तपस्या करने वेदव्यास जी के ऐसे वचन सुनकर अर्जुन तपस्या करने के लिए आगे अकेले ही रवाना हो गए। अर्जुन उत्तराखंड के पर्वतों को पार करते हुये एक अपूर्व सुन्दर वन में जा पहुँचे। वहाँ के शान्त वातावरण में वे भगवान की शंकर की तपस्या करने लगे।
उनकी तपस्या की परीक्षा लेने के लिये भगवान शंकर एक भील का वेष धारण कर उस वन में आये। वहाँ पर आने पर भील रूपी शिव जी ने देखा कि एक दैत्य शूकर का रूप धारण कर तपस्यारत अर्जुन की घात में है।
शिव जी ने उस दैत्य पर अपना बाण छोड़ दिया। जिस समय शंकर भगवान ने दैत्य को देखकर बाण छोड़ा उसी समय अर्जुन की तपस्या टूटी और दैत्य पर उनकी दृष्टि पड़ी।
उन्होंने भी अपना गाण्डीव धनुष उठा कर उस पर बाण छोड़ दिया। शूकर को दोनों बाण एक साथ लगे और उसके प्राण निकल गये।शूकर के मर जाने पर भीलरूपी शिव जी और अर्जुन दोनों ही शूकर को अपने बाण से मरा होने का दावा करने लगे।
दोनों के मध्य विवाद बढ़ता गया और विवाद ने युद्ध का रूप धारण कर लिया। अर्जुन निरन्तर भील पर गाण्डीव से बाणों की वर्षा करते रहे किन्तु उनके बाण भील के शरीर से टकरा&टकरा कर टूटते रहे और भील शान्त खड़े हुये मुस्कुराता रहा।
अन्त में उनकी तरकश के सारे बाण समाप्त हो गये। इस पर अर्जुन ने भील पर अपनी तलवार से आक्रमण कर दिया। अर्जुन की तलवार भी भील के शरीर से टकरा कर दो टुकड़े हो गई।
अब अर्जुन क्रोधित होकर भील से मल्ल युद्ध करने लगे। मल्ल युद्ध में भी अर्जुन भील के प्रहार से मूर्छित हो गये।देवताओं ने दिए अर्जुन को दिव्यास्त्र थोड़ी देर पश्चात् जब अर्जुन की मूर्छा टूटी तो उन्होंने देखा कि भील अब भी वहीं खड़े मुस्कुरा रहा है।
भील की शक्ति देख कर अर्जुन को अत्यन्त आश्चर्य हुआ और उन्होंने भील को मारने की शक्ति प्राप्त करने के लिये शिव मूर्ति पर पुष्पमाला डाली। किन्तु अर्जुन ने देखा कि वह माला शिव मूर्ति पर पड़ने के स्थान पर भील के कण्ठ में चली गई।
इससे अर्जुन समझ गये कि भगवान शंकर ही भील का रूप धारण करके वहाँ उपस्थित हुये हैं। अर्जुन शंकर जी के चरणों में गिर पड़े।
भगवान शंकर ने अपना असली रूप धारण कर लिया और अर्जुन से कहा *हे अर्जुन! मैं तुम्हारी तपस्या और पराक्रम से अति प्रसन्न हूँ और तुम्हें पशुपत्यास्त्र प्रदान करता हूँ।” Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!
युधिष्ठर ने वेदव्यास जी से प्रार्थना करी की वो उन्हें अपना राज्य पुनः प्राप्त करने का कोई उपाय बताए। तब वेदव्यास जी ने कहा की पुनः अपना राज्य प्राप्त करने के लिए तुम्हे दिव्य अस्त्रों की आवश्यकता पड़ेगी क्योंकि कौरवो के पास भीष्म द्रोणाचार्य कृपाचार्य कर्ण जैसे महारथी है। अतः बिना दिव्य अस्त्र प्राप्त किये तुम उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते।
युधिष्ठर के यह पूँछने पर की वो देवताओं से यह दिव्य अस्त्र कैसे प्राप्त करे वेदव्यास जी ने कहा की आप सब में केवल अर्जुन ही देवताओं को प्रसन्न करके दिव्यास्त्र प्राप्त कर सकते है। अतः अर्जुन को देवताओं को तपस्या करके प्रसन्न करना चाहिए।
अर्जुन गए तपस्या करने वेदव्यास जी के ऐसे वचन सुनकर अर्जुन तपस्या करने के लिए आगे अकेले ही रवाना हो गए। अर्जुन उत्तराखंड के पर्वतों को पार करते हुये एक अपूर्व सुन्दर वन में जा पहुँचे। वहाँ के शान्त वातावरण में वे भगवान की शंकर की तपस्या करने लगे।
उनकी तपस्या की परीक्षा लेने के लिये भगवान शंकर एक भील का वेष धारण कर उस वन में आये। वहाँ पर आने पर भील रूपी शिव जी ने देखा कि एक दैत्य शूकर का रूप धारण कर तपस्यारत अर्जुन की घात में है।
शिव जी ने उस दैत्य पर अपना बाण छोड़ दिया। जिस समय शंकर भगवान ने दैत्य को देखकर बाण छोड़ा उसी समय अर्जुन की तपस्या टूटी और दैत्य पर उनकी दृष्टि पड़ी।
उन्होंने भी अपना गाण्डीव धनुष उठा कर उस पर बाण छोड़ दिया। शूकर को दोनों बाण एक साथ लगे और उसके प्राण निकल गये।शूकर के मर जाने पर भीलरूपी शिव जी और अर्जुन दोनों ही शूकर को अपने बाण से मरा होने का दावा करने लगे।
दोनों के मध्य विवाद बढ़ता गया और विवाद ने युद्ध का रूप धारण कर लिया। अर्जुन निरन्तर भील पर गाण्डीव से बाणों की वर्षा करते रहे किन्तु उनके बाण भील के शरीर से टकरा&टकरा कर टूटते रहे और भील शान्त खड़े हुये मुस्कुराता रहा।
अन्त में उनकी तरकश के सारे बाण समाप्त हो गये। इस पर अर्जुन ने भील पर अपनी तलवार से आक्रमण कर दिया। अर्जुन की तलवार भी भील के शरीर से टकरा कर दो टुकड़े हो गई।
अब अर्जुन क्रोधित होकर भील से मल्ल युद्ध करने लगे। मल्ल युद्ध में भी अर्जुन भील के प्रहार से मूर्छित हो गये।देवताओं ने दिए अर्जुन को दिव्यास्त्र थोड़ी देर पश्चात् जब अर्जुन की मूर्छा टूटी तो उन्होंने देखा कि भील अब भी वहीं खड़े मुस्कुरा रहा है।
भील की शक्ति देख कर अर्जुन को अत्यन्त आश्चर्य हुआ और उन्होंने भील को मारने की शक्ति प्राप्त करने के लिये शिव मूर्ति पर पुष्पमाला डाली। किन्तु अर्जुन ने देखा कि वह माला शिव मूर्ति पर पड़ने के स्थान पर भील के कण्ठ में चली गई।
इससे अर्जुन समझ गये कि भगवान शंकर ही भील का रूप धारण करके वहाँ उपस्थित हुये हैं। अर्जुन शंकर जी के चरणों में गिर पड़े।
भगवान शंकर ने अपना असली रूप धारण कर लिया और अर्जुन से कहा *हे अर्जुन! मैं तुम्हारी तपस्या और पराक्रम से अति प्रसन्न हूँ और तुम्हें पशुपत्यास्त्र प्रदान करता हूँ।” Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!
भगवान शंकर अर्जुन को पशुपत्यास्त्र प्रदान कर अन्तर्ध्यान हो गये। उसके पश्चात् वहाँ पर वरुण यम कुबेर गन्धर्व और इन्द्र अपने अपने वाहनों पर सवार हो कर आ गये। अर्जुन ने सभी देवताओं की विधिवत पूजा की।
यह देख कर यमराज ने कहा*अर्जुन! तुम नर के अवतार हो तथा श्री कृष्ण नारायण के अवतार हैं। तुम दोनों मिल कर अब पृथ्वी का भार हल्का करो।” इस प्रकार सभी देवताओं ने अर्जुन को आशीर्वाद और विभिन्न प्रकार के दिव्य एवं अलौकिक अस्त्रशस्त्र प्रदान कर अपनेअपने लोकों को चले गये।
अर्जुन पहुंचे स्वर्ग अर्जुन के पास से अपने लोक को वापस जाते समय देवराज इन्द्र ने कहा *हे अर्जुन! अभी तुम्हें देवताओं के अनेक कार्य सम्पन्न करने हैं। अतः तुमको लेने के लिये मेरा सारथि आयेगा।” इसलिये अर्जुन उसी वन में रह कर प्रतीक्षा करने लगे।
कुछ काल पश्चात् उन्हें लेने के लिये इन्द्र के सारथि मातलि वहाँ पहुँचे और अर्जुन को विमान में बिठाकर देवराज की नगरी अमरावती ले गये। इन्द्र के पास पहुँच कर अर्जुन ने उन्हें प्रणाम किया।
देवराज इन्द्र ने अर्जुन को आशीर्वाद देकर अपने निकट आसन प्रदान किया।अमरावती में रहकर अर्जुन ने देवताओं से प्राप्त हुये दिव्य और अलौकिक अस्त्र शस्त्रों की प्रयोग विधि सीखा और उन अस्त्र शस्त्रों को चलाने का अभ्यास करके उन पर महारत प्राप्त कर लिया।
फिर एक दिन इन्द्र अर्जुन से बोले *वत्स! तुम चित्रसेन नामक गन्धर्व से संगीत और नृत्य की कला सीख लो।” चित्रसेन ने इन्द्र का आदेश पाकर अर्जुन को संगीत और नृत्य की कला में निपुण कर दिया।
उर्वशी का अर्जुन को श्राप।
एक दिन जब चित्रसेन अर्जुन को संगीत और नृत्य की शिक्षा दे रहे थे। वहाँ पर इन्द्र की अप्सरा उर्वशी आई और अर्जुन पर मोहित हो गई। अवसर पाकर उर्वशी ने अर्जुन से कहा *हे अर्जुन! आपको देखकर मेरी कामवासना जागृत हो गई है। अतः आप कृपया मेरे साथ विहार करके मेरी कामवासना को शांत करें।”
उर्वशी के वचन सुनकर अर्जुन बोले *हे देवि! हमारे पूर्वज ने आपसे विवाह करके हमारे वंश का गौरव बढ़ाया था अतः पुरु वंश की जननी होने के नाते आप हमारी माता के तुल्य हैं।
देवि! मैं आपको प्रणाम करता हूँ।” अर्जुन की बातों से उर्वशी के मन में बड़ा क्षोभ उत्पन्न हुआ और उसने अर्जुन से कहा *तुमने नपुंसकों जैसे वचन कहे हैं। अतः मैं तुम्हें शाप देती हूँ कि तुम एक वर्ष तक पुंसत्वहीन रहोगे।
” इतना कहकर उर्वशी वहाँ से चली गई।जब इन्द्र को इस घटना के विषय में ज्ञात हुआ तो वे अर्जुन से बोले *वत्स! तुमने जो व्यवहार किया है वह तुम्हारे योग्य ही था। उर्वशी का यह शाप भी भगवान की इच्छा थी।यह शाप तुम्हारे अज्ञातवास के समय काम आयेगा। अपने एक वर्ष के अज्ञातवास के समय ही तुम पुंसत्वहीन रहोगे और अज्ञातवास पूर्ण होने पर तुम्हें पुनः पुंसत्व की प्राप्ति हो जायेगी।
”अर्जुन बने बृहन्नला इस शाप के कारण ही अर्जुन एक वर्ष के अज्ञात वास के दौरान बृहन्नला बने थे। इस बृहन्नला के रूप में अर्जुन ने उत्तरा को एक वर्ष नृत्य सिखाया था। उत्तरा विराट नगर के राजा विराट की पुत्री थी। अज्ञातवास के बाद उत्तरा का विवाह अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु से हुआ था।
यह देख कर यमराज ने कहा*अर्जुन! तुम नर के अवतार हो तथा श्री कृष्ण नारायण के अवतार हैं। तुम दोनों मिल कर अब पृथ्वी का भार हल्का करो।” इस प्रकार सभी देवताओं ने अर्जुन को आशीर्वाद और विभिन्न प्रकार के दिव्य एवं अलौकिक अस्त्रशस्त्र प्रदान कर अपनेअपने लोकों को चले गये।
अर्जुन पहुंचे स्वर्ग अर्जुन के पास से अपने लोक को वापस जाते समय देवराज इन्द्र ने कहा *हे अर्जुन! अभी तुम्हें देवताओं के अनेक कार्य सम्पन्न करने हैं। अतः तुमको लेने के लिये मेरा सारथि आयेगा।” इसलिये अर्जुन उसी वन में रह कर प्रतीक्षा करने लगे।
कुछ काल पश्चात् उन्हें लेने के लिये इन्द्र के सारथि मातलि वहाँ पहुँचे और अर्जुन को विमान में बिठाकर देवराज की नगरी अमरावती ले गये। इन्द्र के पास पहुँच कर अर्जुन ने उन्हें प्रणाम किया।
देवराज इन्द्र ने अर्जुन को आशीर्वाद देकर अपने निकट आसन प्रदान किया।अमरावती में रहकर अर्जुन ने देवताओं से प्राप्त हुये दिव्य और अलौकिक अस्त्र शस्त्रों की प्रयोग विधि सीखा और उन अस्त्र शस्त्रों को चलाने का अभ्यास करके उन पर महारत प्राप्त कर लिया।
फिर एक दिन इन्द्र अर्जुन से बोले *वत्स! तुम चित्रसेन नामक गन्धर्व से संगीत और नृत्य की कला सीख लो।” चित्रसेन ने इन्द्र का आदेश पाकर अर्जुन को संगीत और नृत्य की कला में निपुण कर दिया।
उर्वशी का अर्जुन को श्राप।
एक दिन जब चित्रसेन अर्जुन को संगीत और नृत्य की शिक्षा दे रहे थे। वहाँ पर इन्द्र की अप्सरा उर्वशी आई और अर्जुन पर मोहित हो गई। अवसर पाकर उर्वशी ने अर्जुन से कहा *हे अर्जुन! आपको देखकर मेरी कामवासना जागृत हो गई है। अतः आप कृपया मेरे साथ विहार करके मेरी कामवासना को शांत करें।”
उर्वशी के वचन सुनकर अर्जुन बोले *हे देवि! हमारे पूर्वज ने आपसे विवाह करके हमारे वंश का गौरव बढ़ाया था अतः पुरु वंश की जननी होने के नाते आप हमारी माता के तुल्य हैं।
देवि! मैं आपको प्रणाम करता हूँ।” अर्जुन की बातों से उर्वशी के मन में बड़ा क्षोभ उत्पन्न हुआ और उसने अर्जुन से कहा *तुमने नपुंसकों जैसे वचन कहे हैं। अतः मैं तुम्हें शाप देती हूँ कि तुम एक वर्ष तक पुंसत्वहीन रहोगे।
” इतना कहकर उर्वशी वहाँ से चली गई।जब इन्द्र को इस घटना के विषय में ज्ञात हुआ तो वे अर्जुन से बोले *वत्स! तुमने जो व्यवहार किया है वह तुम्हारे योग्य ही था। उर्वशी का यह शाप भी भगवान की इच्छा थी।यह शाप तुम्हारे अज्ञातवास के समय काम आयेगा। अपने एक वर्ष के अज्ञातवास के समय ही तुम पुंसत्वहीन रहोगे और अज्ञातवास पूर्ण होने पर तुम्हें पुनः पुंसत्व की प्राप्ति हो जायेगी।
”अर्जुन बने बृहन्नला इस शाप के कारण ही अर्जुन एक वर्ष के अज्ञात वास के दौरान बृहन्नला बने थे। इस बृहन्नला के रूप में अर्जुन ने उत्तरा को एक वर्ष नृत्य सिखाया था। उत्तरा विराट नगर के राजा विराट की पुत्री थी। अज्ञातवास के बाद उत्तरा का विवाह अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु से हुआ था।
You can share your thoughts with my own thoughts I will be glad to learn something from you
you can contact me
162 replies on “उर्वशी ने क्यों दिया अर्जुन को नपुंसक होने का श्राप ? ?”
I like this blog site. Thank you!
Thanks for sharing this great post without questions is very useful
Thanks for building this great page without questions is very good
Thanks for sharing this great content without doubts is very informative
This website is mostly a walk-by means of for all the information you wanted about this and didn’t know who to ask. Glimpse here, and you’ll positively discover it.