Author: Shri Mukesh Dass
Since 1997, the National Bird Peacock Dana water is being provided by Shri Ramchandra Seva Dham Trust. The only trust of Nawalgarh is where the national bird is served and this is the most peacock found.
कर्म की कहानी
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एक ही घड़ी मुहूर्त में जन्म लेने पर भी सबके कर्म और भाग्य अलग अलग क्यों -एक प्रेरक कथा एक बार एक राजा ने विद्वान ज्योतिषियों और ज्योतिष प्रेमियों की सभा बुलाकर प्रश्न किया कि-“मेरी जन्म पत्रिका के अनुसार मेरा राजा बनने का योग था मैं राजा बना , किन्तु उसी घड़ी मुहूर्त में अनेक जातकों ने जन्म लिया होगा जो राजा नहीं बन सके क्यों ? इसका क्या कारण है ?
राजा के इस प्रश्न से सब निरुत्तर हो गये ..क्या जबाब दें कि एक ही घड़ी मुहूर्त में जन्म लेने पर भी सबके भाग्य अलग अलग क्यों हैं ?
सब सोच में पड़ गये कि अचानक एक वृद्ध खड़े हुये और बोले – महाराज की जय हो ! आपके प्रश्न का उत्तर यहां भला कौन दे सकता है ?आप यहाँ से कुछ दूर घने जंगल में यदि जाएँ तो वहां पर आपको एक महात्मा मिलेंगे उनसे आपको उत्तर मिल सकता है ।
राजा की जिज्ञासा बढ़ी और घोर जंगल में जाकर देखा कि एक महात्मा आग के ढेर के पास बैठ कर अंगार (गरमा गरम कोयला ) खाने में व्यस्त हैं , सहमे हुए राजा ने महात्मा से जैसे ही प्रश्न पूछा महात्मा ने क्रोधित होकर कहा “तेरे प्रश्न का उत्तर देने के लिए मेरे पास समय नहीं है ,मैं भूख से पीड़ित हूँ ।तेरे प्रश्न का उत्तर यहां से कुछ आगे पहाड़ियों के बीच एक और महात्मा हैं,वे दे सकते हैं ।”
राजा की जिज्ञासा और बढ़ गयी, पुनः अंधकार और पहाड़ी मार्ग पार कर बड़ी कठिनाइयों से राजा दूसरे महात्मा के पास पहुंचा किन्तु यह क्या महात्मा को देखकर राजा हक्का बक्का रह गया ,दृश्य ही कुछ ऐसा था, वे महात्मा अपना ही माँस चिमटे से नोच नोच कर खा रहे थे ।
राजा को देखते ही महात्मा ने भी डांटते हुए कहा ” मैं भूख से बेचैन हूँ मेरे पास इतना समय नहीं है , आगे जाओ पहाड़ियों के उस पार एक आदिवासी गाँव में एक बालक जन्म लेने वाला है ,जो कुछ ही देर तक जिन्दा रहेगा सूर्योदय से पूर्व वहाँ पहुँचो वह बालक तेरे प्रश्न का उत्तर का दे सकता है ”
सुन कर राजा बड़ा बेचैन हुआ, बड़ी अजब पहेली बन गया मेरा प्रश्न, उत्सुकता प्रबल थी। कुछ भी हो यहाँ तक पहुँच चुका हूँ ,वहाँ भी जाकर देखता हूँ ,क्या होता है ।
राजा पुनः कठिन मार्ग पार कर किसी तरह प्रातः होने तक उस गाँव में पहुंचा, गाँव में पता किया और उस दंपति के घर पहुंचकर सारी बात कही और शीघ्रता से बच्चा लाने को कहा जैसे ही बच्चा हुआ दम्पत्ति ने नाल सहित बालक राजा के सम्मुख उपस्थित किया ।
राजा को देखते ही बालक ने हँसते हुए कहा राजन् ! मेरे पास भी समय नहीं है ,किन्तु अपना उत्तर सुनो लो –तुम,मैं और दोनों महात्मा सात जन्म पहले के चारों भाई व राजकुमार थे । एक बार शिकार खेलते खेलते हम जंगल में भटक गए। तीन दिन तक भूखे प्यासे भटकते रहे ।
अचानक हम चारों भाइयों को आटे की एक पोटली मिली ।जैसे-तैसे हमने चार बाटी सेंकी और
अपनी अपनी बाटी लेकर खाने बैठे ही थे कि भूख प्यास से तड़पते हुए एक महात्मा वहां आ गये । अंगार खाने वाले भइया से उन्होंने कहा –
“बेटा ,मैं दस दिन से भूखा हूँ ,अपनी बाटी में से मुझे भी कुछ दे दो , मुझ पर दया करो ,जिससे मेरा भी जीवन बच जाय, इस घोर जंगल से पार निकलने की मुझमें भी कुछ सामर्थ्य आ जायेगी ।”
इतना सुनते ही भइया गुस्से से भड़क उठे और बोले “तुम्हें दे दूंगा तो मैं क्या आग खाऊंगा ? चलो भागो यहां से ….।
वे महात्मा जी फिर मांस खाने वाले भइया के निकट आये उनसे भी अपनी बात कही किन्तु उन भईया ने भी महात्मा से गुस्से में आकर कहा कि “बड़ी मुश्किल से प्राप्त ये बाटी तुम्हें दे दूंगा तो मैं क्या अपना मांस नोचकर खाऊंगा ? ”
भूख से लाचार वे महात्मा मेरे पास भी आये , मुझसे भी बाटी मांगी… तथा दया करने को कहा किन्तु मैंने भी भूख में धैर्य खोकर कह दिया कि ” चलो आगे बढ़ो मैं क्या भूखा मरुँ …?”।
बालक बोला “अंतिम आशा लिये वो महात्मा , हे राजन !आपके पास भी आये,दया की याचना की, सुनते ही आपने उनकी दशा पर दया करते हुये ख़ुशी से अपनी बाटी में से आधी बाटी आदर सहित उन महात्मा को दे दी ।
बाटी पाकर महात्मा बड़े खुश हुए और जाते हुए बोले “तुम्हारा भविष्य तुम्हारे कर्म और व्यवहार से फलेगा । ”
बालक ने कहा “इस प्रकार हे राजन ! उस घटना के आधार पर हम अपना भोग, भोग रहे हैं ,धरती पर एक समय में अनेकों फूल खिलते हैं,किन्तु सबके फल रूप, गुण,आकार-प्रकार,स्वाद में भिन्न होते हैं।”
इतना कहकर वह बालक मर गया । राजा अपने महल में पहुंचा और माना कि शास्त्र भी तीन प्रकार के हॆ-ज्योतिष शास्त्र, कर्तव्य शास्त्र और व्यवहार शास्त्र । एक ही मुहूर्त में अनेकों जातक जन्मते हैं किन्तु सब अपना किया, दिया, लिया ही पाते हैं । जैसा भोग भोगना होगा वैसे ही योग बनेंगे । जैसा योग होगा वैसा ही भोग भोगना पड़ेगा । यही है जीवन।
कृष्णं वंदे जगद्गुरुं !!
अर्जुन ने कहा,
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥
कायरता रुप दोष से नष्ट हुए स्वभाव वाला और धर्म का निर्णय करने में “मोहित” चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ, जो निश्चित की हुई हितकर बात हो वह मुझे बतलाईए। मैं आपका शिष्य हूँ, आपकी शरण में आए हुए मुझ दास को उपदेश दीजिए।
(श्रीमद्भगवद्गीता; अध्याय – २, श्लोक – ७)
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
समस्त धर्मों (अधर्म सहित) को छोड़कर, सर्व कर्मों का संन्यास करके, मुझ एक की शरण में आ, अर्थात् मैं जो कि सबका आत्मा, समभाव से सर्व भूतों में स्थित, ईश्वर, अच्युत तथा गर्भ, जन्म, जरा और मरण से रहित हूँ, उस एक के इस प्रकार शरण हो। अभिप्राय यह है कि ‘मुझ परमेश्वर से अन्य कुछ है ही नहीं’ ऐसा निश्चय कर। तुझ इस प्रकार निश्चय वाले को मैं अपना स्वरुप प्रत्यक्ष कराके, समस्त धर्माधर्म बन्धनरुप पापों से मुक्त कर ‘मोक्ष’ दूँगा। इसलिए तू शोक न कर अर्थात् चिन्ता मत कर।
(श्रीमद्भगवद्गीता ; अध्याय – १८ , श्लोक – ६६)
गुरु कौन है ?
सत् बुद्धि से युक्त और गुणातीत (सत्व, रज और तम के परे) जो निरंतर भगवान् में मन वाले और जिन्होंने भगवान् में ही प्राणों को अर्पण कर दिया है। जिसके द्वारा चेतनतत्त्व सिद्ध है। अनन्यदर्शी (न अन्य) तथा जो अपने लिए योगक्षेम (अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति का नाम योग है और प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम क्षेम है) सम्बन्धी चेष्टा भी नहीं करते क्योंकि वे जीने और मरने में भी अपनी वासना नहीं रखते, केवल भगवान् ही जिनके अवलम्बन हैं तथा जो भगवान् के प्रभाव को जानते हुए तथा गुण और प्रभाव सहित भगवान् का कथन करते हुए ही निरंतर संतुष्ट रहते हैं और वासुदेव में ही निरंतर रमण करते हैं। जो संपूर्ण भक्ति और ज्ञान दोनों से युक्त हैं।
क्या आपने ऐसे “गुरु” का दर्शन किया है ?
शिष्य कौन है ?
जिज्ञासु। कैसी जिज्ञासा ? ब्रम्ह/परमात्मा/भगवान् की जिज्ञासा। जिज्ञासु – जैसे स्वामी विवेकानंद! क्या आपने ऐसे “जिज्ञासु” का दर्शन किया है ?
केवल एक, उपरोक्त गुरु और शिष्य मिलकर समग्र विश्व के सोच-विचार और रहन-सहन पर सकरात्मक प्रभाव डाल सकते हैं, यह श्री रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद ने सिद्ध किया है! वर्तमान में – अनेक तथाकथित धर्मगुरु और उन सभी के असंख्य तथाकथित शिष्य (Actually Sales Force) सभी मिलकर भी क्या, कैसा और कितना प्रभाव हमारे अपने ही देश की सभ्यता, संस्कृति, व्यवस्था, आदि पर डालने में समर्थ हैं – स्वयं विचार करें।
जिज्ञासु को गुरु का मिलना ‘भाग्य’ की बात है। अन्यथा, जिज्ञासु को गुरु की तलाश छोड़ कर आज ही स्वयं को भगवान् को सौंप देना चाहिए! जैसे अर्जुन स्वयं को शिष्य और भगवान् श्री कृष्ण को गुरु के रुप में स्वीकार करते हुए भगवान् के शरणागत हो गया। यह “सौभाग्य” की बात है। जैसा कि भगवान् स्पष्ट कह ही नहीं रहे, बल्कि ऐसा करने वाले को मोक्ष प्राप्ति का वचन भी दे रहे हैं। भगवान् की शरण ग्रहण करते ही जिज्ञासु की पदोन्नति हो जाती है और वह ‘अर्थार्थी’ हो जाता है।
“जिज्ञासु और भगवान्” के बीच गुरु रुपी आवरण होता है। जिसमें उलझ जाने का भय रहता ही है। वर्त्तमान में, एक घंटे के प्रवचन में, तथाकथित धर्म-गुरु लगभग आधे घंटे तो गुरु की महिमा और आवश्यकता बताने में ही व्यतीत कर देते हैं। इतना ही नहीं, जिस साध्य भगवान् के लिए आपने उस धर्म-गुरु का शरण लिया है वह आपसे अपनी ही पूजा कराने में तनिक भी संकोच नहीं करता है। इसी का नाम “गुरु-पूजा” है। भगवान् तो फिर दूर ही हो जाते हैं।
“अर्थार्थी और भगवान्” के बीच कोई आवरण नहीं होता है। भगवान् ही गुरु और भगवान् ही साध्य होते हैं! यहाँ उलझे तो क्या ? स्वयं भगवान् ही सारे उलझन सुलझाते हैं ! भगवान् स्पष्ट कह रहे हैं, समस्त धर्मों (अधर्म सहित) को छोड़कर, सर्व कर्मों का संन्यास करके, मुझ एक की शरण में आ, अर्थात् मैं जो कि सबका आत्मा, समभाव से सर्व भूतों में स्थित, ईश्वर, अच्युत तथा गर्भ, जन्म, जरा और मरण से रहित हूँ, उस एक के इस प्रकार शरण हो। अभिप्राय यह है कि ‘मुझ परमेश्वर से अन्य कुछ है ही नहीं’ ऐसा निश्चय कर। “मोक्ष” की प्राप्ति निश्चित है !!
जय श्री कृष्ण !!
युधिष्ठर ने वेदव्यास जी से प्रार्थना करी की वो उन्हें अपना राज्य पुनः प्राप्त करने का कोई उपाय बताए। तब वेदव्यास जी ने कहा की पुनः अपना राज्य प्राप्त करने के लिए तुम्हे दिव्य अस्त्रों की आवश्यकता पड़ेगी क्योंकि कौरवो के पास भीष्म द्रोणाचार्य कृपाचार्य कर्ण जैसे महारथी है। अतः बिना दिव्य अस्त्र प्राप्त किये तुम उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते।
युधिष्ठर के यह पूँछने पर की वो देवताओं से यह दिव्य अस्त्र कैसे प्राप्त करे वेदव्यास जी ने कहा की आप सब में केवल अर्जुन ही देवताओं को प्रसन्न करके दिव्यास्त्र प्राप्त कर सकते है। अतः अर्जुन को देवताओं को तपस्या करके प्रसन्न करना चाहिए।
अर्जुन गए तपस्या करने वेदव्यास जी के ऐसे वचन सुनकर अर्जुन तपस्या करने के लिए आगे अकेले ही रवाना हो गए। अर्जुन उत्तराखंड के पर्वतों को पार करते हुये एक अपूर्व सुन्दर वन में जा पहुँचे। वहाँ के शान्त वातावरण में वे भगवान की शंकर की तपस्या करने लगे।
उनकी तपस्या की परीक्षा लेने के लिये भगवान शंकर एक भील का वेष धारण कर उस वन में आये। वहाँ पर आने पर भील रूपी शिव जी ने देखा कि एक दैत्य शूकर का रूप धारण कर तपस्यारत अर्जुन की घात में है।
शिव जी ने उस दैत्य पर अपना बाण छोड़ दिया। जिस समय शंकर भगवान ने दैत्य को देखकर बाण छोड़ा उसी समय अर्जुन की तपस्या टूटी और दैत्य पर उनकी दृष्टि पड़ी।
उन्होंने भी अपना गाण्डीव धनुष उठा कर उस पर बाण छोड़ दिया। शूकर को दोनों बाण एक साथ लगे और उसके प्राण निकल गये।शूकर के मर जाने पर भीलरूपी शिव जी और अर्जुन दोनों ही शूकर को अपने बाण से मरा होने का दावा करने लगे।
दोनों के मध्य विवाद बढ़ता गया और विवाद ने युद्ध का रूप धारण कर लिया। अर्जुन निरन्तर भील पर गाण्डीव से बाणों की वर्षा करते रहे किन्तु उनके बाण भील के शरीर से टकरा&टकरा कर टूटते रहे और भील शान्त खड़े हुये मुस्कुराता रहा।
अन्त में उनकी तरकश के सारे बाण समाप्त हो गये। इस पर अर्जुन ने भील पर अपनी तलवार से आक्रमण कर दिया। अर्जुन की तलवार भी भील के शरीर से टकरा कर दो टुकड़े हो गई।
अब अर्जुन क्रोधित होकर भील से मल्ल युद्ध करने लगे। मल्ल युद्ध में भी अर्जुन भील के प्रहार से मूर्छित हो गये।देवताओं ने दिए अर्जुन को दिव्यास्त्र थोड़ी देर पश्चात् जब अर्जुन की मूर्छा टूटी तो उन्होंने देखा कि भील अब भी वहीं खड़े मुस्कुरा रहा है।
भील की शक्ति देख कर अर्जुन को अत्यन्त आश्चर्य हुआ और उन्होंने भील को मारने की शक्ति प्राप्त करने के लिये शिव मूर्ति पर पुष्पमाला डाली। किन्तु अर्जुन ने देखा कि वह माला शिव मूर्ति पर पड़ने के स्थान पर भील के कण्ठ में चली गई।
इससे अर्जुन समझ गये कि भगवान शंकर ही भील का रूप धारण करके वहाँ उपस्थित हुये हैं। अर्जुन शंकर जी के चरणों में गिर पड़े।
भगवान शंकर ने अपना असली रूप धारण कर लिया और अर्जुन से कहा *हे अर्जुन! मैं तुम्हारी तपस्या और पराक्रम से अति प्रसन्न हूँ और तुम्हें पशुपत्यास्त्र प्रदान करता हूँ।”
यह देख कर यमराज ने कहा*अर्जुन! तुम नर के अवतार हो तथा श्री कृष्ण नारायण के अवतार हैं। तुम दोनों मिल कर अब पृथ्वी का भार हल्का करो।” इस प्रकार सभी देवताओं ने अर्जुन को आशीर्वाद और विभिन्न प्रकार के दिव्य एवं अलौकिक अस्त्रशस्त्र प्रदान कर अपनेअपने लोकों को चले गये।
अर्जुन पहुंचे स्वर्ग अर्जुन के पास से अपने लोक को वापस जाते समय देवराज इन्द्र ने कहा *हे अर्जुन! अभी तुम्हें देवताओं के अनेक कार्य सम्पन्न करने हैं। अतः तुमको लेने के लिये मेरा सारथि आयेगा।” इसलिये अर्जुन उसी वन में रह कर प्रतीक्षा करने लगे।
कुछ काल पश्चात् उन्हें लेने के लिये इन्द्र के सारथि मातलि वहाँ पहुँचे और अर्जुन को विमान में बिठाकर देवराज की नगरी अमरावती ले गये। इन्द्र के पास पहुँच कर अर्जुन ने उन्हें प्रणाम किया।
देवराज इन्द्र ने अर्जुन को आशीर्वाद देकर अपने निकट आसन प्रदान किया।अमरावती में रहकर अर्जुन ने देवताओं से प्राप्त हुये दिव्य और अलौकिक अस्त्र शस्त्रों की प्रयोग विधि सीखा और उन अस्त्र शस्त्रों को चलाने का अभ्यास करके उन पर महारत प्राप्त कर लिया।
फिर एक दिन इन्द्र अर्जुन से बोले *वत्स! तुम चित्रसेन नामक गन्धर्व से संगीत और नृत्य की कला सीख लो।” चित्रसेन ने इन्द्र का आदेश पाकर अर्जुन को संगीत और नृत्य की कला में निपुण कर दिया।
उर्वशी का अर्जुन को श्राप।
एक दिन जब चित्रसेन अर्जुन को संगीत और नृत्य की शिक्षा दे रहे थे। वहाँ पर इन्द्र की अप्सरा उर्वशी आई और अर्जुन पर मोहित हो गई। अवसर पाकर उर्वशी ने अर्जुन से कहा *हे अर्जुन! आपको देखकर मेरी कामवासना जागृत हो गई है। अतः आप कृपया मेरे साथ विहार करके मेरी कामवासना को शांत करें।”
उर्वशी के वचन सुनकर अर्जुन बोले *हे देवि! हमारे पूर्वज ने आपसे विवाह करके हमारे वंश का गौरव बढ़ाया था अतः पुरु वंश की जननी होने के नाते आप हमारी माता के तुल्य हैं।
देवि! मैं आपको प्रणाम करता हूँ।” अर्जुन की बातों से उर्वशी के मन में बड़ा क्षोभ उत्पन्न हुआ और उसने अर्जुन से कहा *तुमने नपुंसकों जैसे वचन कहे हैं। अतः मैं तुम्हें शाप देती हूँ कि तुम एक वर्ष तक पुंसत्वहीन रहोगे।
” इतना कहकर उर्वशी वहाँ से चली गई।जब इन्द्र को इस घटना के विषय में ज्ञात हुआ तो वे अर्जुन से बोले *वत्स! तुमने जो व्यवहार किया है वह तुम्हारे योग्य ही था। उर्वशी का यह शाप भी भगवान की इच्छा थी।यह शाप तुम्हारे अज्ञातवास के समय काम आयेगा। अपने एक वर्ष के अज्ञातवास के समय ही तुम पुंसत्वहीन रहोगे और अज्ञातवास पूर्ण होने पर तुम्हें पुनः पुंसत्व की प्राप्ति हो जायेगी।
”अर्जुन बने बृहन्नला इस शाप के कारण ही अर्जुन एक वर्ष के अज्ञात वास के दौरान बृहन्नला बने थे। इस बृहन्नला के रूप में अर्जुन ने उत्तरा को एक वर्ष नृत्य सिखाया था। उत्तरा विराट नगर के राजा विराट की पुत्री थी। अज्ञातवास के बाद उत्तरा का विवाह अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु से हुआ था।
हर हिंदू अपने बच्चों मे यह आदत डाले
1. मंदिर लेकर जाइये |
2. तिलक लगाने की आदत डालें |
3. देवी देवताओं की कहानियां सुनायें |
4. संकट आये तो हनुमान चालीसा बोलें |
5. गलती होने पर हे राम बोलने की आदत डालें |
6. गायत्री मंत्र, हनुमान चालीसा व महामृत्युन्ज्य मंत्र आदि याद करायें |
7. अकबर, हुमांयू, सिकन्दर के बदले शिवाजी, महाराणा प्रताप जैसे शूरवीरों की कहानियां सुनायें |
8. घर मे छोटे बच्चों से जय श्री कृष्णा,जय श्री राम, जय माता दी कहिये, और उनसे भी जवाब मे राम राम बुलवाने की आदत डालिये |
अपने धर्म का ज्ञान हमको ही देना है |
हिन्दू योद्धा राजा पोरस के हाथों धूल चाटा हुआ अलैक्जेंडर बन बैठा विश्व विजेता सिकंदर
Shri Ramchandra Sevadham Trust, Nawalgarh

भगवान दत्तात्रेय के 24 गुरुओ की एक ज्ञानवर्धक प्रस्तुति।
सहनशीलता व परोपकार की भावना सीख सकते हैं। पृथ्वी पर लोग कई प्रकार के आघात करते हैं, कई प्रकार के उत्पात होते हैं, कई प्रकार खनन कार्य होते हैं, लेकिन पृथ्वी हर आघात को परोपकार का भावना से सहन करती है।
2_पिंगला वेश्या-
पिंगला नाम की वेश्या से दत्तात्रेय ने सबक लिया कि केवल पैसों के लिए जीना नहीं चाहिए। वह वेश्या सिर्फ पैसा पाने के लिए किसी भी पुरुष की ओर इसी नजर से देखती थी वह धनी है और उससे धन प्राप्त होगा। धन की कामना में वह सो नहीं पाती थी। जब एक दिन पिंगला वेश्या के मन में वैराग्य जागा तब उसे समझ आया कि पैसों में नहीं बल्कि परमात्मा के ध्यान में ही असली सुख है, तब उसे सुख की नींद आई।
3_कबूतर-
कबूतर का जोड़ा जाल में फंसे बच्चों को देखकर खुद भी जाल में जा फंसता है। इनसे यह सबक लिया जा सकता है कि किसी से बहुत ज्यादा स्नेह दु:ख ही वजह होता है।
4_सूर्य-
सूर्य से दत्तात्रेय ने सीखा कि जिस तरह एक ही होने पर भी सूर्य अलग-अलग माध्यमों से अलग-अलग दिखाई देता है। आत्मा भी एक ही है, लेकिन कई रूपों में दिखाई देती है।
5_वायु-
जिस प्रकार अच्छी या बुरी जगह पर जाने के बाद वायु का मूल रूप स्वच्छता ही है। उसी तरह अच्छे या बुरे लोगों के साथ रहने पर भी हमें अपनी अच्छाइयों को छोडऩा नहीं चाहिए।
6_हिरण-
हिरण उछल-कूद, संगीत, मौज-मस्ती में इतना खो जाता है कि उसे अपने आसपास शेर या अन्य किसी हिसंक जानवर के होने का आभास ही नहीं होता है और वह मारा जाता है। इससे यह सीखा जा सकता है कि हमें कभी भी मौज-मस्ती में इतना लापरवाह नहीं होना चाहिए।
7_समुद्र-
जीवन के उतार-चढ़ाव में भी खुश और गतिशील रहना चाहिए।
8_पतंगा-
जिस प्रकार पतंगा आग की ओर आकर्षित होकर जल जाता है। उसी प्रकार रूप-रंग के आकर्षण और झूठे मोह में उलझना नहीं चाहिए।
9_हाथी-
हाथी हथिनी के संपर्क में आते ही उसके प्रति आसक्त हो जाता है। अत: हाथी से सीखा जा सकता है कि संयासी और तपस्वी पुरुष को स्त्री से बहुत दूर रहना चाहिए।
10_आकाश-
दत्तात्रेय ने आकाश से सीखा कि हर देश, काल, परिस्थिति में लगाव से दूर रहना चाहिए।
11_जल-
दत्तात्रेय ने जल से सीखा कि हमें सदैव पवित्र रहना चाहिए।
12_मधुमक्खी-
मधुमक्खियां शहद इकट्ठा करती है और एक दिन छत्ते से शहद निकालने वाला सारा शहद ले जाता है। इस बात से ये सीखा जा सकता है कि आवश्यकता से अधिक चीजों को एकत्र करके नहीं रखना चाहिए।
13_मछली-
हमें स्वाद का लोभी नहीं होना चाहिए। मछली किसी कांटे में फंसे मांस के टुकड़े को खाने के लिए चली जाती है और अंत में प्राण गंवा देती है। हमें स्वाद को इतना अधिक महत्व नहीं देना चाहिए, ऐसा ही भोजन करें जो सेहत के लिए अच्छा हो।
14_कुरर पक्षी-
कुरर पक्षी से सीखना चाहिए कि चीजों को पास में रखने की सोच छोड़ देना चाहिए। कुरर पक्षी मांस के टुकड़े को चोंच में दबाए रहता है, लेकिन उसे खाता है। जब दूसरे बलवान पक्षी उस मांस के टुकड़े को देखते हैं तो वे कुरर से उसे छिन लेते हैं। मांस का टुकड़ा छोड़ने के बाद ही कुरर को शांति मिलती है।
15_बालक-
छोटे बच्चे से सीखा कि हमेशा चिंतामुक्त और प्रसन्न रहना चाहिए।
16_आग-
आग से दत्तात्रेय ने सीखा कि कैसे भी हालात हों, हमें उन हालातों में ढल जाना चाहिए। जिस प्रकार आग अलग-अलग लकडिय़ों के बीच रहने के बाद भी एक जैसी ही नजर आती है।
17_चन्द्रमा-
आत्मा लाभ-हानि से परे है। वैसे ही जैसे घटने-बढऩे से भी चंद्रमा की चमक और शीतलता बदलती नहीं है, हमेशा एक-जैसे रहती है। आत्मा भी किसी भी प्रकार के लाभ-हानि से बदलती नहीं है।
18_कुमारी कन्या-
कुमारी कन्या से सीखना चाहिए कि अकेले रहकर भी काम करते रहना चाहिए और आगे बढ़ते रहना चाहिए। दत्तात्रेय ने एक कुमारी कन्या देखी जो धान कूट रही थी। धान कूटते समय उस कन्या की चूडिय़ां आवाज कर रही थी। बाहर मेहमान बैठे थे, जिन्हें चूडिय़ों की आवाज से परेशानी हो रही थी। तब उस कन्या ने चूडिय़ों आवाज बंद करने के लिए चूडिय़ां ही तोड़ दी। दोनों हाथों में बस एक-एक चूड़ी ही रहने दी। इसके बाद उस कन्या ने बिना शोर किए धान कूट लिया। अत: हमें ही एक चूड़ी की भांति अकेले ही रहना चाहिए।
19_शरकृत या तीर बनाने वाला-
अभ्यास और वैराग्य से मन को वश में करना चाहिए। दत्तात्रेय ने एक तीर बनाने वाला देखा जो तीर बनाने में इतना मग्न था कि उसके पास से राजा की सवारी निकल गई, पर उसका ध्यान भंग नहीं हुआ।
20_सांप-
दत्तात्रेय ने सांप से सीखा कि किसी भी संयासी को अकेले ही जीवन व्यतीत करना चाहिए। साथ ही, कभी भी एक स्थान पर रुककर नहीं रहना चाहिए। जगह-जगह ज्ञान बांटते रहना चाहिए।
21_मकड़ी-
मकड़ी से दत्तात्रेय ने सीखा कि भगवान भी माय जाल रचते हैं और उसे मिटा देते हैं। जिस प्रकार मकड़ी स्वयं जाल बनाती है, उसमें विचरण करती है और अंत में पूरे जाल को खुद ही निगल लेती है, ठीक इसी प्रकार भगवान भी माया से सृष्टि की रचना करते हैं और अंत में उसे समेट लेते हैं।
22_भृंगी कीड़ा-
इस कीड़े से दत्तात्रेय ने सीखा कि अच्छी हो या बुरी, जहां जैसी सोच में मन लगाएंगे मन वैसा ही हो जाता है।
23_भौंरा-
भौरें से दत्तात्रेय ने सीखा कि जहां भी सार्थक बात सीखने को मिले उसे ग्रहण कर लेना चाहिए। जिस प्रकार भौरें अलग-अलग फूलों से पराग ले लेती है।
24_अजगर-
अजगर से सीखा कि हमें जीवन में संतोषी बनना चाहिए। जो मिल जाए, उसे ही खुशी-खुशी स्वीकार कर लेना चाहिए।
जय श्री राम
रामसेवा ट्रस्ट के आगे के कार्यक्रम
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