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कर्म की कहानी

Shri Ramchandra Sevadham Trust, Nawalgarh
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‌ एक ही घड़ी मुहूर्त में जन्म लेने पर भी सबके कर्म और भाग्य अलग अलग क्यों -एक प्रेरक कथा एक बार एक राजा ने विद्वान ज्योतिषियों और ज्योतिष प्रेमियों की सभा बुलाकर प्रश्न किया कि-“मेरी जन्म पत्रिका के अनुसार मेरा राजा बनने का योग था मैं राजा बना , किन्तु उसी घड़ी मुहूर्त में अनेक जातकों ने जन्म लिया होगा जो राजा नहीं बन सके क्यों ? इसका क्या कारण है ?
राजा के इस प्रश्न से सब निरुत्तर हो गये ..क्या जबाब दें कि एक ही घड़ी मुहूर्त में जन्म लेने पर भी सबके भाग्य अलग अलग क्यों हैं ?
सब सोच में पड़ गये कि अचानक एक वृद्ध खड़े हुये और बोले – महाराज की जय हो ! आपके प्रश्न का उत्तर यहां भला कौन दे सकता है ?आप यहाँ से कुछ दूर घने जंगल में यदि जाएँ तो वहां पर आपको एक महात्मा मिलेंगे उनसे आपको उत्तर मिल सकता है ।
राजा की जिज्ञासा बढ़ी और घोर जंगल में जाकर देखा कि एक महात्मा आग के ढेर के पास बैठ कर अंगार (गरमा गरम कोयला ) खाने में व्यस्त हैं , सहमे हुए राजा ने महात्मा से जैसे ही प्रश्न पूछा महात्मा ने क्रोधित होकर कहा “तेरे प्रश्न का उत्तर देने के लिए मेरे पास समय नहीं है ,मैं भूख से पीड़ित हूँ ।तेरे प्रश्न का उत्तर यहां से कुछ आगे पहाड़ियों के बीच एक और महात्मा हैं,वे दे सकते हैं ।”
राजा की जिज्ञासा और बढ़ गयी, पुनः अंधकार और पहाड़ी मार्ग पार कर बड़ी कठिनाइयों से राजा दूसरे महात्मा के पास पहुंचा किन्तु यह क्या महात्मा को देखकर राजा हक्का बक्का रह गया ,दृश्य ही कुछ ऐसा था, वे महात्मा अपना ही माँस चिमटे से नोच नोच कर खा रहे थे ।
राजा को देखते ही महात्मा ने भी डांटते हुए कहा ” मैं भूख से बेचैन हूँ मेरे पास इतना समय नहीं है , आगे जाओ पहाड़ियों के उस पार एक आदिवासी गाँव में एक बालक जन्म लेने वाला है ,जो कुछ ही देर तक जिन्दा रहेगा सूर्योदय से पूर्व वहाँ पहुँचो वह बालक तेरे प्रश्न का उत्तर का दे सकता है ”
सुन कर राजा बड़ा बेचैन हुआ, बड़ी अजब पहेली बन गया मेरा प्रश्न, उत्सुकता प्रबल थी। कुछ भी हो यहाँ तक पहुँच चुका हूँ ,वहाँ भी जाकर देखता हूँ ,क्या होता है ।
राजा पुनः कठिन मार्ग पार कर किसी तरह प्रातः होने तक उस गाँव में पहुंचा, गाँव में पता किया और उस दंपति के घर पहुंचकर सारी बात कही और शीघ्रता से बच्चा लाने को कहा जैसे ही बच्चा हुआ दम्पत्ति ने नाल सहित बालक राजा के सम्मुख उपस्थित किया ।
राजा को देखते ही बालक ने हँसते हुए कहा राजन् ! मेरे पास भी समय नहीं है ,किन्तु अपना उत्तर सुनो लो –तुम,मैं और दोनों महात्मा सात जन्म पहले के चारों भाई व राजकुमार थे । एक बार शिकार खेलते खेलते हम जंगल में भटक गए। तीन दिन तक भूखे प्यासे भटकते रहे ।
अचानक हम चारों भाइयों को आटे की एक पोटली मिली ।जैसे-तैसे हमने चार बाटी सेंकी और
अपनी अपनी बाटी लेकर खाने बैठे ही थे कि भूख प्यास से तड़पते हुए एक महात्मा वहां आ गये । अंगार खाने वाले भइया से उन्होंने कहा –
“बेटा ,मैं दस दिन से भूखा हूँ ,अपनी बाटी में से मुझे भी कुछ दे दो , मुझ पर दया करो ,जिससे मेरा भी जीवन बच जाय, इस घोर जंगल से पार निकलने की मुझमें भी कुछ सामर्थ्य आ जायेगी ।”
इतना सुनते ही भइया गुस्से से भड़क उठे और बोले “तुम्हें दे दूंगा तो मैं क्या आग खाऊंगा ? चलो भागो यहां से ….।
वे महात्मा जी फिर मांस खाने वाले भइया के निकट आये उनसे भी अपनी बात कही किन्तु उन भईया ने भी महात्मा से गुस्से में आकर कहा कि “बड़ी मुश्किल से प्राप्त ये बाटी तुम्हें दे दूंगा तो मैं क्या अपना मांस नोचकर खाऊंगा ? ”
भूख से लाचार वे महात्मा मेरे पास भी आये , मुझसे भी बाटी मांगी… तथा दया करने को कहा किन्तु मैंने भी भूख में धैर्य खोकर कह दिया कि ” चलो आगे बढ़ो मैं क्या भूखा मरुँ …?”।
बालक बोला “अंतिम आशा लिये वो महात्मा , हे राजन !आपके पास भी आये,दया की याचना की, सुनते ही आपने उनकी दशा पर दया करते हुये ख़ुशी से अपनी बाटी में से आधी बाटी आदर सहित उन महात्मा को दे दी ।
बाटी पाकर महात्मा बड़े खुश हुए और जाते हुए बोले “तुम्हारा भविष्य तुम्हारे कर्म और व्यवहार से फलेगा । ”
बालक ने कहा “इस प्रकार हे राजन ! उस घटना के आधार पर हम अपना भोग, भोग रहे हैं ,धरती पर एक समय में अनेकों फूल खिलते हैं,किन्तु सबके फल रूप, गुण,आकार-प्रकार,स्वाद में भिन्न होते हैं।”
इतना कहकर वह बालक मर गया । राजा अपने महल में पहुंचा और माना कि शास्त्र भी तीन प्रकार के हॆ-ज्योतिष शास्त्र, कर्तव्य शास्त्र और व्यवहार शास्त्र । एक ही मुहूर्त में अनेकों जातक जन्मते हैं किन्तु सब अपना किया, दिया, लिया ही पाते हैं । जैसा भोग भोगना होगा वैसे ही योग बनेंगे । जैसा योग होगा वैसा ही भोग भोगना पड़ेगा । यही है जीवन।
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कृष्णं वंदे जगद्गुरुं !!

Shri Ramchandra Sevadham Trust, Nawalgarh



अर्जुन ने कहा,
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्‌ ॥
कायरता रुप दोष से नष्ट हुए स्वभाव वाला और धर्म का निर्णय करने में “मोहित” चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ, जो निश्चित की हुई हितकर बात हो वह मुझे बतलाईए। मैं आपका शिष्य हूँ, आपकी शरण में आए हुए मुझ दास को उपदेश दीजिए।


(श्रीमद्भगवद्गीता; अध्याय – २, श्लोक – ७)
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
समस्त धर्मों (अधर्म सहित) को छोड़कर, सर्व कर्मों का संन्यास करके, मुझ एक की शरण में आ, अर्थात् मैं जो कि सबका आत्मा, समभाव से सर्व भूतों में स्थित, ईश्वर, अच्युत तथा गर्भ, जन्म, जरा और मरण से रहित हूँ, उस एक के इस प्रकार शरण हो। अभिप्राय यह है कि ‘मुझ परमेश्वर से अन्य कुछ है ही नहीं’ ऐसा निश्चय कर। तुझ इस प्रकार निश्चय वाले को मैं अपना स्वरुप प्रत्यक्ष कराके, समस्त धर्माधर्म बन्धनरुप पापों से मुक्त कर ‘मोक्ष’ दूँगा। इसलिए तू शोक न कर अर्थात् चिन्ता मत कर।
(श्रीमद्भगवद्गीता ; अध्याय – १८ , श्लोक – ६६)


गुरु कौन है ?
सत् बुद्धि से युक्त और गुणातीत (सत्व, रज और तम के परे) जो निरंतर भगवान् में मन वाले और जिन्होंने भगवान् में ही प्राणों को अर्पण कर दिया है। जिसके द्वारा चेतनतत्त्व सिद्ध है। अनन्यदर्शी (न अन्य) तथा जो अपने लिए योगक्षेम (अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति का नाम योग है और प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम क्षेम है) सम्बन्धी चेष्टा भी नहीं करते क्योंकि वे जीने और मरने में भी अपनी वासना नहीं रखते, केवल भगवान् ही जिनके अवलम्बन हैं तथा जो भगवान् के प्रभाव को जानते हुए तथा गुण और प्रभाव सहित भगवान् का कथन करते हुए ही निरंतर संतुष्ट रहते हैं और वासुदेव में ही निरंतर रमण करते हैं। जो संपूर्ण भक्ति और ज्ञान दोनों से युक्त हैं।
क्या आपने ऐसे “गुरु” का दर्शन किया है ?


शिष्य कौन है ?
जिज्ञासु। कैसी जिज्ञासा ? ब्रम्ह/परमात्मा/भगवान् की जिज्ञासा। जिज्ञासु – जैसे स्वामी विवेकानंद! क्या आपने ऐसे “जिज्ञासु” का दर्शन किया है ?
केवल एक, उपरोक्त गुरु और शिष्य मिलकर समग्र विश्व के सोच-विचार और रहन-सहन पर सकरात्मक प्रभाव डाल सकते हैं, यह श्री रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद ने सिद्ध किया है! वर्तमान में – अनेक तथाकथित धर्मगुरु और उन सभी के असंख्य तथाकथित शिष्य (Actually Sales Force) सभी मिलकर भी क्या, कैसा और कितना प्रभाव हमारे अपने ही देश की सभ्यता, संस्कृति, व्यवस्था, आदि पर डालने में समर्थ हैं – स्वयं विचार करें।
जिज्ञासु को गुरु का मिलना ‘भाग्य’ की बात है। अन्यथा, जिज्ञासु को गुरु की तलाश छोड़ कर आज ही स्वयं को भगवान् को सौंप देना चाहिए! जैसे अर्जुन स्वयं को शिष्य और भगवान् श्री कृष्ण को गुरु के रुप में स्वीकार करते हुए भगवान् के शरणागत हो गया। यह “सौभाग्य” की बात है। जैसा कि भगवान् स्पष्ट कह ही नहीं रहे, बल्कि ऐसा करने वाले को मोक्ष प्राप्ति का वचन भी दे रहे हैं। भगवान् की शरण ग्रहण करते ही जिज्ञासु की पदोन्नति हो जाती है और वह ‘अर्थार्थी’ हो जाता है।
“जिज्ञासु और भगवान्” के बीच गुरु रुपी आवरण होता है। जिसमें उलझ जाने का भय रहता ही है। वर्त्तमान में, एक घंटे के प्रवचन में, तथाकथित धर्म-गुरु लगभग आधे घंटे तो गुरु की महिमा और आवश्यकता बताने में ही व्यतीत कर देते हैं। इतना ही नहीं, जिस साध्य भगवान् के लिए आपने उस धर्म-गुरु का शरण लिया है वह आपसे अपनी ही पूजा कराने में तनिक भी संकोच नहीं करता है। इसी का नाम “गुरु-पूजा” है। भगवान् तो फिर दूर ही हो जाते हैं।
“अर्थार्थी और भगवान्” के बीच कोई आवरण नहीं होता है। भगवान् ही गुरु और भगवान् ही साध्य होते हैं! यहाँ उलझे तो क्या ? स्वयं भगवान् ही सारे उलझन सुलझाते हैं ! भगवान् स्पष्ट कह रहे हैं, समस्त धर्मों (अधर्म सहित) को छोड़कर, सर्व कर्मों का संन्यास करके, मुझ एक की शरण में आ, अर्थात् मैं जो कि सबका आत्मा, समभाव से सर्व भूतों में स्थित, ईश्वर, अच्युत तथा गर्भ, जन्म, जरा और मरण से रहित हूँ, उस एक के इस प्रकार शरण हो। अभिप्राय यह है कि ‘मुझ परमेश्वर से अन्य कुछ है ही नहीं’ ऐसा निश्चय कर। “मोक्ष” की प्राप्ति निश्चित है !!
जय श्री कृष्ण !!

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उर्वशी ने क्यों दिया अर्जुन को नपुंसक होने का श्राप ? ?

Shri Ramchandra Sevadham Trust, Nawalgarhवेदव्यास जी का परामर्श यह प्रसंग पांडवों के वनवास के समय का है। अपने वनवास के समय एक बार पांडव वेदव्यास जी के आश्रम में पहुंचे और उन्हें अपना दुःख बताया।
युधिष्ठर ने वेदव्यास जी से प्रार्थना करी की वो उन्हें अपना राज्य पुनः प्राप्त करने का कोई उपाय बताए। तब वेदव्यास जी ने कहा की पुनः अपना राज्य प्राप्त करने के लिए तुम्हे दिव्य अस्त्रों की आवश्यकता पड़ेगी क्योंकि कौरवो के पास भीष्म द्रोणाचार्य कृपाचार्य कर्ण जैसे महारथी है। अतः बिना दिव्य अस्त्र प्राप्त किये तुम उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते।
युधिष्ठर के यह पूँछने पर की वो देवताओं से यह दिव्य अस्त्र कैसे प्राप्त करे वेदव्यास जी ने कहा की आप सब में केवल अर्जुन ही देवताओं को प्रसन्न करके दिव्यास्त्र प्राप्त कर सकते है। अतः अर्जुन को देवताओं को तपस्या करके प्रसन्न करना चाहिए।
अर्जुन गए तपस्या करने वेदव्यास जी के ऐसे वचन सुनकर अर्जुन तपस्या करने के लिए आगे अकेले ही रवाना हो गए। अर्जुन उत्तराखंड के पर्वतों को पार करते हुये एक अपूर्व सुन्दर वन में जा पहुँचे। वहाँ के शान्त वातावरण में वे भगवान की शंकर की तपस्या करने लगे।
उनकी तपस्या की परीक्षा लेने के लिये भगवान शंकर एक भील का वेष धारण कर उस वन में आये। वहाँ पर आने पर भील रूपी शिव जी ने देखा कि एक दैत्य शूकर का रूप धारण कर तपस्यारत अर्जुन की घात में है।
शिव जी ने उस दैत्य पर अपना बाण छोड़ दिया। जिस समय शंकर भगवान ने दैत्य को देखकर बाण छोड़ा उसी समय अर्जुन की तपस्या टूटी और दैत्य पर उनकी दृष्टि पड़ी।
उन्होंने भी अपना गाण्डीव धनुष उठा कर उस पर बाण छोड़ दिया। शूकर को दोनों बाण एक साथ लगे और उसके प्राण निकल गये।शूकर के मर जाने पर भीलरूपी शिव जी और अर्जुन दोनों ही शूकर को अपने बाण से मरा होने का दावा करने लगे।
दोनों के मध्य विवाद बढ़ता गया और विवाद ने युद्ध का रूप धारण कर लिया। अर्जुन निरन्तर भील पर गाण्डीव से बाणों की वर्षा करते रहे किन्तु उनके बाण भील के शरीर से टकरा&टकरा कर टूटते रहे और भील शान्त खड़े हुये मुस्कुराता रहा।
अन्त में उनकी तरकश के सारे बाण समाप्त हो गये। इस पर अर्जुन ने भील पर अपनी तलवार से आक्रमण कर दिया। अर्जुन की तलवार भी भील के शरीर से टकरा कर दो टुकड़े हो गई।
अब अर्जुन क्रोधित होकर भील से मल्ल युद्ध करने लगे। मल्ल युद्ध में भी अर्जुन भील के प्रहार से मूर्छित हो गये।देवताओं ने दिए अर्जुन को दिव्यास्त्र थोड़ी देर पश्चात् जब अर्जुन की मूर्छा टूटी तो उन्होंने देखा कि भील अब भी वहीं खड़े मुस्कुरा रहा है।
भील की शक्ति देख कर अर्जुन को अत्यन्त आश्चर्य हुआ और उन्होंने भील को मारने की शक्ति प्राप्त करने के लिये शिव मूर्ति पर पुष्पमाला डाली। किन्तु अर्जुन ने देखा कि वह माला शिव मूर्ति पर पड़ने के स्थान पर भील के कण्ठ में चली गई।
इससे अर्जुन समझ गये कि भगवान शंकर ही भील का रूप धारण करके वहाँ उपस्थित हुये हैं। अर्जुन शंकर जी के चरणों में गिर पड़े।
भगवान शंकर ने अपना असली रूप धारण कर लिया और अर्जुन से कहा *हे अर्जुन! मैं तुम्हारी तपस्या और पराक्रम से अति प्रसन्न हूँ और तुम्हें पशुपत्यास्त्र प्रदान करता हूँ।”

भगवान शंकर अर्जुन को पशुपत्यास्त्र प्रदान कर अन्तर्ध्यान हो गये। उसके पश्चात् वहाँ पर वरुण यम कुबेर गन्धर्व और इन्द्र अपने अपने वाहनों पर सवार हो कर आ गये। अर्जुन ने सभी देवताओं की विधिवत पूजा की।
यह देख कर यमराज ने कहा*अर्जुन! तुम नर के अवतार हो तथा श्री कृष्ण नारायण के अवतार हैं। तुम दोनों मिल कर अब पृथ्वी का भार हल्का करो।” इस प्रकार सभी देवताओं ने अर्जुन को आशीर्वाद और विभिन्न प्रकार के दिव्य एवं अलौकिक अस्त्रशस्त्र प्रदान कर अपनेअपने लोकों को चले गये।
अर्जुन पहुंचे स्वर्ग अर्जुन के पास से अपने लोक को वापस जाते समय देवराज इन्द्र ने कहा *हे अर्जुन! अभी तुम्हें देवताओं के अनेक कार्य सम्पन्न करने हैं। अतः तुमको लेने के लिये मेरा सारथि आयेगा।” इसलिये अर्जुन उसी वन में रह कर प्रतीक्षा करने लगे।
कुछ काल पश्चात् उन्हें लेने के लिये इन्द्र के सारथि मातलि वहाँ पहुँचे और अर्जुन को विमान में बिठाकर देवराज की नगरी अमरावती ले गये। इन्द्र के पास पहुँच कर अर्जुन ने उन्हें प्रणाम किया।
देवराज इन्द्र ने अर्जुन को आशीर्वाद देकर अपने निकट आसन प्रदान किया।अमरावती में रहकर अर्जुन ने देवताओं से प्राप्त हुये दिव्य और अलौकिक अस्त्र शस्त्रों की प्रयोग विधि सीखा और उन अस्त्र शस्त्रों को चलाने का अभ्यास करके उन पर महारत प्राप्त कर लिया।
फिर एक दिन इन्द्र अर्जुन से बोले *वत्स! तुम चित्रसेन नामक गन्धर्व से संगीत और नृत्य की कला सीख लो।” चित्रसेन ने इन्द्र का आदेश पाकर अर्जुन को संगीत और नृत्य की कला में निपुण कर दिया।


उर्वशी का अर्जुन को श्राप।


एक दिन जब चित्रसेन अर्जुन को संगीत और नृत्य की शिक्षा दे रहे थे। वहाँ पर इन्द्र की अप्सरा उर्वशी आई और अर्जुन पर मोहित हो गई। अवसर पाकर उर्वशी ने अर्जुन से कहा *हे अर्जुन! आपको देखकर मेरी कामवासना जागृत हो गई है। अतः आप कृपया मेरे साथ विहार करके मेरी कामवासना को शांत करें।”
उर्वशी के वचन सुनकर अर्जुन बोले *हे देवि! हमारे पूर्वज ने आपसे विवाह करके हमारे वंश का गौरव बढ़ाया था अतः पुरु वंश की जननी होने के नाते आप हमारी माता के तुल्य हैं।
देवि! मैं आपको प्रणाम करता हूँ।” अर्जुन की बातों से उर्वशी के मन में बड़ा क्षोभ उत्पन्न हुआ और उसने अर्जुन से कहा *तुमने नपुंसकों जैसे वचन कहे हैं। अतः मैं तुम्हें शाप देती हूँ कि तुम एक वर्ष तक पुंसत्वहीन रहोगे।
” इतना कहकर उर्वशी वहाँ से चली गई।जब इन्द्र को इस घटना के विषय में ज्ञात हुआ तो वे अर्जुन से बोले *वत्स! तुमने जो व्यवहार किया है वह तुम्हारे योग्य ही था। उर्वशी का यह शाप भी भगवान की इच्छा थी।यह शाप तुम्हारे अज्ञातवास के समय काम आयेगा। अपने एक वर्ष के अज्ञातवास के समय ही तुम पुंसत्वहीन रहोगे और अज्ञातवास पूर्ण होने पर तुम्हें पुनः पुंसत्व की प्राप्ति हो जायेगी।
”अर्जुन बने बृहन्नला इस शाप के कारण ही अर्जुन एक वर्ष के अज्ञात वास के दौरान बृहन्नला बने थे। इस बृहन्नला के रूप में अर्जुन ने उत्तरा को एक वर्ष नृत्य सिखाया था। उत्तरा विराट नगर के राजा विराट की पुत्री थी। अज्ञातवास के बाद उत्तरा का विवाह अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु से हुआ था।
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हर हिंदू अपने बच्चों मे यह आदत डाले

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1. मंदिर लेकर जाइये |
2. तिलक लगाने की आदत डालें |
3. देवी देवताओं की कहानियां सुनायें |
4. संकट आये तो हनुमान चालीसा बोलें |
5. गलती होने पर हे राम बोलने की आदत डालें |
6. गायत्री मंत्र, हनुमान चालीसा व महामृत्युन्ज्य मंत्र आदि याद करायें |
7. अकबर, हुमांयू, सिकन्दर के बदले शिवाजी, महाराणा प्रताप जैसे शूरवीरों की कहानियां सुनायें |
8. घर मे छोटे बच्चों से जय श्री कृष्णा,जय श्री राम, जय माता दी कहिये, और उनसे भी जवाब मे राम राम बुलवाने की आदत डालिये |
अपने धर्म का ज्ञान हमको ही देना है |

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हिन्दू योद्धा राजा पोरस के हाथों धूल चाटा हुआ अलैक्जेंडर बन बैठा विश्व विजेता सिकंदर

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हिन्दू योद्धा राजा पोरस के हाथों धूल चाटा हुआ अलैक्जेंडर बन बैठा विश्व विजेता सिकंदर

जब पोरस ने सिकन्दर(Alexander) के सर से विश्व-विजेता बनने का भूत उतारा
जितना बड़ा अन्याय और धोखा इतिहासकारों ने महान पौरस के साथ किया है उतना बड़ा अन्याय इतिहास में शायद ही किसी के साथ हुआ होगा।एक महान नीतिज्ञ,दूरदर्शी,शक्तिशाली वीर विजयी राजा को निर्बल और पराजित राजा बना दिया गया
चूँकि सिकन्दर पूरे यूनान,ईरान,ईराक,बैक्ट्रिया आदि को जीतते हुए आ रहा था इसलिए भारत में उसके पराजय और अपमान को यूनानी इतिहासकार सह नहीं सके और अपने आपको दिलासा देने के लिए अपनी एक मन-गढंत कहानी बनाकर उस इतिहास को लिख दिए जो वो लिखना चाह रहे थे या कहें कि जिसकी वो आशा लगाए बैठे थे..यह ठीक वैसा ही है जैसा कि हम जब कोई बहुत सुखद स्वप्न देखते हैं और वो स्वप्न पूरा होने के पहले ही हमारी नींद टूट जाती है तो हम फिर से सोने की कोशिश करते हैं और उस स्वप्न में जाकर उस कहानी को पूरा करने की कोशिश करते हैं जो अधूरा रह गया था.. आलसीपन तो भारतीयों में इस तरह हावी है कि भारतीय इतिहासकारों ने भी बिना सोचे-समझे उसी यूनानी इतिहास को लिख दिया…
कुछ हिम्मत ग्रीक के फिल्म-निर्माता ओलिवर स्टोन ने दिखाई है जो उन्होंने कुछ हद तक सिकन्दर की हार को स्वीकार किया है..फिल्म में दिखाया गया है कि एक तीर सिकन्दर का सीना भेद देती है और इससे पहले कि वो शत्रु के हत्थे चढ़ता उससे पहले उसके सहयोगी उसे ले भागते हैं.इस फिल्म में ये भी कहा गया है कि ये उसके जीवन की सबसे भयानक त्रासदी थी और भारतीयों ने उसे तथा उसकी सेना को पीछे लौटने के लिए विवश कर दिया..चूँकि उस फिल्म का नायक सिकन्दर है इसलिए उसकी इतनी सी भी हार दिखाई गई है तो ये बहुत है,नहीं तो इससे ज्यादा सच दिखाने पर लोग उस फिल्म को ही पसन्द नहीं करते..वैसे कोई भी फिल्मकार अपने नायक की हार को नहीं दिखाता है
अब देखिए कि भारतीय बच्चे क्या पढ़ते हैं इतिहास में–“सिकन्दर ने पौरस को बंदी बना लिया था उसके बाद जब सिकन्दर ने उससे पूछा कि उसके साथ कैसा व्यवहार किया जाय तो पौरस ने कहा कि उसके साथ वही किया जाय जो एक राजा के साथ किया जाता है अर्थात मृत्यु-दण्ड..सिकन्दर इस बात से इतना अधिक प्रभावित हो गया कि उसने वो कार्य कर दिया जो अपने जीवन भर में उसने कभी नहीं किए थे..उसने अपने जीवन के एक मात्र ध्येय,अपना सबसे बड़ा सपना विश्व-विजेता बनने का सपना तोड़ दिया और पौरस को पुरस्कार-स्वरुप अपने जीते हुए कुछ राज्य तथा धन-सम्पत्ति प्रदान किए..तथा वापस लौटने का निश्चय किया और लौटने के क्रम में ही उसकी मृत्यु हो गई..”
ये कितना बड़ा तमाचा है उन भारतीय इतिहासकारों के मुँह पर कि खुद विदेशी ही ऐसी फिल्म बनाकर सिकंदर की हार को स्वीकार कर रहे रहे हैं और हम अपने ही वीरों का इस तरह अपमान कर रहे हैं 
मुझे तो लगता है कि ये भारतीयों का विशाल हृदयतावश उनका त्याग था जो अपनी इतनी बड़ी विजय गाथा यूनानियों के नाम कर दी..भारत दयालु और त्यागी है यह बात तो जग-जाहिर है और इस बात का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है..?क्या ये भारतीय इतिहासकारों की दयालुता की परिसीमा नहीं है..? वैसे भी रखा ही क्या था इस विजय-गाथा में; भारत तो ऐसी कितनी ही बड़ी-बड़ी लड़ाईयाँ जीत चुका है कितने ही अभिमानियों का सर झुका चुका है फिर उन सब विजय गाथाओं के सामने इस विजय-गाथा की क्या औकात…..है ना..?? उस समय भारत में पौरस जैसे कितने ही राजा रोज जन्मते थे और मरते थे तो ऐसे में सबका कितना हिसाब-किताब रखा जाय;वो तो पौरस का सौभाग्य था जो उसका नाम सिकन्दर के साथ जुड़ गया और वो भी इतिहास के पन्नों में अंकित हो गया(भले ही हारे हुए राजा के रुप में ही सही) नहीं तो इतिहास पौरस को जानती भी नहीं..
इतिहास सिकन्दर को विश्व-विजेता घोषित करती है पर अगर सिकन्दर ने पौरस को हरा भी दिया था तो भी वो विश्व-विजेता कैसे बन गया..? पौरस तो बस एक राज्य का राजा था..भारत में उस तरक के अनेक राज्य थे तो पौरस पर सिकन्दर की विजय भारत की विजय तो नहीं कही जा सकती और भारत तो दूर चीन,जापान जैसे एशियाई देश भी तो जीतना बाँकी ही था फिर वो विश्व-विजेता कहलाने का अधिकारी कैसे हो गया…?
जाने दीजिए….भारत में तो ऐसे अनेक राजा हुए जिन्होंने पूरे विश्व को जीतकर राजसूय यज्य करवाया था पर बेचारे यूनान के पास तो एक ही घिसा-पिटा योद्धा कुछ हद तक है ऐसा जिसे विश्व-विजेता कहा जा सकता है….तो.! ठीक है भाई यूनान वालों,संतोष कर लो उसे विश्वविजेता कहकर…!
महत्त्वपूर्ण बात ये कि सिकन्दर को सिर्फ विश्वविजेता ही नहीं बल्कि महान की उपाधि भी प्रदान की गई है और ये बताया जाता है कि सिकन्दर बहुत बड़ा हृदय वाला दयालु राजा था ताकि उसे महान घोषित किया जा सके क्योंकि सिर्फ लड़ कर लाखों लोगों का खून बहाकर एक विश्व-विजेता को महान की उपाधि नहीं दी सकती ना ; उसके अंदर मानवता के गुण भी होने चाहिए.इसलिए ये भी घोषित कर दिया गया कि सिकन्दर विशाल हृदय वाला एक महान व्यक्ति था..पर उसे महान घोषित करने के पीछे एक बहुत बड़ा उद्देश्य छुपा हुआ है और वो उद्देश्य है सिकन्दर की पौरस पर विजय को सिद्ध करना…क्योंकि यहाँ पर सिकन्दर की पौरस पर विजय को तभी सिद्ध किया जा सकता है जब यह सिद्ध हो जाय कि सिकन्दर बड़ा हृदय वाला महान व्यक्ति था..
अरे अगर सिकन्दर बड़ा हृदय वाला व्यक्ति होता तो उसे धन की लालच ना होती जो उसे भारत तक ले आई थी और ना ही धन के लिए इतने लोगों का खून बहाया होता उसने..इस बात को उस फिल्म में भी दिखाया गया है कि सिकन्दर को भारत के धन(सोने,हीरे-मोतियों) से लोभ था.. यहाँ ये बात सोचने वाली है कि जो व्यक्ति धन के लिए इतनी दूर इतना कठिन रास्ता तय करके भारत आ जाएगा वो पौरस की वीरता से खुश होकर पौरस को जीवन-दान भले ही दे देगा और ज्यादा से ज्यादा उसकी मूल-भूमि भले ही उसे सौंप देगा पर अपना जीता हुआ प्रदेश पौरस को क्यों सौंपेगा..और यहाँ पर यूनानी इतिहासकारों की झूठ देखिए कैसे पकड़ा जाती है..एक तरफ तो पौरस पर विजय सिद्ध करने के लिए ये कह दिया उन्होंने कि सिकन्दर ने पौरस को उसका तथा अपना जीता हुआ प्रदेश दे दिया दूसरी तरफ फिर सिकन्दर के दक्षिण दिशा में जाने का ये कारण देते हैं कि और अधिक धन लूटने तथा और अधिक प्रदेश जीतने के लिए सिकन्दर दक्षिण की दिशा में गया…बताइए कि कितना बड़ा कुतर्क है ये….! सच्चाई ये थी कि पौरस ने उसे उत्तरी मार्ग से जाने की अनुमति ही नहीं दी थी..ये पौरस की दूरदर्शिता थी क्योंकि पौरस को शक था कि ये उत्तर से जाने पर अपनी शक्ति फिर से इकट्ठा करके फिर से हमला कर सकता है जैसा कि बाद में मुस्लिम शासकों ने किया भी..पौरस को पता था कि दक्षिण की खूँखार जाति सिकन्दर को छोड़ेगी नहीं और सच में ऐसा हुआ भी…उस फिल्म में भी दिखाया गया है कि सिकन्दर की सेना भारत की खूँखार जन-जाति से डरती है ..अब बताइए कि जो पहले ही डर रहा हो वो अपने जीते हुए प्रदेश यनि उत्तर की तरफ से वापस जाने के बजाय मौत के मुँह में यनि दक्षिण की तरफ से क्यों लौटेगा तथा जो व्यक्ति और ज्यादा प्रदेश जीतने के लिए उस खूँखार जनजाति से भिड़ जाएगा वो अपना पहले का जीता हुआ प्रदेश एक पराजित योद्धा को क्यों सौंपेगा….? और खूँखार जनजाति के पास कौन सा धन मिलने वाला था उसे…..?
अब देखिए कि सच्चाई क्या है….
जब सिकन्दर ने सिन्धु नदी पार किया तो भारत में उत्तरी क्षेत्र में तीन राज्य थे-झेलम नदी के चारों ओर राजा अम्भि का शासन था जिसकी राजधानी तक्षशिला थी..पौरस का राज्य चेनाब नदी से लगे हुए क्षेत्रों पर था.तीसरा राज्य अभिसार था जो कश्मीरी क्षेत्र में था.अम्भि का पौरस से पुराना बैर था इसलिए सिकन्दर के आगमण से अम्भि खुश हो गया और अपनी शत्रुता निकालने का उपयुक्त अवसर समझा..अभिसार के लोग तटस्थ रह गए..इस तरह पौरस ने अकेले ही सिकन्दर तथा अम्भि की मिली-जुली सेना का सामना किया..”प्लूटार्च” के अनुसार सिकन्दर की बीस हजार पैदल सैनिक तथा पन्द्रह हजार अश्व सैनिक पौरस की युद्ध क्षेत्र में एकत्र की गई सेना से बहुत ही अधिक थी..सिकन्दर की सहायता फारसी सैनिकों ने भी की थी..कहा जाता है कि इस युद्ध के शुरु होते ही पौरस ने महाविनाश का आदेश दे दिया उसके बाद पौरस के सैनिकों ने तथा हाथियों ने जो विनाश मचाना शुरु किया कि सिकन्दर तथा उसके सैनिकों के सर पर चढ़े विश्वविजेता के भूत को उतार कर रख दिया..पोरस के हाथियों द्वारा यूनानी सैनिकों में उत्पन्न आतंक का वर्णन कर्टियस ने इस तरह से किया है–इनकी तुर्यवादक ध्वनि से होने वाली भीषण चीत्कार न केवल घोड़ों को भयातुर कर देती थी जिससे वे बिगड़कर भाग उठते थे अपितु घुड़सवारों के हृदय भी दहला देती थी..इन पशुओं ने ऐसी भगदड़ मचायी कि अनेक विजयों के ये शिरोमणि अब ऐसे स्थानों की खोज में लग गए जहाँ इनको शरण मिल सके.उन पशुओं ने कईयों को अपने पैरों तले रौंद डाला और सबसे हृदयविदारक दृश्य वो होता था जब ये स्थूल-चर्म पशु अपनी सूँड़ से यूनानी सैनिक को पकड़ लेता था,उसको अपने उपर वायु-मण्डल में हिलाता था और उस सैनिक को अपने आरोही के हाथों सौंप देता था जो तुरन्त उसका सर धड़ से अलग कर देता था.इन पशुओं ने घोर आतंक उत्पन्न कर दिया था 
इसी तरह का वर्णन “डियोडरस” ने भी किया है –विशाल हाथियों में अपार बल था और वे अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हुए..उन्होंने अपने पैरों तले बहुत सारे सैनिकों की हड्डियाँ-पसलियाँ चूर-चूर कर दी.हाथी इन सैनिकों को अपनी सूँड़ों से पकड़ लेते थे और जमीन पर जोर से पटक देते थे..अपने विकराल गज-दन्तों से सैनिकों को गोद-गोद कर मार डालते थे…
इन पशुओं का आतंक उस फिल्म में भी दिखाया गया है..
अब विचार करिए कि डियोडरस का ये कहना कि उन हाथियों में अपार बल था और वे अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हुए ये क्या सिद्ध करता है..फिर “कर्टियस” का ये कहना कि इन पशुओं ने आतंक मचा दिया था ये क्या सिद्ध करता है…?
अफसोस की ही बात है कि इस तरह के वर्णन होते हुए भी लोग यह दावा करते हैं कि पौरस को पकड़ लिया गया और उसके सेना को शस्त्र त्याग करने पड़े…
एक और विद्वान ई.ए. डब्ल्यू. बैज का वर्णन देखिए-उनके अनुसार झेलम के युद्ध में सिकन्दर की अश्व-सेना का अधिकांश भाग मारा गया था.सिकन्दर ने अनुभव कर लिया कि यदि अब लड़ाई जारी रखूँगा तो पूर्ण रुप से अपना नाश कर लूँगा.अतः सिकन्दर ने पोरस से शांति की प्रार्थना की -“श्रीमान पोरस मैंने आपकी वीरता और सामर्थ्य स्वीकार कर ली है..मैं नहीं चाहता कि मेरे सारे सैनिक अकाल ही काल के गाल में समा जाय.मैं इनका अपराधी हूँ,….और भारतीय परम्परा के अनुसार ही पोरस ने शरणागत शत्रु का वध नहीं किया.—-ये बातें किसी भारतीय द्वारा नहीं बल्कि एक विदेशी द्वारा कही गई है..
और इसके बाद भी अगर कोई ना माने तो फिर हम कैसे मानें कि पोरस के सिर को डेरियस के सिर की ही भांति काट लाने का शपथ लेकर युद्ध में उतरे सिकन्दर ने न केवल पोरस को जीवन-दान दिया बल्कि अपना राज्य भी दिया…
सिकन्दर अपना राज्य उसे क्या देगा वो तो पोरस को भारत के जीते हुए प्रदेश उसे लौटाने के लिए विवश था जो छोटे-मोटे प्रदेश उसने पोरस से युद्ध से पहले जीते थे…(या पता नहीं जीते भी थे या ये भी यूनानियों द्वारा गढ़ी कहानियाँ हैं)
इसके बाद सिकन्दर को पोरस ने उत्तर मार्ग से जाने की अनुमति नहीं दी.विवश होकर सिकन्दर को उस खूँखार जन-जाति के कबीले वाले रास्ते से जाना पड़ा जिससे होकर जाते-जाते सिकन्दर इतना घायल हो गया कि अंत में उसे प्राण ही त्यागने पड़े..इस विषय पर “प्लूटार्च” ने लिखा है कि मलावी नामक भारतीय जनजाति बहुत खूँखार थी..इनके हाथों सिकन्दर के टुकड़े-टुकड़े होने वाले थे लेकिन तब तक प्यूसेस्तस और लिम्नेयस आगे आ गए.इसमें से एक तो मार ही डाला गया और दूसरा गम्भीर रुप से घायल हो गया…तब तक सिकन्दर के अंगरक्षक उसे सुरक्षित स्थान पर लेते गए..
स्पष्ट है कि पोरस के साथ युद्ध में तो इनलोगों का मनोबल टूट ही चुका था रहा सहा कसर इन जनजातियों ने पूरी कर दी थी..अब इनलोगों के अंदर ये तो मनोबल नहीं ही बचा था कि किसी से युद्ध करे पर इतना भी मनोबल शेष ना रह गया था कि ये समुद्र मार्ग से लौटें…क्योंकि स्थल मार्ग के खतरे को देखते हुए सिकन्दर ने समुद्र मार्ग से जाने का सोचा और उसके अनुसंधान कार्य के लिए एक सैनिक टुकड़ी भेज भी दी पर उनलोगों में इतना भी उत्साह शेष ना रह गया था फलतः वे बलुचिस्तान के रास्ते ही वापस लौटे….
अब उसके महानता के बारे में भी कुछ विद्वानों के वर्णन देखिए…
एरियन के अनुसार जब बैक्ट्रिया के बसूस को बंदी बनाकर सिकन्दर के सम्मुख लाया गया तब सिकन्दर ने अपने सेवकों से उसको कोड़े लगवाए तथा उसके नाक और कान काट कटवा दिए गए.बाद में बसूस को मरवा ही दिया गया.सिकन्दर ने कई फारसी सेनाध्यक्षों को नृशंसतापूर्वक मरवा दिया था.फारसी राजचिह्नों को धारण करने पर सिकन्दर की आलोचना करने के लिए उसने अपने ही गुरु अरस्तु के भतीजे कालस्थनीज को मरवा डालने में कोई संकोच नहीं किया.क्रोधावस्था में अपने ही मित्र क्लाइटस को मार डाला.उसके पिता का विश्वासपात्र सहायक परमेनियन भी सिकन्दर के द्वारा मारा गया था..जहाँ पर भी सिकन्दर की सेना गई उसने समस्त नगरों को आग लगा दी,महिलाओं का अपहरण किया और बच्चों को भी तलवार की धार पर सूत दिया..ईरान की दो शाहजादियों को सिकन्दर ने अपने ही घर में डाल रखा था.उसके सेनापति जहाँ-कहीं भी गए अनेक महिलाओं को बल-पूर्वक रखैल बनाकर रख लिए…
तो ये थी सिकन्दर की महानता….इसके अलावे इसके पिता फिलिप की हत्या का भी शक इतिहास ने इसी पर किया है कि इसने अपनी माता के साथ मिलकर फिलिप की हत्या करवाई क्योंकि फिलिप ने दूसरी शादी कर ली थी और सिकन्दर के सिंहासन पर बैठने का अवसर खत्म होता दिख रहा था..इस बात में किसी को संशय नहीं कि सिकन्दर की माता फिलिप से नफरत करती थी..दोनों के बीच सम्बन्ध इतने कटु थे कि दोनों अलग होकर जीवन बीता रहे थे इसके बाद इसने अपने सौतेले भाई को भी मार डाला ताकि सिंहासन का और कोई उत्तराधिकारी ना रहे…
तो ये थी सिकन्दर की महानता और वीरता….
इसकी महानता का एक और उदाहरण देखिए-जब इसने पोरस के राज्य पर आक्रमण किया तो पोरस ने सिकन्दर को अकेले-अकेले यनि द्वंद्व युद्ध का निमंत्रण भेजा ताकि अनावश्यक नरसंहार ना हो और द्वंद्व युद्ध के जरिए ही निर्णय हो जाय पर इस वीरतापूर्ण निमंत्रण को सिकन्दर ने स्वीकार नहीं किया…ये किमवदन्ती बनकर अब तक भारत में विद्यमान है.इसके लिए मैं प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं समझता हूँ..
अब निर्णय करिए कि पोरस तथा सिकन्दर में विश्व-विजेता कौन था..? दोनों में वीर कौन था..?दोनों में महान कौन था..?
यूनान वाले सिकन्दर की जितनी भी विजय गाथा दुनिया को सुना ले सच्चाई यही है कि ना तो सिकन्दर विश्वविजेता था ना ही वीर(पोरस के सामने) ना ही महान(ये तो कभी वो था ही नहीं)….
जिस पोरस ने सिकन्दर जो लगभग पूरा विश्व को जीतता हुआ आ रहा था जिसके पास उतनी बड़ी विशाल सेना थी जिसका प्रत्यक्ष सहयोग अम्भि ने किया था उस सिकन्दर के अभिमान को अकेले ही चकना-चूरित कर दिया,उसके मद को झाड़कर उसके सर से विश्व-विजेता बनने का भूत उतार दिया उस पोरस को क्या इतिहास ने उचित स्थान दिया है ?
भारतीय इतिहासकारों ने तो पोरस को इतिहास में स्थान देने योग्य समझा ही नहीं है.इतिहास में एक-दो जगह इसका नाम आ भी गया तो बस सिकन्दर के सामने बंदी बनाए गए एक निर्बल निरीह राजा के रुप में..नेट पर भी पोरस के बारे में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध नहीं है…..
आज आवश्यकता है कि नेताओं को धन जमा करने से अगर अवकाश मिल जाय तो वे इतिहास को फिर से जाँचने-परखने का कार्य करवाएँ ताकि सच्चाई सामने आ सके और भारतीय वीरों को उसका उचित सम्मान मिल सके..मैं नहीं मानता कि जो राष्ट्र वीरों का इस तरह अपमान करेगा वो राष्ट्र ज्यादा दिन तक टिक पाएगा…मानते हैं कि ये सब घटनाएँ बहुत पुरानी हैं इसके बाद भारत पर हुए अनेक हमले के कारण भारत का अपना इतिहास तो विलुप्त हो गया और उसके बाद मुसलमान शासकों ने अपनी झूठी-प्रशंसा सुनकर आनन्द प्राप्त करने में पूरी इतिहास लिखवाकर खत्म कर दी और जब देश आजाद हुआ भी तो कांग्रेसियों ने इतिहास लेखन का काम धूर्त्त अंग्रेजों को सौंप दिया ताकि वो भारतीयों को गुलम बनाए रखने का काम जारी रखे और अंग्रेजों ने इतिहास के नाम पर काल्पनिक कहानियों का पुलिंदा बाँध दिया ताकि भारतीय हमेशा यही समझते रहें कि उनके पूर्वज निरीह थे तथा विदेशी बहुत ही शक्तिशाली ताकि भारतीय हमेशा मानसिक गुलाम बने रहें विदेशियों का,पर अब तो कुछ करना होगा ना ?
इस लेख से एक और बात सिद्ध होती है कि जब भारत का एक छोटा सा राज्य अगर अकेले ही सिकन्दर को धूल चटा सकता है तो अगर भारत मिलकर रहता और आपस में ना लड़ता रहता तो किसी मुगलों या अंग्रेजों में इतनी शक्ति नहीं थी कि वो भारत का बाल भी बाँका कर पाता.कम से कम अगर भारतीय दुश्मनों का साथ ना देते तो भी उनमें इतनी शक्ति नहीं थी कि वो भारत पर शासन कर पाते.भारत पर विदेशियों ने शासन किया है तो सिर्फ यहाँ की आपसी दुश्मनी के कारण..
भारत में अनेक वीर पैदा हो गए थे एक ही साथ और यही भारत की बर्बादी का कारण बन गया क्योंकि सब शेर आपस में ही लड़ने लगे महाभारत काल में इतने सारे महारथी,महावीर पैदा हो गए थे तो महाभारत का विध्वंशक युद्ध हुआ और आपस में ही लड़ मरने के कारण भारत तथा भारतीय संस्कृति का विनाश हो गया उसके बाद कलयुग में भी वही हुआ जब भी किसी जगह वीरों की संख्या ज्यादा हो जाएगी तो उस जगह की रचना होने के बजाय विध्वंश हो जाएगा…
पर आज जरुरत है भारतीय शेरों को एक होने की क्योंकि अभी भारत में शेरों की बहुत ही कमी है और जरुरत है भारत की पुनर्रचना करने की….
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भगवान दत्तात्रेय के 24 गुरुओ की एक ज्ञानवर्धक प्रस्तुति।

Shri Ramchandra Sevadham Trust, Nawalgarh

भगवान दत्तात्रेय के 24 गुरुओ की एक ज्ञानवर्धक प्रस्तुति।

1_पृथ्वी-
सहनशीलता व परोपकार की भावना सीख सकते हैं। पृथ्वी पर लोग कई प्रकार के आघात करते हैं, कई प्रकार के उत्पात होते हैं, कई प्रकार खनन कार्य होते हैं, लेकिन पृथ्वी हर आघात को परोपकार का भावना से सहन करती है।
2_पिंगला वेश्या-
पिंगला नाम की वेश्या से दत्तात्रेय ने सबक लिया कि केवल पैसों के लिए जीना नहीं चाहिए। वह वेश्या सिर्फ पैसा पाने के लिए किसी भी पुरुष की ओर इसी नजर से देखती थी वह धनी है और उससे धन प्राप्त होगा। धन की कामना में वह सो नहीं पाती थी। जब एक दिन पिंगला वेश्या के मन में वैराग्य जागा तब उसे समझ आया कि पैसों में नहीं बल्कि परमात्मा के ध्यान में ही असली सुख है, तब उसे सुख की नींद आई।
3_कबूतर-
कबूतर का जोड़ा जाल में फंसे बच्चों को देखकर खुद भी जाल में जा फंसता है। इनसे यह सबक लिया जा सकता है कि किसी से बहुत ज्यादा स्नेह दु:ख ही वजह होता है।
4_सूर्य-
सूर्य से दत्तात्रेय ने सीखा कि जिस तरह एक ही होने पर भी सूर्य अलग-अलग माध्यमों से अलग-अलग दिखाई देता है। आत्मा भी एक ही है, लेकिन कई रूपों में दिखाई देती है।
5_वायु-
जिस प्रकार अच्छी या बुरी जगह पर जाने के बाद वायु का मूल रूप स्वच्छता ही है। उसी तरह अच्छे या बुरे लोगों के साथ रहने पर भी हमें अपनी अच्छाइयों को छोडऩा नहीं चाहिए।
6_हिरण-
हिरण उछल-कूद, संगीत, मौज-मस्ती में इतना खो जाता है कि उसे अपने आसपास शेर या अन्य किसी हिसंक जानवर के होने का आभास ही नहीं होता है और वह मारा जाता है। इससे यह सीखा जा सकता है कि हमें कभी भी मौज-मस्ती में इतना लापरवाह नहीं होना चाहिए।
7_समुद्र-
जीवन के उतार-चढ़ाव में भी खुश और गतिशील रहना चाहिए।
8_पतंगा-
जिस प्रकार पतंगा आग की ओर आकर्षित होकर जल जाता है। उसी प्रकार रूप-रंग के आकर्षण और झूठे मोह में उलझना नहीं चाहिए।
9_हाथी-
हाथी हथिनी के संपर्क में आते ही उसके प्रति आसक्त हो जाता है। अत: हाथी से सीखा जा सकता है कि संयासी और तपस्वी पुरुष को स्त्री से बहुत दूर रहना चाहिए।
10_आकाश-
दत्तात्रेय ने आकाश से सीखा कि हर देश, काल, परिस्थिति में लगाव से दूर रहना चाहिए।
11_जल-
दत्तात्रेय ने जल से सीखा कि हमें सदैव पवित्र रहना चाहिए।
12_मधुमक्खी-
मधुमक्खियां शहद इकट्ठा करती है और एक दिन छत्ते से शहद निकालने वाला सारा शहद ले जाता है। इस बात से ये सीखा जा सकता है कि आवश्यकता से अधिक चीजों को एकत्र करके नहीं रखना चाहिए।
13_मछली-
हमें स्वाद का लोभी नहीं होना चाहिए। मछली किसी कांटे में फंसे मांस के टुकड़े को खाने के लिए चली जाती है और अंत में प्राण गंवा देती है। हमें स्वाद को इतना अधिक महत्व नहीं देना चाहिए, ऐसा ही भोजन करें जो सेहत के लिए अच्छा हो।
14_कुरर पक्षी-
कुरर पक्षी से सीखना चाहिए कि चीजों को पास में रखने की सोच छोड़ देना चाहिए। कुरर पक्षी मांस के टुकड़े को चोंच में दबाए रहता है, लेकिन उसे खाता है। जब दूसरे बलवान पक्षी उस मांस के टुकड़े को देखते हैं तो वे कुरर से उसे छिन लेते हैं। मांस का टुकड़ा छोड़ने के बाद ही कुरर को शांति मिलती है।
15_बालक-
छोटे बच्चे से सीखा कि हमेशा चिंतामुक्त और प्रसन्न रहना चाहिए।
16_आग-
आग से दत्तात्रेय ने सीखा कि कैसे भी हालात हों, हमें उन हालातों में ढल जाना चाहिए। जिस प्रकार आग अलग-अलग लकडिय़ों के बीच रहने के बाद भी एक जैसी ही नजर आती है।
17_चन्द्रमा-
आत्मा लाभ-हानि से परे है। वैसे ही जैसे घटने-बढऩे से भी चंद्रमा की चमक और शीतलता बदलती नहीं है, हमेशा एक-जैसे रहती है। आत्मा भी किसी भी प्रकार के लाभ-हानि से बदलती नहीं है।
18_कुमारी कन्या-
कुमारी कन्या से सीखना चाहिए कि अकेले रहकर भी काम करते रहना चाहिए और आगे बढ़ते रहना चाहिए। दत्तात्रेय ने एक कुमारी कन्या देखी जो धान कूट रही थी। धान कूटते समय उस कन्या की चूडिय़ां आवाज कर रही थी। बाहर मेहमान बैठे थे, जिन्हें चूडिय़ों की आवाज से परेशानी हो रही थी। तब उस कन्या ने चूडिय़ों आवाज बंद करने के लिए चूडिय़ां ही तोड़ दी। दोनों हाथों में बस एक-एक चूड़ी ही रहने दी। इसके बाद उस कन्या ने बिना शोर किए धान कूट लिया। अत: हमें ही एक चूड़ी की भांति अकेले ही रहना चाहिए।
19_शरकृत या तीर बनाने वाला-
अभ्यास और वैराग्य से मन को वश में करना चाहिए। दत्तात्रेय ने एक तीर बनाने वाला देखा जो तीर बनाने में इतना मग्न था कि उसके पास से राजा की सवारी निकल गई, पर उसका ध्यान भंग नहीं हुआ।
20_सांप-
दत्तात्रेय ने सांप से सीखा कि किसी भी संयासी को अकेले ही जीवन व्यतीत करना चाहिए। साथ ही, कभी भी एक स्थान पर रुककर नहीं रहना चाहिए। जगह-जगह ज्ञान बांटते रहना चाहिए।
21_मकड़ी-
मकड़ी से दत्तात्रेय ने सीखा कि भगवान भी माय जाल रचते हैं और उसे मिटा देते हैं। जिस प्रकार मकड़ी स्वयं जाल बनाती है, उसमें विचरण करती है और अंत में पूरे जाल को खुद ही निगल लेती है, ठीक इसी प्रकार भगवान भी माया से सृष्टि की रचना करते हैं और अंत में उसे समेट लेते हैं।
22_भृंगी कीड़ा-
इस कीड़े से दत्तात्रेय ने सीखा कि अच्छी हो या बुरी, जहां जैसी सोच में मन लगाएंगे मन वैसा ही हो जाता है।
23_भौंरा-
भौरें से दत्तात्रेय ने सीखा कि जहां भी सार्थक बात सीखने को मिले उसे ग्रहण कर लेना चाहिए। जिस प्रकार भौरें अलग-अलग फूलों से पराग ले लेती है।
24_अजगर-
अजगर से सीखा कि हमें जीवन में संतोषी बनना चाहिए। जो मिल जाए, उसे ही खुशी-खुशी स्वीकार कर लेना चाहिए।
जय श्री राम
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रामसेवा ट्रस्ट के आगे के कार्यक्रम

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नवलगढ़ – रामसेवा ट्रस्ट इस वर्ष समाजसेवा में अपना अमूल्य योगदान देने में पीछे नहीं हटेगा 
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