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मृत्यु क्या है ?

मृत्यु क्या है ? – मृत्यु को जानना है तो पहले जीवन को जानियेमृत्यु क्या है? मृत्यु एक बड़ी रहस्यमय घटना है। क्या अपने मन की मदद से हम मौत को समझ सकते हैं? क्या हम अमरता तक पहुँच सकते हैं? क्या हम जीते हुए मृत्यु का अनुभव कर सकते हैं?

मृत्यु और मरना

मृत्यु एक बहुत मूल सवाल है। वास्तव में मृत्यु के जो आंकड़े हमें पता चलते हैं, उसकी तुलना में, मृत्यु हमारे ज्यादा पास है। हर एक पल में हम मर रहे हैं, अंगों और कोशिकाओं के स्तर पर। यही वजह है कि डॉक्टर आपके अंदर देख कर ही आपकी उम्र बता देता है। सही बात तो ये है कि हमारा जन्म होने से भी पहले हमारे अंदर मृत्यु की शुरुआत हो जाती है। अगर आप अज्ञानी और अनजान हैं, तो ही आपको ऐसा लगता है कि मृत्यु बाद में किसी दिन आयेगी। अगर आप जागरूक हैं तो आप देखेंगे कि जीवन और मृत्यु, दोनों ही, हर पल में हो रहे हैं। अगर आप बस इतना ही करें कि थोड़ी ज्यादा जागरूकता के साथ साँस लें तो आप देखेंगे कि हर ली हुई साँस जीवन है और छोड़ी हुई साँस मृत्यु है।
अगर आप बस इतना ही करें कि थोड़ी ज्यादा जागरूकता के साथ साँस लें तो आप देखेंगे कि हर ली हुई साँस जीवन है, और छोड़ी हुई साँस मृत्य है।
जन्म होने पर, पहला काम जो एक बच्चा करता है वो है साँस लेने का, हवा का दम लेने का। और, अपने जीवन का आखिरी काम जो आप करेंगे वो होगा साँस छोड़ने का। आप साँस छोड़ेंगे और फिर, अगर आप अगली साँस नहीं लेंगे तो आप मर जायेंगे। अगर ये बात आपको अभी समझ में नहीं आ रही है तो बस साँस छोड़िये और अपनी नाक को बंद कर लीजिये। कुछ ही सेकंड्स में आपके शरीर की हर कोशिका जीवन के लिये चीखना शुरू कर देगी। जीवन और मृत्यु हर समय हो रहे हैं। वे, बिना एक दूसरे से अलग हुए, एक साथ रहते हैं, एक साँस के जैसे। यहाँ तक कि उनका ये संबंध साँस से भी आगे जाता है, वो साँस से भी परे है। साँस तो बस एक सहायक भूमिका में है। वास्तविक काम तो जीवन ऊर्जा का है, जिसे हम प्राण कहते हैं और जो हमारे भौतिक अस्तित्व को काबू में रखती है। प्राण पर एक खास महारत हासिल कर के हम, काफी समय तक, साँस से परे जा कर भी जीवित रह सकते हैं। हालाँकि साँस की ज़रूरत शरीर को हर पल होती है, पर वैसे ही जैसे भोजन और पानी की है।

मृत्यु एक बहुत ही मूल पहलू है, क्योंकि अगर कोई छोटी सी बात भी हो जाती है तो हो सकता है कि कल सुबह तक आप न हों। और, कल सुबह क्यों? अभी ही, कुछ छोटी सी बात हो जाये तो अगले ही पल आप मर सकते हैं। अगर आप अन्य जीवों की तरह होते तो हो सकता है कि आप इस सब के बारे में न सोच सकते, पर एक बार जब आपको मानवीय बुद्धि मिली है तो फिर आप अपने जीवन के ऐसे महत्वपूर्ण पहलू को अनदेखा कैसे कर सकते हैं? आप इसे अनदेखा करते हुए ऐसे कैसे रह सकते हैं जैसे आप हमेशा यहाँ रहने वाले हैं? ये कैसी बात है कि यहाँ लाखों साल रहने के बाद भी मनुष्य मृत्यु के बारे में कुछ भी नहीं जानता। वैसे तो वह जीवन के बारे में भी कुछ नहीं जानता। हम जीवन के झमेलों के बारे में जानते हैं, पर जीवन के बारे में हम क्या जानते हैं?

मूल रूप से, ये परिस्थिति इसलिये आयी है क्योंकि इस ब्रह्मांड में आप कौन हैं, इसके बारे में आपने समझ खो दी है। हम जिस सौर प्रणाली में हैं, वो अगर कल गायब हो जाये तो बाकी के ब्रह्मांड को इसका पता भी नहीं चलेगा। ये सौर प्रणाली इतनी छोटी है, एक कण जैसी! इस छोटे से कण जैसी सौर प्रणाली में हमारी धरती एक सूक्ष्म परमाणु जैसी है और इस धरती पर आपका शहर एक परम सूक्ष्म परमाणु जैसा महीन है। पर, उसमें, आप एक बहुत बड़े आदमी हैं। ये एक गंभीर समस्या है। जब आपने, ‘आप कौन हैं’ के बारे में समझ पूरी तरह से खो दी है तो आपको ये क्यों लगता है कि आप जीवन या मृत्यु के बारे में कुछ भी जान पायेंगे?

प्रश्न: पर, मृत्यु की बात से मैं बहुत परेशान, अशांत हो जाता हूँ, चाहे मेरी बालकनी में कोई कबूतर मर गया हो या रास्ते पर कोई कुत्ता। मैं ऐसा क्यों महसूस करता हूँ?

गुरु: सारे डर की जड़ यह है कि हम सब मरने वाले हैं। अगर आप मरने वाले नहीं होते तो आप में कोई डर नहीं होता क्योंकि अगर काट के आपके टुकड़े भी कर दिये जाते तो भी आप नहीं मरते। पर, इसमें डरने की बात क्या है? मृत्य तो एक अद्भुत घटना है। इससे कई चीजें खत्म हो जाती हैं। अभी तो आप जिस तरह से हैं, उससे आपको ये लगता होगा कि ये एक खराब चीज़ है पर अगर आप हज़ार साल तक जीवित रहें तो मृत्यु आपके लिये एक बड़ी राहत होगी। अगर आप बहुत ज्यादा समय तक जीवित रहें तो लोग सोचने लगेंगे कि आप कब मरेंगे? मृत्यु एक जबरदस्त राहत है। बस, बात इतनी ही है कि ये अकाल न हो, समय से पहले न हो। हम उस समय तक मरना नहीं चाहते जब तक हम कुछ कर सकते हैं, कुछ बना सकते हैं, कोई योगदान दे सकते हैं।
मृत्यु अनिवार्य है
यदि आप सही समय पर मरना चाहते हैं तो आपको साधना करनी चाहिये, जिससे आप यह तय कर सकें कि आप कब मरेंगे। नहीं तो, एक मरा हुआ कबूतर भी आपको याद दिलायेगा कि आप भी मरने वाले हैं। कल जो उड़ सकता था, वो आज मर कर सूख चुका है। ये कल्पना करना कि आप भी एक दिन ऐसे हो जायेंगे, आपके लिये भयावह हो सकता है, क्योंकि आपने यहाँ जो कुछ इकट्ठा किया है उसके साथ आपकी पहचान एक मजबूरी बन गयी है, आप उससे बहुत ज्यादा जुड़ गये हैं। जब मैं कहता हूँ ‘आपने यहाँ जो कुछ इकट्ठा किया है, उसके साथ आपकी पहचान’, तो याद रखिये – आप जिस शरीर को लेकर घूमते हैं, वो इस जमीन का ही एक टुकड़ा है। जिस मिट्टी को इकट्ठा कर के आपने अपना शरीर बनाया है, और अपनी कई तरह की पहचान बना ली है, वो पहचान इतनी मजबूत हो गयी है कि उसे खोना बहुत ज्यादा भयानक लगता है।

मान लीजिये, आपका वजन जरूरत से ज्यादा हो गया है और हम आपको 10 कि.ग्रा. वज़न कम करने में मदद करते हैं तो क्या ये आपको खराब लगेगा? क्या आप इसके लिये रोयेंगे? बिल्कुल नहीं! अधिकतर लोग बहुत ज्यादा खुश होते हैं जब वे 10 कि.ग्रा. वजन कम कर लेते हैं। अब मान लीजिये कि आपने अपना पूरा 60 या 50 कि.ग्रा. वजन छोड़ दिया, तो इसमें क्या बड़ी बात है? अगर आप जीवन को वैसे ही जानते हैं जैसा वो है, और अपने इकट्ठा किये हुए वजन के ढेर में ही पूरी तरह से खोये हुए नहीं है तो शरीर छोड़ देना कोई बड़ी बात नहीं है।

पक्षियों, कीड़ों, कुत्तों या मनुष्यों के शरीर तो बस ऐसे ही हैं जैसे मिट्टी को वापस मिट्टी में डाल दिया गया हो। ये कोई बड़ा नाटक नहीं है, बस एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। आपने जो कुछ उठाया था, उसे वापस करना और एक नये रूप में बदल देना ही है। आप अपने जन्म लेने, जीवन और मृत्यु को बहुत महत्व दे सकते हैं, पर जहाँ तक धरती माँ का सवाल है, वह तो सिर्फ़ चीजों को नये रूप में ढाल रही है। वह आपको अपने में से बाहर निकालती है और फिर वापस खींच लेती है। आप अपने बारे में बहुत सारी कल्पनायें कर लेते होंगे पर आपने जो इकट्ठा किया है वो आपको वापस तो करना ही है। ये एक अच्छी आदत है। आप किसी से कुछ भी लेते हैं तो वो आपको कभी ना कभी तो वापस करना ही है। मेरी बात पर विश्वास कीजिये, मरना एक अच्छी आदत है।

प्रश्न : पर, मृत्यु के बारे में जानने का अच्छी तरह से जीने से क्या संबंध है?

गुरु: मृत्यु जीवन की आधार-रेखा है। अगर आप मृत्यु को नहीं समझते तो जीवन को कभी न जान सकेंगे और न ही संभाल सकेंगे, क्योंकि जीवन और मृत्यु साँस लेने और छोड़ने की क्रिया जैसे हैं। वे साथ साथ रहते हैं। आध्यात्मिक प्रक्रिया तभी शुरू होती है जब आपका सामना मृत्यु से होता है, वो चाहे आपकी खुद की हो या किसी ऐसे प्रिय व्यक्ति की जिसके लिये आपको लगता हो कि उसके बिना आप जीवित रह ही नहीं पायेंगे। जब मृत्यु पास आ रही हो या आ गयी हो तब ही ये सवाल अधिकतर लोगों के मन में आता है, “ये सब क्या है? इसके बाद क्या होगा”? जब तक जीवन का अनुभव बहुत ज्यादा वास्तविक लगता है तब तक आप विश्वास ही नहीं कर पाते कि ये सब ऐसे ही खत्म होने वाला है। पर, जब मृत्यु पास में आ जाती है तब मन ऐसा सोचने लगता है कि अभी कुछ और बाकी है, कुछ और होना चाहिये। मन चाहे कुछ भी सोच ले पर सही तौर पर ये जानता कुछ नहीं है क्योंकि मन सिर्फ उसी जानकारी के आधार पर सोचता है जो उसने इकट्ठा की है। मन का मृत्यु के लिये कोई खिंचाव नहीं है क्योंकि उसके पास मृत्यु के बारे में कोई सच्ची जानकारी नहीं है, सिर्फ सुनी सुनायी बातें हैं, गपशप है।

आपने ये सब गपशप सुनी है कि मरने पर आप जा कर भगवान की गोद में बैठ जायेंगे। अगर ऐसा है तो आपको आज ही मर जाना चाहिये। अगर आपको ऐसा विशेषाधिकार मिलने वाला है तो मुझे समझ में नहीं आ रहा कि आप इसे टाल क्यों रहे हैं? आपने स्वर्ग और नर्क के बारे में भी गप्पें सुनी हैं। देवदूत और दूसरे जो भी हैं, उनके बारे में भी गप्पें सुनी हैं। पर, आपके पास कोई पक्की जानकारी नहीं है। मृत्यु के बाद क्या होता है उसके बारे में सोचने में अपना समय व्यर्थ मत कीजिये क्योंकि वो आपके मन का क्षेत्र नहीं है।

जागरूकतापूर्वक मरना

इसे जानने का एक ही तरीका है, और वो है – प्रज्ञा, जैसा कि भारतीय भाषाओं में हम इसे कहते हैं। अंग्रेज़ी में हम इसे एवेयरनेस अर्थात जागरूकता कहेंगे। पर, कृपया इस शब्द को इसके सामान्य अर्थ में मत लीजिये। अगर आप जागरूक हैं तो आप चीजों के बारे में सोचे बिना, और उनकी जानकारी मिले बिना उन्हें जान सकते हैं। अगर आप अपने आसपास के जीवन को ध्यान से देखते हैं तो ऐसी बहुत सी बातें हैं, जिनके बारे में बिना सोचे हुए भी हर प्राणी उनको जानता है। सही तौर पर अगर आपको उनके बारे में सोचना हो तो आपको ये भी पता नहीं चलेगा कि साँस कैसे लें! ये बस होता है। वो आपकी बुद्धिमत्ता नहीं है, वो तो सृष्टिकर्ता की बुद्धिमत्ता है। आपके शरीर जैसी जटिल मशीन अगर आपको चलाने के लिये दी जाती तो एक बड़ी आफत खड़ी हो जाती।
बहुत सारी चीजें आपकी सहायता, समझ और सोच के बिना होती हैं। प्रज्ञा विचारों से भी परे है। प्रज्ञा वो है जो सृष्टिरचना का स्रोत है। अगर आप उस तक पहुँच बना लेते हैं तो आप उस सीमारेखा को पार कर सकते हैं जो हमें लगता है कि जीवन और मृत्यु के बीच में है। असल में, कोई सीमारेखा नहीं है – आप अभी ही जी भी रहे हैं और मर भी रहे हैं। सामाजिक स्तर पर, लोगों के सीमित अनुभवों और उनकी सीमित समझ में, कोई आज यहाँ हो सकता है और कल जा चुका हुआ हो सकता है। पर जीवन के संदर्भ में, अस्तित्व की प्रक्रिया के संदर्भ में, जीना और मरना जैसा कुछ भी नहीं है। ये बस लीला है, एक नाटक, एक खेल।

दिव्य खेल

जब हम कहते हैं कि ये सब एक दिव्य लीला है तो इसका अर्थ ये नहीं है कि दिव्यता दूसरों को दुख दे कर खुश होने वाली कोई दुष्ट शक्ति है, जो आपके जीवन के साथ खेलने का मजा ले रही है। हम इसे खेल इसलिये कहते हैं क्योंकि सब एक दूसरे के साथ गुँथा हुआ है। अस्तित्व की दृष्टि से आप बचपन, जवानी, प्रौढ़ता, और बुढ़ापे में फर्क नहीं कर सकते। ये सब एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। आप जिसे व्यक्ति कहते हैं और आप जिसे ब्रह्मांड कहते हैं, वे एक दूसरे से अलग नहीं किये जा सकते। आप जिसे परमाण्विक कहते हैं और आप जिसे ब्रह्मांडीय कहते हैं, उन्हें एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। इस अर्थ में, ये सब एक खेल ही है।

मृत्यु और उसके परे जो कुछ है, वो कोई ऐसा रहस्य नहीं है जो कहीं स्वर्ग या नर्क में छुपा हुआ हो – ये यहीं है, अभी है।
पर जब आप किसी एक चीज़ और दूसरी के बीच सीमारेखा खींच देते हैं तो फिर कोई खेल नहीं होगा। जब आप यहाँ बैठे हैं, तब साँस आपके और पेड़ के बीच में खेल रही है। आप उसको इस अर्थ में अलग नहीं कर सकते कि, “मैं अपनी साँस ले रहा हूँ, उसको उसकी साँस लेने दो”। बहुत से घरों में ऐसा होता है – “मैं अपना काम कर रहा हूँ, तुम अपना काम करो”। जिस पल आप खेल को रोकने की कोशिश करेंगे, जीवन आपके हाथों से फिसल जायेगा।

जीवन और मृत्यु को जानने के लिये सभी तरह की चीजें की गयीं हैं। पर, इसके बारे में सोच कर या प्रयोग कर के आप इसे नहीं जान सकते। लोग जब मुझसे मृत्यु और उसके बाद क्या होता है, इसके बारे में पूछते हैं तो मैं उन्हें याद दिलाता रहता हूँ कि इसके बारे में जानने का सबसे बेहतर तरीका इसका अनुभव करना है। मैं ये इशारा नहीं कर रहा कि उन्हें मर जाना चाहिये। मेरा ऐसा कहने का मतलब बस ये होता है कि आप जीवन का अनुभव करें, अपने अंदर के जीवन का। अगर आपको सिर्फ शरीर का ही अनुभव है, तो मैं जो कुछ भी कहूँगा उसका आप गलत निष्कर्ष निकालेंगे। अगर जीवन के बारे में आपके अनुभव सिर्फ शारीरिक और मानसिक संरचना तक ही सीमित हैं तो आप इस आयाम तक अपनी पहुँच नहीं बना पायेंगे। मृत्यु और उसके परे जो कुछ है, वो कोई रहस्य नहीं है जो कहीं स्वर्ग या नर्क में छुपा हुआ हो – ये यहीं है, अभी है। बात ये है कि अधिकतर मनुष्यों ने इस तरफ पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है क्योंकि वे बाकी चीजों के साथ बहुत ज्यादा व्यस्त रहते हैं।

उनके लिये उनका पेशा, कारोबार उनके जीवन से ज्यादा महत्वपूर्ण है। उनके प्रेम सम्बंध उनके लिये जीवन से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। अपने पड़ोस में किसी के साथ एक छोटा सा झगड़ा उनके लिये उनके जीवन से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। और, जीवन से बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण उनके कपड़े हैं जो वे पहनते हैं। ये बस कुछ उदाहरण हैं। चूंकि जीवन के बारे में आपकी समझ गलत है तो जीवन आपसे दूर रहता है। पर, वास्तव में जीवन आपकी पकड़ से दूर नहीं रहता – आप जीवन से दूर भाग रहे हैं। जीवन आपको टालने की कोशिश नहीं कर रहा, आप ही हर तरीके से इसे नज़रअंदाज़ कर रहे हैं।

आपके जीवन में, आपको जो कड़वे, दर्दभरे अनुभव हुए, वे कभी भी जीवन ने नहीं बनाये। वे सिर्फ इस वजह से हुए क्योंकि आप अपने शरीर और मन को ठीक तरह से संभाल नहीं रहे थे। जीवन ने कभी भी आपको दुख और दर्द नहीं दिये हैं। ये बस आपके शरीर और मन की वजह से हुए। आप नहीं जानते कि अपनी शारीरिक और मानसिक संरचना को कैसे संभालें? आपको दो अद्भुत साधन दिये गये थे पर आप उनके साथ गड़बड़ करते रहे। सभी दुख और दर्द सिर्फ आपकी ही वजह से आये हैं, ये जीवन से नहीं आये हैं।

प्रज्ञा, समझ का वो आयाम है जो आपको जीवन, उसके स्वभाव और उसके स्रोत तक पहुँचा देता है। ये अलग-अलग चीजें नहीं हैं, ये बस अलग-अलग नाम हैं जो हम जीवन को देते हैं। यहाँ कोई स्रोत नहीं है, कोई अभिव्यक्ति नहीं है – ये सब बस एक ही हैं। जीवन और मृत्यु जैसी कोई चीज़ नहीं है। यहाँ, न तो जीवन है, न ही मृत्यु – ये सब बस इन चीजों का खेल है। आप इस पर एक खेल खेलते हैं, और फिर किसी दिन रुक जाते हैं। जीवन खेलता है और रुकता है, खेलता है और रुकता है, पर मूल जीवन कोई खास गतिविधि नहीं है, कोई ऐसी ख़ास चीज़ नहीं है जो हो रही हो। ये एक अद्भुत घटना है जो बस यहॉं है। ये सृष्टिरचना की पृष्ठभूमि है। सृष्टिरचना का स्रोत है।

प्रश्न : मैंने मृत्यु को बेहद नज़दीक से देखा, जब मैं एक कार द्वारा टक्कर मारे जाने से, बस कुछ ही सेकंडों से बाल-बाल बच गया। उन कुछ सेकंडों में, मैंने सब कुछ एकदम धीमी गति में और असाधारण रूप से विस्तार में अनुभव किया। तो, उन कुछ सेकंडों का मेरा अनुभव उस तरह से क्यों हुआ और क्या मैं जीवन का अनुभव विस्तार के उस स्तर पर जागरूकतापूर्वक कर सकता हूँ?

सद्गुरु:: एक बार कुछ ऐसा हुआ – इंडियाना, अमेरिका के एक छोटे से कस्बे के एक शराबखाने में दो बूढ़े आदमी मिले। दोनों अलग-अलग टेबल पर चिड़चिड़ाते हुए से बैठे थे और पी रहे थे। फिर, उनमें से एक ने दूसरे की ओर देखा और उस आदमी की कनपटी पर एक जन्मचिन्ह देखा। उसकी तरफ देख कर वो बोला, “अरे, क्या तुम जोशुआ हो”? “हाँ, तुम कौन हो”? “क्या तुम नहीं जानते, मैं मार्क हूँ, हम लोग युद्ध में साथ थे”। “अच्छा, हे भगवान”! फिर वे दोनों खुश हो गये, “दूसरे विश्वयुद्ध में हम साथ-साथ थे, उसको अब पचास साल हो गये हैं”।

फिर, वे एक ही टेबल पर बैठ कर पीने लगे। वे खा भी रहे थे और बातें भी कर रहे थे। उन्होंने यूरोप में युद्ध के दौरान 40 मिनिट की एक कार्रवाई में एक साथ भाग लिया था। वो 40 मिनिट की बमबारी का समय था। उन 40 मिनिटों के बारे में वे दो घंटों तक गजब के विस्तार से बातें करते रहे। जब उनकी बातें खत्म हुईं तो एक ने दूसरे से पूछा, “तब से तुम क्या करते रहे हो”? वो बोला, “अरे, मैं बस एक सेल्समैन का काम कर रहा था”। 40 मिनिट के युद्ध के बारे में वे दो घंटों तक खूब उत्तेजना के साथ बातें करते रहे पर फिर 40 साल का जीवन – बस एक वाक्य में – मैं बस एक सेल्समैन था। उसके जीवन में 40 साल बस यही हुआ।

कब्र के लिये अभ्यास

दुर्भाग्यवश, बहुत सारे लोग केवल तभी जीवंत होते हैं जब मृत्यु उनके सामने खड़ी होती है – चाहे युद्ध में या कार दुर्घटना में। जब मरने की संभावना से आप आमने-सामने होते है – तभी आप पूरी तरह से जीवंत होते हैं। ये कितना दुर्भाग्यपूर्ण है! जब आप सही ढंग से, वास्तव में अपने मरणशील होने का सामना करते हैं तभी ये समझते हैं कि आपका जीवित होना सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है।

मैं जब लोगों को देखता हूँ तो ऐसा लगता है जैसे वे कब्र के अंदर जाने का अभ्यास कर रहे हैं – जब वे अपनी कब्र में होंगे तब उन्हें कैसा होना चाहिये, उनके चेहरे के भाव कैसे होने चाहिये? वे ये बात नहीं समझते कि मरना तो उन्हें है ही। उन्हें लगता है कि वे हमेशा यहाँ रहेंगे। जब वे जीवित हैं तो हमेशा मृत्यु का अभ्यास करते रहते हैं। पर, जब आप उन्हें मृत्यु का खतरा दिखायेंगे तो वे जीवंत हो उठेंगे। आप को क्या लगता है, कृष्ण ने अपना उपदेश युद्ध के मैदान में क्यों दिया? किसी आश्रम के शांतिपूर्ण माहौल में नहीं, भारत के सुंदर जंगलों में नहीं, न ही हिमालय की किसी गुफा में, पर एक खतरनाक युद्ध के मैदान में – क्योंकि मारे जाने का खतरा दिखे बिना ज्यादातर मनुष्यों में अपने जीवन की ओर देखने की बुद्धि ही नहीं होती।

मुझे लगता है कि जब बिना ड्राइवर के अपने आप चलने वाली कारें आ जायेंगी, तब बहुत सारे लोगों को आत्मज्ञान हो जायेगा। कुछ समय बाद शायद आप सीख जायेंगे कि इस बात को कैसे अनदेखा करें – वो बात अलग है – पर शुरुआत में आप नहीं जानते कि ये रुकेगी या नहीं। आप को नहीं मालूम कि ये ठीक समय पर रुकेगी या कहीं जा कर भिड़ जायेगी। मुझे लगता है कि जब ये अपने आप चलने वाली कारें उपयोग में आ जायेंगी, तब उसके कुछ ही महीनों में इस धरती पर कुछ लोगों को तो आत्मज्ञान हो ही जायेगा। तो हमें कुछ आत्मज्ञानियों के लिये तैयार रहना चाहिये।

जीवन के लिये जीवंत होना

किसी कार दुर्घटना की राह मत देखिये। आपको ये जानना ही चाहिये कि आप इसी समय गिर कर मर सकते हैं। मैं आपके लिये ऐसा नहीं चाहता और आपको लंबे जीवन का आशीर्वाद भी देता हूँ, पर ये संभव है। हर रोज़, कई सारे लोग इस तरह से मर जाते हैं। बैठे-बैठे, खड़े-खड़े, लेटे हुए – वे हर तरह की मुद्रा में मरते हैं। जब आपको समझ आती है कि आप मर सकते हैं तो अचानक ही आपको जीवन का मूल्य समझ में आता है, आप उसके प्रति जीवंत हो उठते हैं। मैं लोगों को याद दिलाता रहता हूँ कि इस जीवन में आप असफल नहीं हो सकते। हर कोई सफल होगा। आपने कभी ऐसा नहीं देखा होगा कि किसी को इसलिये बंदी बनाया गया कि उसने जीवन ठीक से नहीं जिया। हर कोई सफल रहता है। पर, बहुत सारे लोग, बिना ये जाने कि वे किस चीज़ में से गुजरे हैं, बस गुज़र जाते हैं।

जब आपकी दुर्घटना होने वाली थी, कुछ सेकंडों के लिये, आप जान रहे थे कि आप किस परिस्थिति में से हो कर गुज़र रहे थे। बाकी के समय आप ये नहीं जानते। अभी तो आपके दिमाग का नाटक हर चीज़ पर हावी है। इसका मतलब ये है कि आपकी मूर्खतापूर्ण रचना उस भव्य सृष्टिरचना पर हावी है, जिसमें हम रह रहे हैं। पर, जब आपकी ये मूर्खतापूर्ण रचना टूट गयी, तब आप परिस्थिति के उस जबरदस्त खतरे के कारण न कुछ सोच सके, न किन्हीं भावनाओं में बह सके, तब ही आपको लगा कि आप वास्तविक रूप से जीवंत थे।

ये सारा योग जो हम आपको सिखा रहे हैं, वे सारी प्रक्रियायें जिनमें हम आपको दीक्षित कर रहे हैं, वे बस इसीलिये हैं कि आप अपने खुद के नाटक से दूर रहें जिससे ब्रह्मांड का ये खेल आपकी समझ में आ सके। क्योंकि इसके बिना इस जीवन में कुछ भी नहीं है।

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जीवन एक तृष्णा

जीवन एक तृष्णा संसार में जन्म लेने के बाद माया के कुचक्र में फंसने से इस तृष्णा नाम की बीमारी का जन्म होता है यह तृष्णा नाम की बीमारी माया के कुचक्र जाल में फंस कर और ज्यादा बढ़ जाती है मनुष्य अपने आपको भूलने लगता है और ध्यान में उसकी तृष्णा ही रहती है इस रोग का इलाज सिर्फ ध्यान ज्ञान ही है अगर यह नहीं हो तो यह बढ़ती बढ़ती इतनी बढ़ जाती है कि कभी नहीं मिटती यह जानते हुए कि मृत्यु निश्चित है कब आ जाए कोई भरोसा नहीं फिर भी यह बीमारी मनुष्य को चौतरफा घिरी रहती है ना मनुष्य को जीवन जीने का उद्देश्य ध्यान में आने देती और ना ही मृत्यु के बाद क्या हो, यह पहचानने की बुद्धि देती,  इस बीमारी के हो जाने से धीरे धीरे सब पतन होने लगता है अभिलाषा जागती हैं पर फिर भी मनुष्य का पतन होने लगता है आखिरकार यह तृष्णा नर्क की राह पर ले जाती है अगर समय रहते ध्यान और ज्ञान से इसका उपाय किया जाए तो संभव है इलाज है परंतु इसके अलावा सिर्फ और सिर्फ परमात्मा ही इस रोग से मुक्त कर सकते हैं         

  आमतौर पर देखने में पाया जाता है कि लोग बाग हमेशा ऐसी बातें करते हुए पाए जाते हैं वह मुझे देख लेगा वह मुझसे आगे निकल गया है मैं उसकी बराबरी कैसे करूं उसके पास मेरे से ज्यादा शक्तियां हैं उसके पास मेरे से ज्यादा धन है उसके पास मेरे से ज्यादा संपत्ति है क्या कभी मैं भी ऐसा बन पाऊंगा बस इसी प्रयास में लगभग सारा जीवन व्यतीत हो जाता है कभी मनुष्य ऐसा नहीं सोचता मैं कहां से आया हूं मैं क्यों आया हूं मुझे किसने भेजा है मेरे जीवन का क्या उद्देश्य है क्या मैं भी परमात्मा का स्वरूप हूं अगर ऐसा भाव मनुष्य  रखने लगे कि संसार में जो भी मैं देखता हूं जो भी मैं सुनता हूं जो भी मैं महसूस करता हूं जो भी मैं सुनता हूं सब कुछ मेरा ही स्वरूप है मैं ही सर्व व्याप्त हूं मैं कभी नहीं मरता मैं कभी नहीं जन्म था मैं यही था यही हूं और यही रहूंगा पूरे ब्रह्मांड में जहां तक नजर जाती है जो भी दिखता है वह मेरा ही स्वरूप है अगर ऐसा भाव मनुष्य के भीतर भरा हो तो यह तृष्णा नाम की बीमारी कभी निकट नहीं आती ऐसी सोच वाला व्यक्ति हमेशा धनी रहता है उसके पास कुछ भी ना होते हुए भी सब कुछ होने का भाव हमेशा रहता है यही ईश्वर की कृपा है हमेशा अपनी सोच सकारात्मक और सार्थक रखनी चाहिए दूसरों को पीड़ा देने से पहले यह सोचना चाहिए कि वह पीड़ा मेरी ही है और उस पीड़ा का दंड हमेशा मुझे ही मिलना है      

मैं जहां तक सोचता हूं ईश्वर ने दिन और रात बनाया है सुख और दुख बनाया है भला और बुरा बनाया है देवता और राक्षस बनाया है और यह सब ईश्वर का ही स्वरूप है बुराई में भी ईश्वर बैठते हैं भलाई में भी सर बैठते हैं जहां देखो वहां आपको ईश्वर ही दिखेंगे क्योंकि साधारण भाषा में अगर समझ ना चाहो तो हमारे शरीर में भी ऐसे अंग हैं जिन अंगों से हमें ला जाती है हम हमेशा उनको छुपा कर रखते हैं पर कभी उनको काटकर तो नहीं फेंकते क्योंकि उनका भी हमारी सेवा में कार्य रहता है ठीक इसी प्रकार दुष्ट व्यक्ति भी ऐसा ही होता है हम उसका नाम लेने से हिचकी चाहते हैं हमें शर्म आती है कि हमारा कोई शत्रु व्यवहार करने वाला व्यक्ति है पर फिर भी है तो वह भी हमारा ही हमेशा प्रेम से जियो यही ईश्वर सेवा है और यही तपस्या है और यही त्याग है समझदार ओं के लिए तो इशारा ही काफी होता है धन्यवाद आपने मेरे विचारों को पढ़ा और समझा मेरी आत्मा को शांति मिलती है जब आप मेरे विचारों को ध्यान देते हैं

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जीव और जीवन में अंतर 

जीव और जीवन में अंतर 

जीव और जीवन में अंतर देखना असामान्य है क्योंकि जीव सर्व्याप्त है एक स्वरूप है एक होते हुए भी अन्य स्वरूपों में विद्यमान है ठीक वैसे ही जैसे बिजली एक है पर उसकी कार्यप्रणाली अनेक रूपों में पाई जाती है अगर आप बिजली से पंखा चलाना चाहे तो चलता है लाइट जलाना चाहो तो जलती है रेल गाड़ी चलाना चाहो तो चलती है पता नहीं कितने ही कार्य करती है पर स्वरूप तो एक ही है चाहे उसको छोटा बना कर देख लो और चाहे उसका विराट रूप देख लो ऐसा ही कुछ जीव है

जीव क्या है ?

 जीव को हम प्राण भी कहते हैं और प्राण ही आत्मा का स्वरूप है जीव के बिना वनस्पति हरि रह नहीं सकती और जीव के बिना किसी भी प्राणी में प्राण ना होता पूरे ब्रह्मांड में जो चेतना नजर आती है वहां सर्वत्र जीव विद्यमान रहता है जीव का एक स्वरूप होते हुए भी विभिन्न भाती-भाती के स्वरूप में पाया जाता है अपने आप को समझने के लिए प्रत्येक जीव को समझना जरूरी है 

जीवन क्या है ?

जी + वन थोड़ा समझने में आसानी हो इसके लिए मैं जीवन को दो टुकड़ों में करके समझाने की कोशिश करता हूं  वन के बारे में जब हम विचार करते हैं तो साधारण सी एक पिक्चर दिमाग में आ ही जाती है कि वहां वनस्पति होगी जंगली जानवर होंगे जिनमें कई खतरनाक भी होंगे डरावने भी होंगे साथ ही साथ बल का जो सौंदर्य है वह भी दिमाग में आ जाते हैं सरल भाषा में जब विचार करते हैं तो जीवन जी की बनाई हुई एक संरचना है वह हमेशा अपने भाव के अनुकूल परिभाषाएं बनाता है और क्या आता है जहां उसको सरलता महसूस हो वह वैसे ही संरचना तैयार करता है जिसको हम इंसानों में समाज कुटुंब कबीला संप्रदाय इत्यादि को देखते हैं इन सब को मिलाकर एक राष्ट्र का निर्माण होता है बस यही जीवन है

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आत्मा क्या हैं?

आत्मा का निरूपण श्रीमद्भगवदगीता या गीता में किया गया है। आत्मा को शस्त्र से काटा नहीं जा सकता, अग्नि उसे जला नहीं सकती, जल उसे गीला नहीं कर सकता और वायु उसे सुखा नहीं सकती।[1] जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीर को त्याग कर नवीन शरीर धारण करता है।[2] इस संसार मे अनगिनत ज्ञानी पुरुष हुए है जिन्होंने अपनी आत्मा पाई और आत्मा को पाने के रास्ते बताये है। कृष्ण, बुद्ध, जीसस, अष्टावक्र, राजा जनक , संत कबीर, मीरा बाई, गुरु नानक, साई बाबा आदि ।सभी ज्ञानी पुरुषो ने एक मत से यह कहा कि आत्मा अमर है, नाहीं कभी जन्म लेती, नाहीं उसकी मृत्यु होती। आत्मा सनातन है। आत्मा एक उर्जा का रुप हैं जिसे आत्म ज्ञान और परमात्म ज्ञान के समय देखा जा सकता है। कई धार्मिक, दार्शनिक और पौराणिक परंपराओं में, आत्मा एक जीवित प्राणी का निराकार सार है। सुकरात, प्लेटो और अरस्तू जैसे यूनानी दार्शनिकों ने समझा कि आत्मा में एक तार्किक क्षमता होनी चाहिए, जिसका अभ्यास मानव क्रियाओं में सबसे दिव्य था।[3] fयहूदी धर्म में और कुछ ईसाई संप्रदायों के अनुसार केवल मनुष्यों के पास अमर आत्माएं होती हैं (हालांकि यहूदी धर्म के भीतर अमरता विवादित है और अमरता की अवधारणा प्लेटो से प्रभावित हो सकती है)। उदाहरण के लिए, कैथोलिक धर्मशास्त्री थॉमस एक्विनास ने सभी जीवों को "आत्मा" (एनिमा) के लिए जिम्मेदार ठहराया लेकिन तर्क दिया कि केवल मानव आत्माएं अमर हैं[4]। अन्य धर्मों (विशेष रूप से हिंदू धर्म और जैन धर्म) का मानना ​​है कि सबसे छोटे जीवाणु से लेकर सबसे बड़े स्तनधारियों तक सभी जीवित चीजें स्वयं आत्माएं हैं (आत्मान, जीव) और दुनिया में उनके भौतिक प्रतिनिधि (शरीर) हैं। वास्तविक स्वयं आत्मा है, जबकि शरीर उस जीवन के कर्म का अनुभव करने के लिए केवल एक तंत्र है। इस प्रकार यदि कोई बाघ को देखता है तो उसमें (आत्मा) रहने वाली एक आत्म-चेतन पहचान है, और दुनिया में एक भौतिक प्रतिनिधि (बाघ का पूरा शरीर, जो देखने योग्य है) है। कुछ सिखाते हैं कि गैर-जैविक संस्थाओं (जैसे नदियाँ और पहाड़) में भी आत्माएँ होती हैं। इस विश्वास को जीववाद कहा जाता है।[5]

विभिन्न संप्रदायों के विचार

ईसाई
चर्च ऑफ जीसस क्राइस्ट ऑफ लैटर-डे सेंट्स सिखाता है कि आत्मा और शरीर मिलकर मनुष्य की आत्मा (मानव जाति) का निर्माण करते हैं। “आत्मा और शरीर मनुष्य की आत्मा हैं।” लैटर-डे सेंट कॉस्मोलॉजी का मानना ​​है कि आत्मा एक पूर्व-मौजूदा, ईश्वर-निर्मित आत्मा और एक अस्थायी शरीर का मिलन है। , जो पृथ्वी पर भौतिक गर्भाधान से बनता है। मृत्यु के बाद, आत्मा जीवित रहती है और पुनरुत्थान तक आत्मा की दुनिया में प्रगति करती है, जब यह उस शरीर के साथ फिर से जुड़ जाती है जो एक बार इसे रखा गया था। शरीर और आत्मा के इस पुनर्मिलन के परिणामस्वरूप एक पूर्ण आत्मा मिलती है जो अमर और शाश्वत है और आनंद की पूर्णता प्राप्त करने में सक्षम है। [6]

हिंदू धर्म
आत्मान एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है आंतरिक स्वयं या आत्मा। हिंदू दर्शन में, विशेष रूप से हिंदू धर्म के वेदांत में, आत्मा पहला सिद्धांत है, घटना के साथ पहचान से परे एक व्यक्ति का सच्चा आत्मा, एक व्यक्ति का सार। मुक्ति (मोक्ष) प्राप्त करने के लिए, एक इंसान को आत्म-ज्ञान (आत्मज्ञान) तथा परमात्म ज्ञान प्राप्त करना चाहिए, जो यह महसूस कर सके कि उसकी सच्ची आत्मा (आत्मान) अद्वैत वेदांत के अनुसार पारलौकिक ब्रह्म के समान है।[7]
कबीर साहेब जी ने कहा है  कूप की छाया कूप के माही, ऐसा आत्म ज्ञान।
जैन दर्शन
मुख्य लेख: जीव (जैन दर्शन)
जैन दर्शन में आत्मा के लिए जीव शब्द का प्रयोग किया जाता है। जीव (चेतना) को अजीव (शरीर) से पृथक बताया जाता है।
इस्लाम
कुरान, इस्लाम की पवित्र पुस्तक, आत्मा को संदर्भित करने के लिए दो शब्दों का उपयोग करती है: रूह (आत्मा, चेतना, न्यूमा या "आत्मा" के रूप में अनुवादित) और नफ़्स (स्वयं, अहंकार, मानस या "आत्मा" के रूप में अनुवादित), हिब्रू नेफेशंड रुच के संज्ञेय। दो शब्दों को अक्सर एक दूसरे के स्थान पर प्रयोग किया जाता है, हालांकि रूह का उपयोग अक्सर दिव्य आत्मा या "जीवन की सांस" को दर्शाने के लिए किया जाता है, जबकि नफ़्स किसी के स्वभाव या विशेषताओं को निर्दिष्ट करता है। इस्लामी दर्शन में, अमर रूह नश्वर नफ़्स को "ड्राइव" करता है, जिसमें जीवन के लिए आवश्यक अस्थायी इच्छाएं और धारणाएं शामिल हैं।[8] कुरान में दो अंश जो रूह का उल्लेख करते हैं, अध्याय 17 ("द नाइट जर्नी") और 39 ("द ट्रूप्स") में होते हैं: और वे आपसे, [हे मुहम्मद], रूह के बारे में पूछते हैं। कहो, "रूह मेरे रब के मामले में है। और मानव जाति को थोड़े से ज्ञान के अलावा ज्ञान नहीं दिया गया है।[8]
— कुरान १७:८५
अल्लाह उनकी मृत्यु के समय आत्माओं को ले जाता है, और जो नहीं मरते उनकी नींद के दौरान। फिर वह उन लोगों को रखता है जिनके लिए उसने मौत का फैसला किया है और दूसरों को एक निश्चित अवधि के लिए रिहा कर देता है। निश्चय ही इसमें उन लोगों के लिए निशानियाँ हैं जो विचार करते हैं..
— कुरान 39:42
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Bhartiya Yoga

‘योग’ शब्द ‘युज समाधौ’ आत्मनेपदी दिवादिगणीय धातु में ‘घं’ प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है। इस प्रकार ‘योग’ शब्द का अर्थ हुआ- समाधि अर्थात् चित्त वृत्तियों का निरोध। वैसे ‘योग’ शब्द ‘युजिर योग’ तथा ‘युज संयमने’ धातु से भी निष्पन्न होता है किन्तु तब इस स्थिति में योग शब्द का अर्थ क्रमशः योगफल, जोड़ तथा नियमन होगा। आगे योग में हम देखेंगे कि आत्मा और परमात्मा के विषय में भी योग कहा गया है।
गीता में श्रीकृष्ण ने एक स्थल पर कहा है ‘योगः कर्मसु कौशलम्‌’ ( कर्मों में कुशलता ही योग है।) यह वाक्य योग की परिभाषा नहीं है। कुछ विद्वानों का यह मत है कि जीवात्मा और परमात्मा के मिल जाने को योग कहते हैं। इस बात को स्वीकार करने में यह बड़ी आपत्ति खड़ी होती है कि बौद्धमतावलंबी भी, जो परमात्मा की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, योग शब्द का व्यवहार करते और योग का समर्थन करते हैं। यही बात सांख्यवादियों के लिए भी कही जा सकती है जो ईश्वर की सत्ता को असिद्ध मानते हैं। पंतजलि ने योगदर्शन में, जो परिभाषा दी है ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’, चित्त की वृत्तियों के निरोध का नाम योग है। इस वाक्य के दो अर्थ हो सकते हैं: चित्तवृत्तियों के निरोध की अवस्था का नाम योग है या इस अवस्था को लाने के उपाय को योग कहते हैं।

परंतु इस परिभाषा पर कई विद्वानों को आपत्ति है। उनका कहना है कि चित्तवृत्तियों के प्रवाह का ही नाम चित्त है। पूर्ण निरोध का अर्थ होगा चित्त के अस्तित्व का पूर्ण लोप, चित्ताश्रय समस्त स्मृतियों और संस्कारों का नि:शेष हो जाना। यदि ऐसा हो जाए तो फिर समाधि से उठना संभव नहीं होगा। क्योंकि उस अवस्था के सहारे के लिये कोई भी संस्कार बचा नहीं होगा, प्रारब्ध दग्ध हो गया होगा। निरोध यदि संभव हो तो श्रीकृष्ण के इस वाक्य का क्या अर्थ होगा? योगस्थ: कुरु कर्माणि, योग में स्थित होकर कर्म करो। विरुद्धावस्था में कर्म हो नहीं सकता और उस अवस्था में कोई संस्कार नहीं पड़ सकते, स्मृतियाँ नहीं बन सकतीं, जो समाधि से उठने के बाद कर्म करने में सहायक हों।
संक्षेप में आशय यह है कि योग के शास्त्रीय स्वरूप, उसके दार्शनिक आधार, को सम्यक्‌ रूप से समझना बहुत सरल नहीं है। संसार को मिथ्या माननेवाला अद्वैतवादी भी निदिध्याह्न के नाम से उसका समर्थन करता है। अनीश्वरवादी सांख्य विद्वान भी उसका अनुमोदन करता है। बौद्ध ही नहीं, मुस्लिम सूफ़ी और ईसाई मिस्टिक भी किसी न किसी प्रकार अपने संप्रदाय की मान्यताओं और दार्शनिक सिद्धांतों के साथ उसका सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं।

इन विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं में किस प्रकार ऐसा समन्वय हो सकता है कि ऐसा धरातल मिल सके जिस पर योग की भित्ति खड़ी की जा सके, यह बड़ा रोचक प्रश्न है परंतु इसके विवेचन के लिये बहुत समय चाहिए। यहाँ उस प्रक्रिया पर थोड़ा सा विचार कर लेना आवश्यक है। थोड़े बहुत शब्दभेद से यह प्रक्रिया उन सभी समुदायों को मान्य है जो योग के अभ्यास का समर्थन करते हैं।
परिभाषा[संपादित करें]
(1) पातञ्जल योग दर्शन के अनुसार – योगश्चित्तवृत्त निरोधः (1/2) अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।
(2) सांख्य दर्शन के अनुसार – पुरुषप्रकृत्योर्वियोगेपि योगइत्यमिधीयते। अर्थात् पुरुष एवं प्रकृति के पार्थक्य को स्थापित कर पुरुष का स्व स्वरूप में अवस्थित होना ही योग है।
(3) विष्णुपुराण के अनुसार – योगः संयोग इत्युक्तः जीवात्म परमात्मने अर्थात् जीवात्मा तथा परमात्मा का पूर्णतया मिलन ही योग है।
(4) भगवद्गीता के अनुसार – सिद्धासिद्धयो समोभूत्वा समत्वं योग उच्चते (2/48) अर्थात् दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्दों में सर्वत्र समभाव रखना योग है।
(5) भगवद्गीता के अनुसार – तस्माद्दयोगाययुज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् अर्थात् कर्त्तव्य कर्म बन्धक न हो, इसलिए निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर कर्त्तव्य करने का कौशल योग है।
(6) आचार्य के अनुसार – मोक्खेण जोयणाओ सव्वो वि धम्म ववहारो जोगो मोक्ष से जोड़ने वाले सभी व्यवहार योग है।
(7) बौद्ध धर्म के अनुसार – कुशल चितैकग्गता योगः अर्थात् कुशल चित्त की एकाग्रता योग है।

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इन्द्रिय

इन्द्रिय कितनी होती है ?

इन्द्रिय कितनी होती है ?

इंद्रिय के द्वारा हमें संसारी विषयों जैसे कि रूप, रस, गंध, स्पर्श एवं शब्द का तथा आभ्यंतर विषयों जैसे सु:ख- दु:ख आदि का ज्ञान प्राप्त होता है। इद्रियों के अभाव में हम विषयों का ज्ञान किसी प्रकार प्राप्त नहीं कर सकते। इसलिए तर्कभाषा के अनुसार इंद्रिय वह प्रमेय है जो शरीर से संयुक्त, अतींद्रिय (इंद्रियों से ग्रहीत न होनेवाला) तथा ज्ञान का करण हो (शरीरसंयुक्तं ज्ञानं करणमतींद्रियम्)।

इंद्रिय को संस्कृत भाषा में ‘करण’ भी कहते हैं। इंद्रिय शरीर का वह अवयव है, जिसके द्वारा हम कोई काम करते हैं या कोई ज्ञान प्राप्त करते हैं। मुंह, हाथ, लिंग, गुदा और पैर– ये पांच कर्मेंद्रियों हैं। इनके द्वारा हम स्थूल कर्म किया करते हैं। ये भी बाहरी इंद्रियां कहलाती हैं। इन कर्मेंद्रियों में से प्रत्येक के द्वारा लगभग भिन्न-भिन्न ही काम लिया जाता है। मुंह से भोजन करने और बोलने का काम करते हैं। मुंह के अंतर्गत दांत, होठ, तालु, मूर्धा, कंठ, आदि आ जाते हैं। जिह्वा रस (स्वाद) इंद्रिय का गोलक है । बोलने और भोजन करने में सहायक होने के कारण यह जिह्वा भी मुंह कर्मेंन्द्रिय के अंदर आ जाती है। हाथ से प्रायः किसी पदार्थ को पकड़ने तथा छोड़ने का काम करते हैं। सांसारिक कामों में इसकी बड़ी उपयोगिता सिद्ध होती है। लिंग से मूत्र-वीर्य आदि का त्याग होता है। गुदा से अपान वायु और मल का विसर्जन होता है। पैर से मुख्यतया चलने का काम होता है। कर्मेंद्रियों के कर्म वायु के द्वारा होते हैं; क्योंकि चलना, बोलना, बल करना पसरना और सिकुड़ना वायु की प्रकृतिया बतलाए गए हैं।

इंद्रियां 14 है। पांच ज्ञानेंद्रियां- आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा; पांच कर्मेंद्रियां- हाथ, पैर, मुंह, गुदा और लिंग और चार अंतःकरण- मन बुद्धि चित्त और अहंकार।

न्याय के अनुसार इंद्रियाँ दो प्रकार की होती हैं :

(1) बहिरिंद्रिय – घ्राण, रसना, चक्षु, त्वक् तथा श्रोत्र (पाँच) और

(2) अंतरिंद्रिय – केवल मन (एक)।

इनमें बाह्य इंद्रियाँ क्रमश: गंध, रस, रूप स्पर्श तथा शब्द की उपलब्धि मन के द्वारा होती हैं। सुख दु:ख आदि भीतरी विषय हैं। इनकी उपलब्धि मन के द्वारा होती है। मन हृदय के भीतर रहनेवाला तथा अणु परमाणु से युक्त माना जाता है। इंद्रियों की सत्ता का बोध प्रमाण, अनुमान से होता है, प्रत्यक्ष से नहीं सांख्य के अनुसार इंद्रियाँ संख्या में एकादश मानी जाती हैं जिनमें ज्ञानेंद्रियाँ तथा कर्मेंद्रियाँ पाँच पाँच मानी जाती हैं। ज्ञानेंद्रियाँ पूर्वोक्त पाँच हैं, कर्मेंद्रियाँ मुख, हाथ, पैर, मलद्वार तथा जननेंद्रिय हैं जो क्रमश: बोलने, ग्रहण करने, चलने, मल त्यागने तथा संतानोत्पादन का कार्य करती है। संकल्पविकल्पात्मक मन ग्यारहवीं इंद्रिय माना जाता है।

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My life religion and wrongdoing

Description of Godde and Gods

Gods and goddesses have been described continuously in Hinduism, many types of sadhanas have been described from many different gods and goddesses. Every practice is described according to the nature and nature of that deity. It’s really science Just as a scientist makes water by mixing hydrogen and oxygen. Similarly, the deities mentioned in our texts. Similarly, the Gods mentioned in our texts, Suits their nature, An environment is created to obtain the accomplishment of that deity by taking fragrant food items. The body is also prepared to suit the same environment.Fasting is taken to be pure.So that our body becomes clean and molds to that god And our resources should always be accessible, the language of our scholars has always been confidential. He only mentions abstract knowledge. Do not give divine knowledge to an ineligible person because the knowledge with which good works are done.The same knowledge also acts evil. In a small way, Arjun had such a bow and arrow, he used to rain water, fire rain, with his arrow. The gesture is sufficient to understand, without chemical action nothing is possible. Where there is fragrance in nature, the same odor is also present in nature. For this reason our sages and sages have used the code language in their knowledge. So that the seed of knowledge does not spread among those foolish beings, who work against nature, it is very important to understand the language. What is it like to write the word cow, is the same form in the illustration. For this reason, there is always a need for a skilled teacher to acquire knowledge. Who can explain every hidden thing deep. The sad thing is that nowadays most teachers are not able to expand knowledge. This is why religious science of science is becoming extinct. Whereas knowledge is so powerful. Today, where the Internet has taken its hold, in the old times, infinite villagers sitting far away used to communicate directly among themselves without any resources. Even today some such proven men exist among us. One person asked me that Lakshmi’s vehicle is an owl among the Hindus and Saraswati’s vehicle has been told to Hans, I do not understand that a woman weighs 60 kg, she has a goose weight of two hundred and fifty grams and 100 grams. How can we sit on an owl? So I tried to convince that monsieur. Here the ride is not of sitting, but of nature is a ride. The person whose nature is like an owl. He sleeps during the day and performs his duties without mercy to get his food as soon as he gets the chance. Can there be a shortage of Lakshmi. And the creature whose nature is as clean as a swan floating in the sea, can there be a lack of knowledge in it. Therefore, a fool will never understand Hindu culture.I think that many Hindus also do not recognize their culture, that is why they fall into the circle of evil. And think of it as science. Is clearly the god of fire. Vayu is the god. The eight directions are gods. The planet is the constellation deity. The winds flowing everywhere are the goddesses. If you want to understand the Gods and Goddesses, then it is very important to know what the reality is, because a teacher always tells stories to explain to the student. Some students understand the language style, and some consider it as a story. What is meant to be said is not seen and what is seen is not. This is my personal view of the Gods and Goddesses I have described. If there is any error then please advise me.

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My life

What is God? what is the nature of God?

What is God? what is the nature of God?

As far as humans can see, it is the nature of the whole universe. The universe is dark blue oval in shape. In which thousands of sun’s brightness is present. Anantakoti, away from the universe, in a subtle form, controls the entire universe. He is God. What has reached God till date has not returned. For example, in the female form, where the uterus is, understand the form of the universe and where its intelligence is, it should be considered as God. Because the knowledge of every movement occurring in the body is first in the mind of man. Not every movement that moves around the entire universe is hidden from God. Not every event happens without the will of God. The incarnation of God has happened in many places, such as Arjuna as Krishna, Rama, Gautama as Mercury, Jesus Christ, Mohammad as Prophet, Even every creature that serves the world is an incarnation of God. The attainment of God is easier than serving the creatures. Some beings hear the voice of God because their telegraph system is strong. For example, Arjuna’s son Abhimanyu had learned to enter Chakravyu in his mother’s womb. Because in the uterus, Abhimanyu learned to enter chakravyu by ear from his mother’s work. Similarly, people who merge in meditation posture. He begins to have knowledge of the activities that take place outside the universe. He starts interviewing God, and the world starts to look bad to him like a prison. Man’s body is composed by Maya. Whose consciousness is powered by God, for example, power is used in different resources from the power house. Such as fans, lights, heaters, many of the resources that run today are run by electricity. The connection of some processing is connected to the transformer through electrical grade. But nowadays electricity is generated separately by charging the battery, in the same way our body first God is charged with waves at night. After that, it works full day. To understand God, I have just set the example. God is that power. No one has been able to explain about it till date, because in the shelter of God one feels immense happiness, but even if told about this, every person sees him in his own sense, the power of God is very supernatural.  Therefore, I would just like to say that every living being should remain a worker in the spirit of service, that is the easiest way to attain God. However, there are many other ways to attain God. Every ascetic God keeps walking on his own path with inspiration. The floor is just God attainment. If the wire is deeply connected with God, it can never happen that it is separate from God. The meaning of saying that is the incarnation of God, who has surrendered all his actions to God.

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My life religion and wrongdoing

The sense between religion and wrongdoing and my experience

The feeling between religion and unrighteousness and my experience is that the religion which is propagated in the scriptures is to serve only a living being. Casteism is just a division based on deeds created by our society. I never accept that any community is a particular religion. Every person living in communities understands his family activities according to his religion while this is not a reality Religion is only where there is service and unrighteousness is where others are hurt, exploited, victimized, tortured, unjust. Nowadays in this age of internet, an influential community always targets another weak helpless community, it always keeps doing evil to each other. What he believes to be religion, he does not know that what he is doing is called unrighteousness. Human beings should always spend their energy for good. Although I agree that a lion among 100 dogs also becomes weak. The tendency of man has always been social organization, he cannot live without society because society will not let you remain calm alone. He will always continue to face various kinds of problems and will never let him walk on the path of religion because it is his variable. He feels happy when he sees the loss of another. Because I am always in the position of elevating myself, when he cannot get up, then he creates a barrier in the middle of the adviser and spends all his life in a malice.

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My life

मेरा जीवन जीने का उद्देश्य, मात्र प्राणी सेवा है।

मेरा जीवन जीने का उद्देश्य, मात्र प्राणी सेवा है। सच्ची सेवा अगर देखनी हो, तो उन पेड़-पौधों से देखो जो भले और बुरे दोनों को समान भाव से फल व छाया प्रदान करते हैं। संसार में अगर आप किसी को बड़ा समझते हो तो, निश्चित ही वह सेवक है। प्राणियों की सेवा से आत्मा को शक्ति मिलती है। और आत्मशक्ति ही मनुष्य को बड़ा बनाती है। सेवाभावी मनुष्य हजारों में अलग ही नजर आता है। ऐसे लोगों में आत्म बल भरपूर होता है। चींटी से लेकर हाथी तक सभी ईश्वर का स्वरूप है। जो लोग इन्हें परेशान और दुखी करते हैं, वह ईश्वर को दुखी करते हैं, और जो सभी प्राणियों में सेवा का भाव रखते हैं, वे परमात्मा की सेवा करते हैं ।

       जीवन बिताने के लिए तो जानवर भी समूह बनाकर अपना आशियां (घर) बनाकर रहते हैं, पर वह जीवन किस काम का जो किसी के लिए सहारा ना बन सके। अगर सहारा भी ना बन सको, तो कम से कम किसी के लिए बाधा, तो मत बनो। आपसे अगर सेवा ना होती है, तो कोई बात नहीं। पर जो सेवा करते हैं। कम से कम उन्हें तकलीफ तो ना दो, अपने बच्चों को तो जानवर ही प्रेम करते हैं। कभी दूसरों को प्रेम देखकर देखो तो सही । ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट, करते-करते पता नहीं कितनी पीढ़ियां बीत गई। जो जहां था, जो जैसा था, वह आज भी वैसा ही है, फर्क है तो सिर्फ इतना है। आज आबादी ज्यादा है, क्षेत्र की कमी है, जिस वजह से अब तो सिर्फ घर बनाने की  कुछ जगह  मिल पाती है, और यह जीवन तो चारदीवारी के भीतर कैद होकर, यूं ही बीत जाता है। इन दीवारों को तोड़ दो, और सेवा के लिए अपने कदमों को निरंतर आगे बढ़ाते रहो। इस लोक में की गई सेवा परलोक में स्थान दिलाती है ।

    “खाया सो संग चला, बाटया सो हाथ, दसवन सिंह पौडिया, माल वीराणा होए।”

भोजन करने से शरीर चलता है, बांटा गया धन हमेशा हाथ में रहता है, दस इंद्रियों का यह शरीर जब नष्ट हो जाता है, संचित किया गया धन उसी के साथ पराया हो जाता है। वह आपके किसी काम का नहीं अतः व्यक्ति को हमेशा पुण्य कर्म करनी चाहिए। किसी को दिया गया धन जरूर वापस मिलता है। पर जो संचित किया गया था,  वह आपको कभी काम नहीं आएगा।

Since 1997, the National Bird Peacock Dana water is being provided by Shri Ramchandra Seva Dham Trust. The only trust of Nawalgarh is where the national bird is served and this is the most peacock found.

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