‘योग’ शब्द ‘युज समाधौ’ आत्मनेपदी दिवादिगणीय धातु में ‘घं’ प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है। इस प्रकार ‘योग’ शब्द का अर्थ हुआ- समाधि अर्थात् चित्त वृत्तियों का निरोध। वैसे ‘योग’ शब्द ‘युजिर योग’ तथा ‘युज संयमने’ धातु से भी निष्पन्न होता है किन्तु तब इस स्थिति में योग शब्द का अर्थ क्रमशः योगफल, जोड़ तथा नियमन होगा। आगे योग में हम देखेंगे कि आत्मा और परमात्मा के विषय में भी योग कहा गया है।
गीता में श्रीकृष्ण ने एक स्थल पर कहा है ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ ( कर्मों में कुशलता ही योग है।) यह वाक्य योग की परिभाषा नहीं है। कुछ विद्वानों का यह मत है कि जीवात्मा और परमात्मा के मिल जाने को योग कहते हैं। इस बात को स्वीकार करने में यह बड़ी आपत्ति खड़ी होती है कि बौद्धमतावलंबी भी, जो परमात्मा की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, योग शब्द का व्यवहार करते और योग का समर्थन करते हैं। यही बात सांख्यवादियों के लिए भी कही जा सकती है जो ईश्वर की सत्ता को असिद्ध मानते हैं। पंतजलि ने योगदर्शन में, जो परिभाषा दी है ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’, चित्त की वृत्तियों के निरोध का नाम योग है। इस वाक्य के दो अर्थ हो सकते हैं: चित्तवृत्तियों के निरोध की अवस्था का नाम योग है या इस अवस्था को लाने के उपाय को योग कहते हैं।
परंतु इस परिभाषा पर कई विद्वानों को आपत्ति है। उनका कहना है कि चित्तवृत्तियों के प्रवाह का ही नाम चित्त है। पूर्ण निरोध का अर्थ होगा चित्त के अस्तित्व का पूर्ण लोप, चित्ताश्रय समस्त स्मृतियों और संस्कारों का नि:शेष हो जाना। यदि ऐसा हो जाए तो फिर समाधि से उठना संभव नहीं होगा। क्योंकि उस अवस्था के सहारे के लिये कोई भी संस्कार बचा नहीं होगा, प्रारब्ध दग्ध हो गया होगा। निरोध यदि संभव हो तो श्रीकृष्ण के इस वाक्य का क्या अर्थ होगा? योगस्थ: कुरु कर्माणि, योग में स्थित होकर कर्म करो। विरुद्धावस्था में कर्म हो नहीं सकता और उस अवस्था में कोई संस्कार नहीं पड़ सकते, स्मृतियाँ नहीं बन सकतीं, जो समाधि से उठने के बाद कर्म करने में सहायक हों।
संक्षेप में आशय यह है कि योग के शास्त्रीय स्वरूप, उसके दार्शनिक आधार, को सम्यक् रूप से समझना बहुत सरल नहीं है। संसार को मिथ्या माननेवाला अद्वैतवादी भी निदिध्याह्न के नाम से उसका समर्थन करता है। अनीश्वरवादी सांख्य विद्वान भी उसका अनुमोदन करता है। बौद्ध ही नहीं, मुस्लिम सूफ़ी और ईसाई मिस्टिक भी किसी न किसी प्रकार अपने संप्रदाय की मान्यताओं और दार्शनिक सिद्धांतों के साथ उसका सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं।
इन विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं में किस प्रकार ऐसा समन्वय हो सकता है कि ऐसा धरातल मिल सके जिस पर योग की भित्ति खड़ी की जा सके, यह बड़ा रोचक प्रश्न है परंतु इसके विवेचन के लिये बहुत समय चाहिए। यहाँ उस प्रक्रिया पर थोड़ा सा विचार कर लेना आवश्यक है। थोड़े बहुत शब्दभेद से यह प्रक्रिया उन सभी समुदायों को मान्य है जो योग के अभ्यास का समर्थन करते हैं।
परिभाषा[संपादित करें]
(1) पातञ्जल योग दर्शन के अनुसार – योगश्चित्तवृत्त निरोधः (1/2) अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।
(2) सांख्य दर्शन के अनुसार – पुरुषप्रकृत्योर्वियोगेपि योगइत्यमिधीयते। अर्थात् पुरुष एवं प्रकृति के पार्थक्य को स्थापित कर पुरुष का स्व स्वरूप में अवस्थित होना ही योग है।
(3) विष्णुपुराण के अनुसार – योगः संयोग इत्युक्तः जीवात्म परमात्मने अर्थात् जीवात्मा तथा परमात्मा का पूर्णतया मिलन ही योग है।
(4) भगवद्गीता के अनुसार – सिद्धासिद्धयो समोभूत्वा समत्वं योग उच्चते (2/48) अर्थात् दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्दों में सर्वत्र समभाव रखना योग है।
(5) भगवद्गीता के अनुसार – तस्माद्दयोगाययुज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् अर्थात् कर्त्तव्य कर्म बन्धक न हो, इसलिए निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर कर्त्तव्य करने का कौशल योग है।
(6) आचार्य के अनुसार – मोक्खेण जोयणाओ सव्वो वि धम्म ववहारो जोगो मोक्ष से जोड़ने वाले सभी व्यवहार योग है।
(7) बौद्ध धर्म के अनुसार – कुशल चितैकग्गता योगः अर्थात् कुशल चित्त की एकाग्रता योग है।
you can contact me
367 replies on “Bhartiya Yoga”
wasben 00dffbbc3c https://coub.com/stories/4305291-download-online-player-suici-windows-zip-latest-free-nulled-32bit
otaimar 00dffbbc3c https://coub.com/stories/4255966-pc-au-cad-2009-nulled-utorrent-ultimate
reibern 219d99c93a https://coub.com/stories/4340313-looking-for-pc-utorrent-latest-license-zip-x32
yudlumi 219d99c93a https://coub.com/stories/4261684-au-sk-2015-windows-full-version-download-activation
geoeliz 219d99c93a https://coub.com/stories/4232039-oppo-clone-aa-flash-pc-utorrent-free-32bit-pro-registration-keygen