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Ramayana

श्रीरामावतार-वर्णनके प्रसङ्गमें रामायण-बालकाण्डकी संक्षिप्त कथा

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ ! अब मैं ठीक उसी प्रकार रामायणका वर्णन करूँगा, जैसे पूर्वकालमें नारदजीने महर्षि वाल्मीकिजीको सुनाया था। इसका पाठ भोग और मोक्ष दोनोंको देनेवाला है ॥ १ ॥
देवर्षि नारद कहते हैं- वाल्मीकिजी! भगवान् विष्णुके नाभिकमलसे ब्रह्माजी उत्पन्न हुए हैं। ब्रह्माजीके पुत्र हैं मरीचि। मरीचिसे कश्यप, कश्यपसे सूर्य और सूर्यसे वैवस्वतमनुका जन्म हुआ। उसके बाद वैवस्वतमनुसे इक्ष्वाकुकी उत्पत्ति हुई। इक्ष्वाकुके वंशमें ककुत्स्थ नामक राजा हुए। ककुत्स्थके रघु, रघुके अज और अजके पुत्र दशरथ हुए। उन राजा दशरथसे रावण आदि राक्षसोंका वध करनेके लिये साक्षात् भगवान् विष्णु चार रूपोंमें प्रकट हुए। उनकी बड़ी रानी कौसल्याके गर्भसे श्रीरामचन्द्रजीका प्रादुर्भाव हुआ। कैकेयीसे भरत और सुमित्रासे लक्ष्मण एवं शत्रुघ्नका जन्म हुआ। महर्षि ऋष्यश्रृङ्गने उन तीनों रानियोंको यज्ञसिद्ध चरु दिये थे, जिन्हें खानेसे इन चारों कुमारोंका आविर्भाव हुआ। श्रीराम आदि सभी भाई अपने पिताके ही समान पराक्रमी थे। एक समय मुनिवर विश्वामित्रने अपने यज्ञमें विघ्न डालनेवाले निशाचरोंका नाश करनेके लिये राजा दशरथसे प्रार्थना की (कि आप अपने पुत्र श्रीरामको मेरे साथ भेज दें)। तब राजाने मुनिके साथ श्रीराम और लक्ष्मणको भेज दिया। श्रीरामचन्द्रजीने वहाँ जाकर मुनिसे अस्त्र-शस्त्रोंकी शिक्षा पायी और ताड़का नामवाली निशाचरीका वध किया। फिर उन बलवान् वीरने मारीच नामक राक्षसको मानवास्त्रसे मोहित करके दूर फेंक दिया और यज्ञविघातक राक्षस सुबाहुको दल-बलसहित मार डाला। इसके बाद वे कुछ कालतक मुनिके सिद्धाश्रममें ही रहे। तत्पश्चात् विश्वामित्र आदि महर्षियोंके साथ लक्ष्मणसहित श्रीराम मिथिला नरेशका धनुष-यज्ञ देखनेके लिये गये ॥ २-९॥ [अपनी माता अहल्याके उद्धारकी वार्ता सुनकर संतुष्ट हुए] शतानन्दजीने निमित्त-कारण बनकर श्रीरामसे विश्वामित्र मुनिके प्रभावका वर्णन किया। राजा जनकने अपने यज्ञमें मुनियोंसहित श्रीरामचन्द्रजीका पूजन किया। श्रीरामने धनुषको चढ़ा दिया और उसे अनायास ही तोड़ डाला। तदनन्तर महाराज जनकने अपनी अयोनिजा कन्या सीताको, जिसके विवाहके लिये पराक्रम ही शुल्क निश्चित किया गया था, श्रीरामचन्द्रजीको समर्पित किया। श्रीरामने भी अपने पिता राजा दशरथ आदि गुरुजनोंके मिथिलामें पधारनेपर सबके सामने सीताका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया। उस समय लक्ष्मणने भी मिथिलेश-कन्या उर्मिलाको अपनी पत्नी बनाया। राजा जनकके छोटे भाई कुशध्वज थे। उनकी दो कन्याएँ थीं- श्रुतकीर्ति और माण्डवी। इनमें माण्डवीके साथ भरतने और श्रुतकीर्तिके साथ शत्रुघ्नने विवाह किया। तदनन्तर राजा जनकसे भलीभाँति पूजित हो श्रीरामचन्द्रजीने वसिष्ठ आदि महर्षियोंके साथ वहाँसे प्रस्थान किया। मार्गमें जमदग्निनन्दन परशुरामको जीतकर वे अयोध्या पहुँचे। वहाँ जानेपर भरत और शत्रुघ्न अपने मामा राजा युधाजित्‌की राजधानीको चले गये ॥ १०-१५ ॥

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धर्म ध्यान और ज्ञान

सच्ची साधन क्या है?

वास्तव मे साधना ही ज्ञान की पूंजी है । वे साधक (जो साधना मे लीन हो ) जिन्होंने इस भौतिक युग के भाग दौड भरे जीवन मे साधना का मार्ग चुना है वे सभी धन्य है ।निश्चित ही उनमे कोई अलौकिक शक्ति निहित है, जो उन्हे दूसरे से हटकर बनाते है।

इस संसार मे सभी अपने सुखो को भोग रहे है , जबकी उपभोग मे असली सुख नही है, जितना हम भौतिक सुख के पीछे भागेंगे उतना अधिक कष्ट हमे प्राप्त होगा। और जो साधना करके अपने बुरे कर्मो का पश्चाताप करते है । उन्हे सही मार्ग चुनने मे कभी परेशानी नही होती ।

जो साधना मे लीन रहते है , उनका सौभाग्य इससे भी सहस्त्र गुना अधिक हो जाता है । यानी अगर वह व्यक्ति थोड़ा भी सदस्य कर्म करता है तो उस साधना उसे दुगुना फल प्राप्त होता है ।उन्हे अपने जीवन मे कोई ऐसा गुरू मिल जाता है , जो उसकी दशा और दिशा दोनो बदल कर रख देता है।

और ये ही सत्य है कि मनुष्य का उद्धार सद कर्मो से ही होता है, जिस ईश्वर ने हमे यह जीवन दिया है , उसकी भक्ति और भजन का मार्ग ही उसे मुक्त करता है । यानी अन्य मुक्ती का मार्ग और कोई नही है । इसी लिये किसी कोई भी अपना परम गुरु या आदर्श मानकर उसके निमित्त साधना करना व उसके आदर्शो का पालन करना।

साधना ही जीवन का वो श्रेयस्कर तथा श्रेष्ठ विधा है जिसको अपनाने से ही जीवन मे सफलतायें मिलने के साथ-साथ अद्वितीय व्यक्तित्व तथा चारित्रिक का निर्माण होता है ।

साधना की महत्ता को समझने के लिए किसी गुरू की आवश्यकता होती है , गुरु का अभिप्राय सिर्फ मानव मात्र ही नही अपितु वह जड,चेतन,पशु,पक्षी,प्रकृति कोई भी हो सकता है। साधना मे लीन व्यक्ति के मन मे कभी भी बुरे भाव,विचार, चेष्टा,लोभ,कर्म का आगमन नही होना चाहिए । इससे साधना करने वाले व्यक्ति की साधना का कोई प्रभाव या महत्व नही रह जाता।

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Ayurveda

मृत्युञ्जय योगोंका वर्णन

भगवान् धन्वन्तरि कहते हैं- सुश्रुत ! अब मैं मृत्युञ्जय-कल्पोंका वर्णन करता हूँ, जो आयु देनेवाले एवं सब रोगोंका मर्दन करनेवाले हैं। मधु, घृत, त्रिफला और गिलोयका सेवन करना चाहिये। यह रोगको नष्ट करनेवाली है तथा तीन सौ वर्षतककी आयु दे सकती है। चार तोले, दो तोले अथवा एक तोलेकी मात्रामें त्रिफलाका सेवन वही फल देता है। एक मासतक बिल्व- तैलका नस्य लेनेसे पाँच सौ वर्षकी आयु और कवित्व शक्ति उपलब्ध होती है। भिलावा एवं तिलका सेवन रोग, अपमृत्यु और वृद्धावस्थाको दूर करता है। वाकुचीके पञ्चाङ्गके चूर्णको खैर (कत्था) के क्वाथके साथ छः मासतक प्रयोग करनेसे रोगी कुष्ठपर विजयी होता है। नीली कटसरैयाके चूर्णका मधु या दुग्धके साथ सेवन हितकर है। खाँडयुक्त दुग्धका पान करनेवाला सौ वर्षोंकी आयु प्राप्त करता है। प्रतिदिन प्रातः काल मधु, घृत और सोंठका चार तोलेकी मात्रामें सेवन करनेवाला मनुष्य मृत्युविजयी होता है। ब्राह्मीके चूर्णके साथ दूधका सेवन करनेवाले मनुष्यके चेहरेपर झुर्रियाँ नहीं पड़ती हैं और उसके बाल। नहीं पकते हैं; वह दीर्घजीवन लाभ करता है। मधुके साथ उच्चटा (भुई आँवला) को एक तोलेकी मात्रामें खाकर दुग्धपान करनेवाला मनुष्य मृत्युपर विजय पाता है। मधु, घी अथवा दूधके साथ मेउड़के रसका सेवन करनेवाला रोग एवं मृत्युको जीतता है। छः मासतक प्रतिदिन एक तोलेभर पलाश-तैलका मधुके साथ सेवन करके दुग्धपान करनेवाला पाँचे सौ वर्षोंकी आयु प्राप्त करता है। दुग्धके साथ काँगनीके पत्तोंके रसका या त्रिफलाका प्रयोग करे। इससे मनुष्य एक हजार वर्षोंकी आयु प्राप्त कर सकता है। इसी प्रकार मधुके साथ घृत और चार तोलेभर शतावरी चूर्णका सेवन करनेसे भी सहस्रों वर्षोंकी आयु प्राप्त हो सकती है। घी अथवा दूधके साथ मेठड़की जड़का चूर्ण या पत्रस्वरस रोग एवं मृत्युका नाश करता है। नीमके पञ्चाङ्ग चूर्णको खैरके क्वाथ (काढ़े) की भावना देकर भृङ्गराजके रसके साथ एक तोलाभर सेवन करनेसे मनुष्य रोगको जीतकर अमर हो सकता है। रुदन्तिकाचूर्ण घृत और मधुके साथ सेवन करनेसे या केवल दुग्धाहारसे मनुष्य मृत्युको जीत लेता है। हरीतकीके चूर्णको भृङ्गराजरसकी भावना देकर एक तोलेकी मात्रामें घृत और मधुके साथ सेवन करनेवाला रोगमुक्त होकर तीन सौ वर्षोंकी आयु प्राप्त कर सकता है। गेठी, लोहचूर्ण, शतावरी समान भागसे भृङ्गराज-रस तथा घीके साथ एक तोला मात्रा में सेवन करनेसे मनुष्य पाँच सौ वर्षकी आयु प्राप्त करता है। लौहभस्म तथा शतावरीको भृङ्गराजके रसमें भावना देकर मधु एवं घीकें साथ लेनेसे तीन सौ वर्षकी आयु प्राप्त होती है। ताम्र भस्म, गिलोय, शुद्ध गन्धक समान भाग घीकुँवारके रसमें घोटकर दो-दो रत्तीकी गोली बनाये। | इसका घृतसे सेवन करनेसे मनुष्य पाँच सौ वर्षकी आयु प्राप्त करता है। असगन्ध, त्रिफला, चीनी, तैल और घृतमें सेवन करनेवाला सौ वर्षतक जीता है। गदहपूर्नाका चूर्ण एक पल मधु घृत और दुग्धके साथ भक्षण करनेवाला भी शतायु होता है। अशोककी छालका एक पल चूर्ण मधु और घृतके साथ खाकर दुग्धपान करनेसे रोगनाश होता है। निम्बके तैलकी मधुसहित नस्य लेनेसे मनुष्य सौ वर्ष जीता है और उसके केश सदा काले रहते हैं। बहेड़ेके चूर्णको एक तोला मात्रामें शहद, घी और दूधसे पीनेवाला शतायु होता है। मधुरादिगणकी ओषधियों और हरीतकीको गुड़ और घृतके साथ खाकर दूधके सहित अन्न भोजन करनेवालोंके केश सदा काले रहते हैं तथा वह रोगरहित होकर पाँच सौ वर्षोंका जीवन प्राप्त करता है। एक मासतक सफेद पेठेके एक पल चूर्णको मधु, घृत और दूधके साथ सेवन करते हुए दुग्धान्नका भोजन करनेवाला नीरोग रहकर एक सहस्र वर्षकी आयुका उपभोग करता है। कमलगन्धका चूर्ण भाँगरेके रसकी भावना देकर मधु और घृतके साथ लिया जाय तो वह सौ वर्षोंकी आयु प्रदान करता है। कड़वी तुम्बीके एक तोलेभर तेलका नस्य दो सौ वर्षोंकीआयु प्रदान करता है। त्रिफला, पीपल और सोंठ -इनका प्रयोग तीन सौ वर्षोंकी आयु प्रदान करता है। इनका शतावरीके साथ सेवन अत्यन्त बलप्रद और सहस्र वर्षोंकी आयु प्रदान करनेवाला है। इनका चित्रकके साथ तथा सोंठके साथ विडंगका प्रयोग भी पूर्ववत् फलप्रद है। त्रिफला, पीपल और सोंठ – इनका लोह, भृङ्गराज, खरेटी, – निम्ब-पञ्चाङ्ग, खैर, निर्गुण्डी, कटेरी, अडूसा और पुनर्नवाके साथ या इनके रसकी भावना देकर या इनके संयोगसे बटी या चूर्णका निर्माण करके उसका घृत, मधु, गुड़ और जलादि अनुपानोंके साथ सेवन करनेसे पूर्वोक्त फलकी प्राप्ति होती है। ‘ॐ हुं सः ‘ – इस मन्त्रसे* अभिमन्त्रित योगराज मृतसंजीवनीके समान होता है। उसके सेवनसे मनुष्य रोग और मृत्युपर विजय प्राप्त करता है। देवता, असुर और मुनियोंने इन कल्प-सागरोंका सेवन किया है ॥ १-२३ ॥

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धर्म मन्त्र-विद्या

मन्त्र-विद्या

अग्रिदेव कहते हैं- वसिष्ठ ! अब मैं भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली मन्त्र-विद्याका वर्णन करता हूँ, ध्यान देकर उसका श्रवण कीजिये । द्विजश्रेष्ठ! बीससे अधिक अक्षरोंवाले मन्त्र ‘मालामन्त्र’ दससे अधिक अक्षरोंवाले ‘मन्त्र’ और दससे कम अक्षरोंवाले ‘बीजमन्त्र’ कहे गये हैं। ‘मालामन्त्र’ वृद्धावस्थामें सिद्धिदायक होते हैं, ‘मन्त्र’ । यौवनावस्थामें सिद्धिप्रद है। पाँच अक्षरसे अधिक तथा दस अक्षरतकके मन्त्र बाल्यावस्थामें सिद्धि न प्रदान करते हैं*। अन्य मन्त्र अर्थात् एकसे लेकर पाँच अक्षरतकके मन्त्र सर्वदा और सबके लिये सिद्धिदायक होते हैं ॥ १-२६ ॥

मन्त्रोंकी तीन जातियाँ होती हैं-स्त्री, पुरुष और नपुंसक। जिन मन्त्रोंक अन्तमें ‘स्वाहा’ पदका प्रयोग हो, वे स्त्रीजातीय हैं। जिनके अन्तमें ‘नमः’ पद जुड़ा हो, वे मन्त्र नपुंसक हैं। शेष सभी मन्त्र पुरुषजातीय हैं। वे वशीकरण और उच्चाटन – कर्ममें प्रशस्त माने गये हैं। क्षुद्रक्रिया तथा रोग निवारणार्थ अर्थात् शान्तिकर्ममें स्त्रीजातीय मन्त्र’ उत्तम माने गये हैं। इन सबसे भिन्न (विद्वेषण एवं अभिचार आदि) कर्ममें नपुंसक मन्त्र उपयोगी बताये गये हैं ।। ३-४ ॥

मन्त्रोंके दो भेद हैं-‘आग्रेय’ और ‘सौम्य’ | जिनके आदिमें ‘प्रणव’ लगा हो, वे ‘आग्रेय’ हैं और जिनके अन्तमें ‘प्रणव’का योग है, वे ‘सौम्य’ कहे गये हैं। इनका जप इन्हीं दोनोंके कालमें करना चाहिये (अर्थात् सूर्य-नाड़ी चलती हो तो ‘आग्रेय-मन्त्र’का और चन्द्र-नाड़ी चलती हो तो ‘सौम्य मन्त्रों का जप करे)। जिस मन्त्र में तार (ॐ), अन्त्य (क्ष), अग्नि (र), वियत् (ह) – इनका बाहुल्येन प्रयोग हो, वह ‘आग्रेय’ माना गया है। शेष मन्त्र ‘सौम्य’ कहे गये हैं। ये दो प्रकारके मन्त्र क्रमशः क्रूर और सौम्य कर्मोंमें प्रशस्त माने गये हैं। ‘ ‘आग्रेय मन्त्र’ प्रायः अन्तमें ‘नमः’ पदसे युक्त होनेपर ‘सौम्य’ हो जाता है और ‘सौम्य मन्त्र भी अन्तमें ‘फट्’ लगा देनेपर ‘आग्रेय’ हो जाता है। यदि मन्त्र सोया हो या सोकर तत्काल ही जगा हो तो वह सिद्धिदायक नहीं होता है। जब वामनाड़ी चलती हो तो वह ‘आग्रेय मन्त्र’ के सोनेका समय है और यदि दाहिनी नाड़ी (नासिकाके दाहिने छिद्रसे साँस ) चलती हो तो वह उसके जागरणका काल है। ‘सौम्य मन्त्र’ के सोने और जागनेका समय इसके विपरीत है। अर्थात् वामनाड़ी (साँस) उसके जागरणका और दक्षिणनाड़ी उसके शयनका काल है। जब दोनों नाड़ियाँ साथ-साथ चल रही हों, उस समय आग्रेय और सौम्य-दोनों मन्त्र | जगे रहते हैं। (अतः उस समय दोनोंका जप किया जा सकता है’।) दुष्ट नक्षत्र, दुष्ट राशि तथा शत्रुरूप आदि अक्षरवाले मन्त्रोंको अवश्य त्याग देना चाहिये ।। ५-९६ ॥

(नक्षत्र चक्र)

राज्यलाभोपकाराय प्रारभ्यारिः स्वरः कुरून् ॥ गोपालकुकुटीं प्रायात् फुल्लावित्युदिता लिपि:’ । 

(साधकके नामके प्रथम अक्षरको तथा मन्त्रके आदि अक्षरको लेकर गणना करके यह जानना है कि उस साधकके लिये वह मन्त्र ह अनुकूल है या प्रतिकूल ? इसीके लिये उपर्युक्त श्लोक एक संकेत देता है – ) ‘राज्य से लेकर ‘फुल्लौ’ तक लिपिका ही संकेत है। ‘इत्युदिता लिपि:’ इस प्रकार लिपि कही उ गयी है। ‘नारायणीय-तन्त्र ‘में इसकी व्याख्या करते हुए कहा गया है कि अश्विनीसे लेकर अ उत्तरभाद्रपदातकके छब्बीस नक्षत्रोंमें ‘अ’से लेकर ‘ह’ तकके अक्षरोंको बाँटना है। किस नक्षत्रमें कितने अक्षर लिये जायेंगे, इसके लिये उपर्युक्त श्लोक संकेत देता है। ‘रा’ से ‘ल्लौ’ तक छब्बीस अक्षर हैं; वे छब्बीस नक्षत्रोंके प्रतीक हैं। तन्त्रशास्त्रियोंने अपने संकेतवचनोंमें केवल व्यञ्जनोंको ग्रहण किया है और समस्त व्यञ्जनोंको कवर्ग, टवर्ग, पवर्ग तथा यवर्गमें बाँटा है। संकेत-लिपिका जो अक्षर जिस वर्गका प्रथम, द्वितीय, तृतीय या चतुर्थ अक्षर है, उससे उतनी ही संख्याएँ ली जायँगी। संयुक्ताक्षरोंमेंसे अन्तिम अक्षर ही गृहीत ब होगा। स्वरोंपर कोई संख्या नहीं है। उपर्युक्त श्लोकमें पहला अक्षर ‘रा’ है। यह यवर्गका दूसरा अक्षर है, अतः उससे दो संख्या ली । जायगी। इस प्रकार ‘रा’ यह संकेत करता है कि अश्विनी नक्षत्रमें दो अक्षर ‘अ आ’ गृहीत होंगे। – दूसरा अक्षर है ‘ज्य’, यह संयुक्ताक्षर है, इसका अन्तिम अक्षर ‘य’ गृहीत होगा। वह अपने वर्गका प्रथम अक्षर है, अतः एकका बोधक होगा। इस प्रकार पूर्वोक्त ‘ज्य ‘के संकेतानुसार भरणी नक्षत्रमें एक अक्षर ‘इ’ लिखा जायगा। इस बातको ठीक समझनेके लिये निम्नाङ्कित

  • महाकपिल रात्र तथा श्रीविद्यार्णव-तन्त्र’ में मालामन्त्रोंको ‘वृद्ध’ मन्त्रोंको ‘युवा’ तथा पाँचसे अधिक और दस अक्षरतकके मन्त्रोको ‘बाल’ बताया गया है। ‘भैरवी-तन्त्र’ में सात अक्षरवाले मन्त्रको ‘चाल’, आठ अक्षरवाले मन्त्रको ‘कुमार’, सोलह अक्षरोंक
  • मन्त्रको ‘तरुण’ तथा चालीस अक्षरोंके मन्त्रको ‘प्रौढ़’ बताया गया है। इससे ऊपर अक्षर संख्यावाला मन्त्र ‘वृद्ध’ कहा गया है।
  • हृदयान्ता मया २. ‘कुल प्रकाश- तन्त्र में स्त्रीजातीय मन्त्रोंको शान्तिकर्ममें उपयोगी बताया गया है। शेष बातें अग्रिपुराणके ही अनुसार स्त्रीमन्त्रा वहिजापान्ता नपुंसकाः । शेषाः पुमांस इत्युक्ताः स्त्रीमन्त्राः सादिशान्तिके ॥ नपुंसकाः स्मृता चाभिचारके । पुमांसः स्युः स्मृताः सर्वे बध्योच्चाटनकर्मसु ॥
  • १. ‘शारदातिलक की टीकामें उद्धृत प्रयोगसार ‘में शब्दभेदसे यही बात कही गयी है। श्रीनारायणीय-तन्त्र में तो ठीक ‘अग्निपुराण’ की आनुपूर्वी हो प्रयुक्त हुई है।
  • (श्रीविद्यार्णवतन्त्र २ उच्च्छास)
  • ‘प्रयोगसार ‘में’ वषट्’ और ‘फट्’ जिनके अन्तमें लगें, ये ‘पुल्लिङ्ग’ ‘पौषट्’ और ‘स्वाहा’ अन्तमें लगें, वे ‘स्त्रीलिङ्ग’ तथा ‘हुं नमः’ जिनके अन्तमें लगें, वे ‘नपुंसक लिङ्ग मन्त्र कहे गये हैं।
  • ३. ‘श्रीनारायणीय-तन्त्र में भी यह बात इसी आनुपूर्वीमें कही गयी है।
  • ४. ‘शारदातिलक’ में सौम्य मन्त्रोंकी भी सुस्पष्ट पहचान दी गयी है— जिसमें ‘सफार’ अथवा ‘यकार का बाहुल्य हो, यह ‘सौम्य- मन्त्र’ है। जैसा कि वचन है-‘सौम्या भूमिनेन्द्रमृताक्षराः । ‘
  • ५. ‘शारदातिलक’ में भी ‘विज्ञेयाः क्रूरसौम्ययो: ‘ कहकर इसी आतकी पुष्टि की गयी है। ईशानशम्भुने भी यही बात कही है- ‘स्यादाग्नेयैः क्रूरकार्यप्रसिद्धिः सौम्मीः सौम्यं कर्म कुर्याद् यथावत्।
  • ६. ईशानशम्भुने भी ऐसा ही कहा है- आग्नेयोऽपि स्यात्तु सौम्यो नमोऽन्तः सौम्योऽपि स्यादग्निमन्त्रः फडन्तः । ‘नारायणीय-तन्त्र में यही बात यों कही गयी है- आयमन्त्रः सौम्यः स्यात् प्रायशोऽन्ते नमोऽन्वितः । सौम्यमन्त्रस्तथाऽऽप्रेयः फटकारेणान्वितोऽन्ततः ॥ किया जा सकता है’।) दुष्ट नक्षत्र, दुष्ट राशि तथा शत्रुरूप आदि अक्षरवाले मन्त्रोंको अवश्य त्याग देना चाहिये ।। ५-९६ ॥
  • १. ‘बृहन्नारायणीय- तन्त्र’ में इसी भावकी पुष्टि निम्नाति श्लोकोंद्वारा की गयी है-
  • सुप्तः प्रयुद्धमात्रो वा मन्त्रः सिद्धिं न यच्छति । स्वापकालो वामवहो जागरो दक्षिणावहः ॥ आप्रेयस्य मनोः सौम्यमन्त्रस्यैतद्विपर्ययः । प्रबोधकालं जानीयादुभयोरुभयावहः ॥ स्थापकाले मन्त्रस्य जपो ऽनर्थफलप्रदः ।
  • इसमें स्पष्ट कहा गया है कि मन्त्र जब सो रहा हो, उस समय उसका जप अनर्थ फलदायक होता है। ‘नारायणीय-तन्त्र में ‘स्वाप’ और ‘जागरणकाल’को और भी स्पष्टताके साथ बताया गया है। वामनादी, इडानाड़ी और चन्द्रनाड़ी एक वस्तु है तथा दक्षिणनाही, सूर्यनाड़ी एवं पिङ्गलानाड़ी एक अर्थके वाचक पद हैं। पिङ्गसानादीमें श्वासवायु चलती हो तो ‘आग्रेय मन्त्र’ प्रबुद्ध होते हैं, इडानादीमें श्वासवायु चलती हो तो ‘सोममन्त्र’ जाग्रत् रहते हैं। पिङ्गला और इडा दोनोंमें बासवायुकी स्थिति हो अर्थात् यदि सुषुम्णामें वासवायु चलती हो तो सभी मन्त्र प्रयुद्ध (जाग्रत्) होते हैं। प्रबुद्ध मन्त्र ही साधकोंको अभीष्ट फल देते हैं। यथा-
  • पिङ्गलायां गते वायी प्रबुद्धा ह्यग्रिरूपिणः । इडां गते तु पवने बुध्यन्ते सोमरूपिणः ॥ पिङ्गलेडागते वायौ प्रबुद्धाः सर्व एव हि प्रयुद्धा मनवः सर्वे साधकानां फलन्त्युमे ॥
  • २. जैसा कि ‘भैरवी तन्त्र’ में कहा गया है- दुष्टराशिमूलेभूतादिवर्णप्रचुरमन्त्रकम्
  • । सम्यक् परीक्ष्य तं यत्नाद् वर्जयेन्मतिमान् नरः ॥ ३. श्रीरुद्रयामल ‘में तथा ‘नारायणीय तन्त्र में भी यह श्लोक आया है, जो लिपि (अक्षर)का संकेतमात्र है। इसमें शब्दार्थ अपेक्षित नहीं है। ‘शारदातिलक’ में दूसरा श्लोक संकेतके लिये प्रयुक्त हुआ है। इसमें छब्बीस नक्षत्रोंमें अक्षरोंके विभाजनका संकेत है, जो ज्यौतिषकी प्रक्रियासे भिन्न है।
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धर्म ध्यान और ज्ञान पवित्र आत्मा

मैं एक पवित्र आत्मा हूं

जब कहीं भीआत्मा को जानने की जिज्ञासा होती है । तो हमेशा यह अच्छी तरह समझना चाहिए कि संसार में आत्मा नाम की शक्ति अगर है तो वह अनंत रूप में सर्वत्र होकर भी एक है ठीक उसी तरह जैसे पानी में नमक की मात्रा मिलने पर सर्वत्र एक होती है । आत्मा प्रत्येक जीव में विद्यमान है । जहां भीआपकी सोच जाती है, वहां तक आत्मा का एक रूप विराजमान है । अब लोग बाग़ कहते हैं इस व्यक्ति में बुरी आत्मा का प्रवेश हो गया है ऐसा नहीं होताआत्मा तो एक ही थी पर जिसमें बुरी आत्मा का प्रवेश होना बता रहे हैं । उस जगह की कर्म ही बुरे थे और दोस आत्मा के दिया जाता है । आत्मा सदैव पवित्र है , निर्मल है , सर्वव्यापी है , आत्मा मेंकोई भेद नहीं है । भेद की दृष्टि से अगर देखा जाएतो जीवसंसार में अनंत प्रकार के पाए जाते हैं और उनके कर्म भी अनंत प्रकार के होते हैं । जिसके परिणाम स्वरूप जो मनुष्य को बुरा लगता है जिसे दूसरों का अहित होता है , वह जीव कठोर दुष्ट प्रवृत्ति का कहलाता है । ऐसे हीअलग-अलग तरह  के जीवन में विभिन्न प्रकार के स्वभाव पाए जाते हैं । जो उन्हें भला और बुरा बनाते हैं । तो हमेशा कोशिश यह करोकि आपकी आत्मा हमेशा पवित्र बनी रहे हमेशा सोच यह बनाई रखो …..

मैं एक पवित्र आत्मा हूं । मुझे अगर पहचाना है तो उस दीपक को देखो जिसके नीचे हमेशा अंधेरा रहता है । जो खुद जलकर दुनिया को प्रकाशित करता है और जो इससे आकर्षित होकर इसे जानना चाहते हैं, वह खुद इसमें (कीट पतंग की तरह) स्वाहा हो जाते हैं और जो इसकी सेवा ( तेल या घी डालना) करते हैं मैं हमेशा उन्हें प्रकाशित करता हूं

मैं आत्मा ही तो हूं , जो तुम्हारे बाहर और भीतर सर्वत्र सदैव विद्यमान रहती है । मैं ही गुरु हूं , मैं ही देवता हूं और मैं ही भगवान हूं । सर्वत्र मेरे होते हुए भी जीव दुखी है । इसकी वजह उस जीव का अज्ञान है । जो प्राणी मात्रा में भेद करता है । अपना और पराया समझता है , जब कि मै सदैव एक ही हू॔। दूसरे का बुरा करना मेरा ही बुरा है । दूसरे का भला करना वह भी मेरा ही  है । यह तो जीव को समझना है कि उसे क्या करता है । मैं आत्मा हूं । अजर हूं । अमर हूं । मेरा ना कोई बुरा कर सकताऔर ना ही भला , जीव अपने कर्मों से ही अपनी पोटली सर पर रखकर घूमता फिरता है । इसमें मेरा कोई दोस नहीं । ईश्वर कहते हैं , संसार से उबरने काअगर कोई रास्ता है तो वह सिर्फ सेवा करना है । इसके अलावा कोई रास्तामेरे तक नहीं पहुंच पाता है । बिना सेवा के मनुष्य यूं ही मेरे ब्रह्म के जाल में फंसा रहता है ।

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धर्म

सनातन धर्म क्या है,हमें क्या सीख देता है ?

सनातन’ का अर्थ है – शाश्वत या ‘सदा बना रहने वाला’, अर्थात् जिसका न आदि है न अन्त। सनातन धर्म मूलतः भारतीय धर्म है, जो किसी समय पूरे बृहत्तर भारत (भारतीय उपमहाद्वीप) तक व्याप्त रहा है और यह एक समय पर विश्व व्याप्त था परंतु विभिन्न कारणों से हुए भारी धर्मान्तरण के उपरांत भी विश्व के इस क्षेत्र की बहुसंख्यक जनसंख्या इसी धर्म में आस्था रखती है।

सनातन धर्म एक ऐसी व्यवस्था है जहां संपूर्ण विश्व को एक ही रूप में देखा जाता है यहां प्रत्येक जीव को परमात्मा के स्वरूप में देखा जाता है सनातन शब्द में ही इसका भाव छुपा है सनातन “सनातन धर्म” का अर्थ “सना+तन” “ध+रम”। “सना” का अर्थ “श्वास” से “तन”का अर्थ “शरीर” से है। जब मनुष्य जन्म लेता तो वह जब पहली श्वास से इसकी शुरुआत होती है तो इसे सनातन कहते है। इसको जब हम उल्टा करते हैं तो शब्द बनता है  नतनास (जो सदैव दूसरों की सेवा में नतमस्तक होकर रहता है उसका कभी नाश नहीं होता)सनातन धर्म प्रत्येक प्राणी को अपनी इच्छा के अनुरूप जीवन जीने का अधिकार देता है यहां भली-भांति यह सीख दी जाती है की सर्वप्रथम आप अपने माता-पिता को भगवान के स्वरूप में पूजा (सेवा) करें फिर उसके बाद जो पशु हमें दूध पिलाते हैं जैसे गौ माता व समस्त पशुधन जिसकी होली और दीपावली पर पूजा की जाती है व श्रृंगार किया जाता है जिससे हमारे बच्चों में सदैव प्रत्येक जानवर के प्रति प्रेम और मातृत्व का भाव बना रहे यह हमारे वेद और पुराणों की ही तो शिक्षा है जिसकी वजह से दत्तात्रेय नमक संत हुए थे जो भगवान के अवतार कहा आए थे उनके 24 गुरु बने थे जिम कुत्ते घोड़े गधे तक भी शामिल थे यह सनातन ही तो है जहां अपनी मिट्टी से इतना प्रेम होता है की मिट्टी के हर कण में उसे परमात्मा के अंश को देखा है समस्त जीव और जीवन के बीच अखंड प्रीति अगर कहीं देखी जा सकती है तो वह एकमात्र सनातन धर्म जिसको वर्तमान में हिंदू धर्म कहते हैं बस यही है इसके अलावा नजर प्रसार कर देखो इतना अधिक प्रेम जीवन के प्रति दिखाई नहीं देता

हमारे भारत की इस धरती पर महापुरुषों की कमी नहीं हुई कभी जिसकी वजह अगर देखी जाए तो वह सिर्फ यही है की सनातन हमें जीवो के प्रति प्रेम रखते हुए सभी के प्रति त्याग का भाव सीखना है और यह त्यागी तो है जो मनुष्य को बड़ा बनता है वह वृक्ष किस काम का जो किसी को छाया ही ना दे जो बुके की भूख ना मिटा सके वह भी किसी काम का इसलिए संसार में अगर कोई भगवान का स्वरूप है तो वह त्याग है बलिदान है जो हमेशा दूसरों के लिए अपना सर्वस्व स्वाहा करने में तत्पर रहता है

आज हमारे देश में अक्सर देखने में आता है की राजनीतिक संगठन जो अपने आप को धर्म के पहरेदार बात कर संसार को बरगलाकर अपनी  झूठी चिकनी चुपड़ी बातों से मुर्ख बनाकर धर्म की नई नई परिभाषाएं बताते हैं पर सच पूछो तो वह धर्म नहीं हो सकता जहां निजता के स्वार्थ छुपे हो वह धर्म कभी नहीं हो सकता जहां सिर्फ हम अपना ही भला सोचते हो अपने परिवार का भला सोचते हो धर्म सिर्फ वही है जहां निजता को छोड़कर सर्वव्यापी एक रूप संसार को जैसे हम सांस लेते हैं वही सांस प्रत्येक जीव लेता है  जो सूर्य के ताप से प्रत्येक प्राणी अपनी दिनचर्या पूरी करता है और वह समंदर का पानी जो सबके लिए समान रूप से प्रवाहित होता है और वह धरती जिसके आंगन पर सभी समान रूप से जीवन यापन करते हैं और वह आसमान जिसकी छत के तले सभी एक घर बनाकर जीवन यापन करते हैं यह सब समझते हुए भी इतनी दूरी होने की वजह सिर्फ अज्ञान रूपी अधर्म  है वह धर्म कभी नहीं होता जो एक दूसरे को तोड़ता हो धर्म का कार्य सिर्फ जोड़ना अपनी वास्तविकता का ज्ञान करवाना है

क्या हमारे देश में भगवान के स्वरूप में भगवत गीता के अर्जुन और कृष्णा अवतार नहीं हुए क्या रामायण के राम अवतार नहीं हुए अगर वर्तमान स्थिति देखें तो क्या गौतम बुद्ध अवतार नहीं हुए क्या महावीर अवतार नहीं हुए क्या पैगंबर अवतार नहीं हुए और तो और कुछ दिनों पहले एक मदर टेरेसा के नाम से स्त्री क्या वह अवतार नहीं थी और तो और सरल भाषा में समझा जाए तो क्या यहां जीवित प्रत्येक वह प्राणी जो सदैव अपने जीवन को लोक हितार्थ समस्त जन कल्याणकारी कार्यों में लगाने वाला अवतार नहीं है बिना हरि कृपा के बिना परमात्मा की कृपा की किसी से कोई सेवा नहीं हो सकती सेवा सिर्फ वही होगी जहां परमात्मा का अवतरण हुआ है और मैं ऐसे लोगों को जो सदैव सेवा में तल्लीन रहते हैं वे चाहे किसी भी संप्रदाय से हैं उदाहरण के लिए वह अपने आप को ईसाई धर्म कहते हैं चाहे मुसलमान धर्म चाहे सिख धर्म चाहे जैन धर्म और अनंत जिनका मैं यहां बखाना नहीं कर सकता वे सब कथा कथित धर्म इन सब में भी अगर ऐसा इंसान हो जो त्यागी हो सेवक हो ज्ञानी हो और गुनी हो तो मैं उसको भगवान का अवतार ही समझूंगा इसके अगर किसी की विपरीत सोच है तो उसे मैं धर्म ना समझ कर अधर्म मानता हूं                  

काश हमारे देश में वेद और पुराणों की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाती अगर ऐसा होता तो यहां हमारा समाज छोटे-छोटे टुकड़ों में बिखरता नहीं यह अज्ञान ही तो हैजो संप्रदाय विशेष को धर्म कहते हैं जबकि धर्म का भाव सेवा से वह किसी भी संप्रदाय विशेष का व्यक्ति कर सकता है और जो सेवा देने की चेष्टा में तत्पर रहता है वही तो अधर्म है ज्यादातर प्राणी धर्म की मर्यादाओं को भूलकर अधर्म के साथ ही रहना पसंद करते हैं क्योंकि अधर्म में सब कुछ फोकट का मिलता है धर्म एक तपस्या है वह सभी प्राणी नहीं करते यह सब मेरे व्यक्तिगत विचार है

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Ramayana धर्म ध्यान और ज्ञान

रामायण की इन चौपाइयों का करें पाठ, सभी मनोकामनाएं भी होंगी पूरी,  हर संकट होगा दूर

जीवन के किसी न किसी मोड़ पर इंसान के सामने कोई ऐसी विपत्ति आ खड़ी होती है, जिससे पार पाने में वह खुद को असमर्थ पाता है। ऐसे में हर कोई अपने इष्टदेव का नाम लेता है। इसके अलावा कई ऐसे मंत्र हैं, जो इंसान को किसी भी तरह के संकट से छुटकारा दिलाने में मददगार साबित हो सकते हैं। अगर आपको भी किसी तरह का संकट या चिंता सता रही है, तो आप मानस मंत्र का सहारा ले सकते हैं। वैसे तो रामायण की हर चौपाई अपने आप में मंत्र जैसा प्रभाव रखती है, पर कुछ चौपाइयों का मंत्र के रूप में प्रयोग प्रचलित है, जो आपको संकट से उबारने में मदद करते हैं। साथ ही किसी भी तरह की मनोकामना को भी पूरी करते हैं। आइए जानते हैं रामचरितमानस की कुछ चौपाइयों के बारे में, जो एकदम सरल एवं बेहद प्रभावकारी हैं। जीवन में किसी भी तरह की परेशानी में आप इसका जाप कर सकते हैं। मान्यता है कि इससे आपको जरूर लाभ मिलेगा…

परीक्षा में सफलता के लिए रामायण चौपाई

जेहि पर कृपा करहिं जनुजानी।
कवि उर अजिर नचावहिं बानी।।
मोरि सुधारहिं सो सब भांती।
जासु कृपा नहिं कृपा अघाती।|

लक्ष्मी प्राप्ति के लिए रामायण चौपाई

जिमि सरिता सागर मंहु जाही।
जद्यपि ताहि कामना नाहीं।।
तिमि सुख संपत्ति बिनहि बोलाएं।
धर्मशील पहिं जहि सुभाएं।।

रिद्धि-सिद्धि की प्राप्ति के लिये रामायण चौपाई

साधक नाम जपहिं लय लाएं।
होहि सिद्धि अनिमादिक पाएं।।

प्रेम वृद्धि के लिए रामायण चौपाई

सब नर करहिं परस्पर प्रीती।
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुतिनीती।।

धन-संपत्ति की प्राप्ति के लिए रामायण चौपाई

जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं।
सुख सम्पत्ति नानाविधि पावहिंII

सुख प्राप्ति के लिए रामायण चौपाई

सुनहि विमुक्त बिरत अरू विबई।
लहहि भगति गति संपति नई।।

विद्या प्राप्ति के लिए रामचरितमानस चौपाई

गुरु ग्रह गए पढ़न रघुराई।
अलपकाल विद्या सब आई।।

शास्त्रार्थ में विजय पाने के लिए रामायण चौपाई

तेहि अवसर सुनि शिव धनु भंगा।
आयउ भृगुकुल कमल पतंगा।।

ज्ञान प्राप्ति के लिए रामचरितमानस चौपाई

तेहि अवसर सुनि शिव धनु भंगा।
आयउ भृगुकुल कमल पतंगा।।

विपत्ति में सफलता के लिए रामायण चौपाई

राजिव नयन धरैधनु सायक।
भगत विपत्ति भंजनु सुखदायक।।

पुत्र प्राप्ति के लिए रामायण चौपाई

प्रेम मगन कौशल्या निसिदिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बाल चरित कर गान।।

दरिद्रता दूर करने के लिए रामचरितमानस चौपाई

अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के ।
कामद धन दारिद्र दवारिके।।

अकाल मृत्यु से बचने के लिए रामचरितमानस चौपाई

नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित प्रान केहि बात।।

रोगों से बचने के लिए

दैहिक दैविक भौतिक तापा।
राम काज नहिं काहुहिं व्यापा।।

जहर को खत्म करने के लिए

नाम प्रभाऊ जान सिव नीको।
कालकूट फलु दीन्ह अमी को।।

खोई हुई वास्तु वापस पाने के लिए

गई बहारे गरीब नेवाजू।
सरल सबल साहिब रघुराजू।।

शत्रु को मित्र बनाने के लिए

वयरू न कर काहू सन कोई।
रामप्रताप विषमता खोई।।

भूत प्रेत के डर को भगाने के लिए

प्रनवउ पवन कुमार खल बन पावक ग्यान धुन।
जासु हृदय आगार बसहि राम सर चाप घर।।

ईश्वर से माफ़ी मांगने के लिए

अनुचित बहुत कहेउं अग्याता।
छमहु क्षमा मंदिर दोउ भ्राता।।

सफल यात्रा के लिए

प्रबिसि नगर कीजै सब काजा।
हृदय राखि कौशलपुर राजा।।

वर्षा की कामना की पूर्ति के लिए

सोइ जल अनल अनिल संघाता।
होइ जलद जग जीवनदाता।।

मुकदमा में विजय पाने के लिए

पवन तनय बल पवन समानाI

बुधि विवके बिग्यान निधाना।।

प्रसिद्धि पाने के लिए

साधक नाम जपहिं लय लाएं।

होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएं।।

विवाह के लिए

तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज संवारि कै।

मांडवी श्रुतिकीरित उरमिला कुंअरि लई हंकारि कै।।

किसी भी संकट को दूर करने के लिए

दीनदयाल बिरिदु सम्भारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।

रोजगार पाने के लिए

विस्व भरण पोषण कर जोई। ताकर नाम भरत जस होई।।

यात्रा की सफलता के लिए

प्रबिसि नगर कीजै सब काजा। ह्रदय राखि कोसलपुर राजा।।

आलस्य से मुक्ति पाने के लिए

हनुमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रणाम।

राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहां विश्राम।।

सभी मनोरथ को पूरा करने के लिए

भव भेषज रघुनाथ जसु,सुनहि जे नर अरू नारि।

तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहि त्रिसिरारि।।

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My life धर्म ध्यान और ज्ञान

श्रीमद्भागवत गीता में जीवन जीने का सार, जानिए कुछ अंश

श्रीमद्भागवत गीता में भगवान कृष्ण के द्वारा रण भूमि में अर्जुन को उपदेश दिए गए हैं। गीता की बातें मनुष्य को सही तरह से जीवन जीने का रास्ता दिखाती हैं। गीता के उपदेश हमें धर्म के मार्ग पर चलते हुए अच्छे कर्म करने की शिक्षा देते हैं। महाभारत में युद्ध भूमि में खड़े अर्जुन और कृष्ण के बीच के संवाद से हर मनुष्य को प्रेरणा लेनी चाहिए। चलिए जानते हैं…

  • जब अर्जुन युद्ध भूमि में जाते हैं तो अपने सामने पितामह और सगे संबंधियों को देखकर विचलित हो जाते हैं। तब भगवान श्री कृष्ण उन्हें सही ज्ञान देते हैं। श्री कृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं कि हे पार्थ ये युद्ध धर्म और अधर्म के मध्य है । इसलिए अपने शस्त्र उठाओ और धर्म की स्थापना करो। भगवान श्री कृष्ण धर्म के मार्ग पर चलने की शिक्षा देते हैं। मनुष्य को भी धर्म का पालन करना चाहिए।
  • गीता में कहा गया है कि क्रोध से भ्रम उत्पन्न होता है जिससे बुद्धि व्यग्र हो जाती है। भ्रमित मनुष्य अपने मार्ग से भटक जाता है। तब सारे तर्कों का नाश हो जाता है, जिसके कारण मनुष्य का पतन हो जाता है। इसलिए हमें अपने क्रोध पर नियंत्रण रखना चाहिए।
  • गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि मनुष्य को उसके द्वारा किए गए कर्मों के अनुसार ही फल प्राप्त होता है। इसलिए मनुष्य को सदैव सत्कर्म करने चाहिए। गीता में कही गई इन बातों को प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में मानना चाहिए। 
  • भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि आत्म मंथन करके स्वयं को पहचानो क्योंकि जब स्वयं को पहचानोगे तभी क्षमता का आंकलन कर पाओगे। ज्ञान रूपी तलवार से अज्ञान को काट कर अलग कर देना चाहिए। जब व्यक्ति अपनी क्षमता का आंकलन कर लेता है तभी उसका उद्धार हो पाता है।
  • भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि मृत्यु एक अटल सत्य है, किंतु केवल यह शरीर नश्वर है। आत्मा अजर अमर है, आत्मा को कोई काट नहीं सकता अग्नि जला नहीं सकती और पानी गीला नहीं कर सकता। जिस प्रकार से एक वस्त्र बदलकर दूसरे वस्त्र धारण किए जाते हैं उसी प्रकार आत्मा एक शरीर का त्याग करके दूसरे जीव में प्रवेश करती है।
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धर्म ध्यान और ज्ञान

ज्ञान का अर्थ, परिभाषा प्रकार, स्रोत, महत्व

मस्तिष्क में आई नवीन चेतना तथा विचारों का विकास स्वयं तथा देखकर होने लगा इस प्रकार से वह अपने वैचारिक क्षमता अर्थात् ज्ञान के आधार पर अपने नवीन कार्यों को करने एवं सीखने, किस प्रकार से कोई भी काम को आसान तरीके से किया जाये और उसे किस प्रकार से असम्भव बनाया जाये। इसी सोच विचारों की क्षमता या शक्ति को हम ज्ञान कहते है, जिसके आधार पर हम सभी प्रकार के कार्यों को करते है एवं निरन्तर आगे बढ़ते है अर्थात उन्नति करते है, यह उन्नति तरक्की और आगे बढ़ने की शक्ति ही व्यक्ति को और आगे बढ़ाने और अच्छे कार्य करने की प्रेरणा देती है जिससे वह सदैव सत्कर्म एवं निरन्तर उचित कार्य करता है और आगे बढ़ता रहता है इस प्रकार से सरल एवं सुव्यवस्थित जीवन को चलाने की प्रक्रिया ही हमें ज्ञान से अवगत कराती है। किसी की निश्चित समय में किसी भी व्यक्ति या सम्पर्क में आने वाली कोई भी वस्तु जो कि जीवन को चलाने के लिए उपयोग में आती है उसके प्रति जागरूकता तथा साझेदारी ही ज्ञान कहलाती है। ज्ञान के प्रकार (Types of Knowledge) हम अपने जीवन के अनुभवों के माध्यम से तथा निरीक्षण के माध्यम से प्राप्त करते है जो कि हमारे समक्ष घटित होती है घटना के आधार पर प्राप्त करते है। ज्ञान कितने प्रकार का होता है? 1. प्रयोगमूलक ज्ञान (Practical knowledge) – प्रयोजनवादी मानते है कि ज्ञान प्रयागे द्वारा प्राप्त होता है। हम विधियों का प्रयोग करके तथा किसी भी तथ्य को प्रयोग द्वारा समझते है व आत्मसात करते है। 2. प्रागनुभव ज्ञान (Preliminary knowledge) – स्वयं प्रत्यक्ष की भॉति ज्ञान को समझा जाता है जैसे गणित का ज्ञान प्रागनुभव ज्ञान है जो की सत्य है वह अनुभव के आधार पर होते है तथा-स्वयं में स्पष्ट एवं निश्चित ज्ञान प्रागनुभव ज्ञान होता है। ज्ञान के स्रोत (Sources of knowledge) मनुष्य सदैव स्रोतों के माध्यम से सीखता है ज्ञान के स्रोत ये है। प्रकृति (Nature) पुस्तकें (Books) इंद्रिय अनुभव (sense experience) साक्ष्य (Evidence) तर्क बुद्धि (Logic intelligence) अंतर्ज्ञान (Intuition) अन्त:दृष्टि द्वारा ज्ञान (Wisdom through insight) अनुकरणीय ज्ञान (Exemplary knowledge) जिज्ञासा (Curiosity) अभ्यास (Practice) संवाद (Dialogue) 1. प्रकृति (Nature) – प्रकृति ज्ञान का प्रमुख स्रोत है एवं प्रथम स्रोत है प्रत्येक मनुष्य ज्ञान प्राप्त करता है जन्म से पूर्व एवं जन्म के पश्चात जैसे अभिमन्यु ने चक्र व्यहू तोड़कर अन्दर जाना अपनी माता के गर्भ से ही सीखा था और हम आगे किस प्रकार से प्रत्यके व्यक्ति अपनी योग्यतानुसार प्रकृति से सीखता है जैसे- फलदार वृक्ष सदैव झुका रहता है कभी भी वह पतझड की तरह नहीं रहता हमेशा पंछियों को छाया देता रहता है। सूर्य ब्रहृमाण्ड का चक्कर लगाता है पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करता है यह क्रिया सब अपने आप होती है और उसी से दिन रात का होना और मौसम का बनना तथा इस प्रकार से प्रकृति अपने नियमों का पालन करती है और उनसे हम सीखते है कि किस प्रकार से अपना जीवन ठीक से चला सकेंगे। हमारे आस-पास के सभी पेड़ पौधे, नदी, तालाब तथा पर्वत पठार मैदान सभी से हम दिन रात सीखते रहते है वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दोनों रूप हो सकते है। और इन्ही से हम अपना ज्ञानार्जन करते रहते है इस प्रकार से प्रकृति हमें सीखाती है और हम सीखते है। 2. पुस्तकें (Books) – किताबें ज्ञान का प्रमुख स्रोत है प्राचीन समय मैं जब कागज का निर्माण नहीं हुआ था तब हमारे पूर्वज ताम्रपत्र, पत्थर तथा भोज पत्रों पर आवश्यक बाते लिखते थे और उन्ही के आधार पर चलते थे अर्थात् नियमों का अनुसरण करते थे इस प्रकार से प्रत्येक पीढ़ियाँ समयानुसार उनका उपयोग करती थी और सदैव अनुपालन करती थी। वर्तमान युग आधुनिकता का युग है आज के समय में सभी लोग पाठ्य पुस्तकों के द्वारा तथा प्रमुख पुस्तकों के माध्यम से अपना अध्ययन करते है इनके द्वारा हम ज्ञान वृद्धि कर चौगुनी तरक्की कर सकते है। आज के युग में प्रत्येक विषय पर हमें किताबे मिल सकती है यह ज्ञान का भण्डार होती है आज के समय में हम जिस विषय में चाहे उस विषय की पुस्तक खरीद सकते है और अपने ज्ञान का अर्जन कर-सकते है। ऑनलाइन भी ई-लाइब्रेरी के द्वारा अध्ययन कर सकते है। 3. इंद्रिय अनुभव (sense experience) – इंद्रिय अर्थात् शारीरिक अंग जोकि मनुष्य को उसकी जीवितता का आभास कराते है। वह सदैव उन्ही के द्वारा अनुभव करता जाता है, और संवेदना जागृत करता जाता है, यह संवेदना ही ज्ञान प्रदान करती है अनुभव के आधार पर वह प्रत्येक व्यक्ति अपनी कार्यशैली और प्रत्यक्षी करण कराती है, अर्थात् प्रत्येक पदार्थों से जो कि हमारे जीवन को चलाने में संचालित करते है उनके सहारे ही हम आगे बढते है तथा अपने जीवन में निरन्तर आगे बढ़ाते है। 4. साक्ष्य (Evidence) – साक्ष्य के द्वारा हम दूसरों के अनुभवों एवं आधारित ज्ञान को मानते है जो हम अपने अनुभवों के द्वारा ज्ञान प्राप्त करते है। साक्ष्य में व्यक्ति स्वयं निरीक्षण नहीं करता है दूसरों के निरीक्षण पर ही तथ्यों का ज्ञान लेता है। इस प्रकार से हम कह सकते है कि हम किसी अन्य के अनुभवों के द्वारा ही हम सीखते है। किसी अन्य के द्वारा किसी भी वस्तु का ज्ञान देना और समझाना तथा बताना और उसी बात को समझना ही साक्ष्य है। हमारा भौतिक वातावरण जो हमें प्रकृति के साथ रखकर कार्य करता है जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए उद्यत करता है, या प्रेरणा देता है वही साक्ष्य है। 5. तर्क बुद्धि (Logic intelligence) – प्रतिदिन जीवन में होने वाले अनुभवों से हमें ज्ञान प्राप्त होता है तथा यही ज्ञान हमारा तर्क में परिवर्तित हो जाता है, जब हम इसे प्रमाण के साथ स्पष्ट कर स्वीकार करते है अर्थात् तर्क द्वारा हम संगठित करके हम ज्ञान का निर्माण करते है। यह एक मानसिक प्रक्रिया है। 6. अंतर्ज्ञान (Intuition) – इसका तात्पर्य है किसी तथ्य को पा जाना। इसके लिए किसी भी तर्क की आवश्यकता नहीं होती है, हमारा उस ज्ञान में पूर्ण विश्वास हो जाता है। 7. अन्त:दृष्टि द्वारा ज्ञान (Knowledge through insight) – यह ज्ञान प्रतिभाशाली लोगों को अकस्मात कुछ बोध होकर प्राप्त होता है, जैसे महात्मा बुद्ध को बोधि वृक्ष के नीचे बैठने से ज्ञान प्राप्त हुआ और भी संत तथा महात्मा हुए है जिन्हें विभिन्न स्थानों पर बैठने से ज्ञान प्राप्त हुआ। कई मनाेि वज्ञानिकों द्वारा पशुओं पर किए गए प्रयोगों से सिद्ध हुआ कि समस्या से जुझते हुए जानवर अकस्मात समस्या का हल प्राप्त हो जाता है, ऐसा तब होता है जब वह समस्या की संपूर्ण जानकारी प्राप्त कर लेता है। 8. अनुकरणीय ज्ञान (Exemplary knowledge) मानव समाज में सभी मनुष्य विभिन्न मानसिक शक्तियों के है कुछ बहुत ही तीव्र बुद्धि वाले कुछ निम्न बुद्धि वाले होते है। इनमें जो प्रतिभाशाली होते है। वह प्रत्येक कार्य को इस प्रकार करते है कि वह सैद्धान्तिक बन जाता है। अत: उनके द्वारा किया गया किसी भी संग में कार्य जिसको हम स्वीकार करते है अनुकरणीय हो जाता है। अनुकरण के द्वारा ही हम सामाजिक कुरीतियों को दूर कर सकते है इसी के माध्यम से हम समाज को नई दिशा प्रदान कर सकते है। 9. जिज्ञासा (Curiosity) – जानने की इच्छा, समझने की इच्छा किसी भी विषय या प्रकरण को अर्थात शीर्षक को समझने की उत्सुकता ही जिज्ञासा है। जिज्ञासा मनुष्य के अन्र्तमन की एक ऐसी क्रिया है जो सदैव जानने, समझने हेतु प्रोत्साहित करती है, जब तक कि उसको पूर्णत: उत्तर नहीं मिल जाता और वह संतुष्ट न हो जाता है। संतुष्टि उसको तभी प्राप्त होती है, जब वह पूर्ण रूप से मन की जिज्ञासा को शांत नहीं कर लेता हैं। इस प्रकार से वह ज्ञान एकत्रित करता है तथा उसका सदैव उपयोग करता है। जिज्ञासा पूर्ण होने पर प्रत्येक व्यक्ति खोज, आविष्कार एवं अवलोकन तथा सीखने के माध्यम का उपयोग कर उसे दैनिक व्यवहार में लाता है और अपने अनुभवों को सांझा करता है जिससे अन्य लोगों में किसी भी कार्य को करने व आगे बढ़ने की उत्सुकता बढ़ती है। 10. अभ्यास (Practice) – अभ्यास के माध्यम से ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है। प्रत्येक मनुष्य अपने अनुभवों के माध्यम से सीखता है, प्रतिदिन वह नए अनुभवों को ग्रहण करता है और उसी को प्रमाण मानकर आगे कार्य रूप देकर उसे अपने जीवन में उतारता है तथा उसी के आधार पर प्रत्येक कार्य को करता है और आगे आने वाले सभी लोगों को इसी के अनुसार ज्ञान प्रदान करता जाता है। अभ्यास के माध्यम से ही विभिन्न आविस्कार हुए तथा हम आधुनिकता के इस युग में प्रत्येक कार्य को परिणाम तक पहुँचा सके है। यदि हमारा अभ्यास पूर्ण नहीं है तो हम परिणाम नहीं प्राप्त कर सकते है। प्रत्येक मनुष्य में ईश्वरीय देन है कि, वह अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुसार प्रत्येक क्षेत्र जिसमें उसको रूचि हो अभ्यास के द्वारा अच्छे कार्य करके उनका प्रदर्शन कर सकता है और समाज को एक नई दिशा प्रदान कर सकता है चाहे वह विज्ञान, समाज तथा शिक्षा या अन्य किसी भी क्षेत्र में हो उसी आधार पर वह अपने व्यक्तित्व अनुभवों को सदैव आविष्कारिक रूप में आगे बढ़ाता रहता है। 11. संवाद (Dialogue) – संवाद ज्ञान को प्रसारित तथा बढ़ाने का एक माध्यम है जिसके द्वारा हम ज्ञान प्राप्त करते है एवं इसको आत्मसात करते है, जैसे कि लोकोक्तियाँ एवं मुहावरों के द्वारा तथा अनेकों दार्शनिकों: समाज सुधारकों एवं विद्वजनो द्वारा प्रेरित अनुभवों के आधार पर संवाद के माध्यम से ज्ञान का प्रसारण करते है जो कि प्रत्येक मनुष्य को लाभान्वित करता है। संवाद के उदाहरण – ‘‘स्वच्छ भारत स्वस्थ भारत।’’ ‘‘पानी पीयो छानकर, गुरू करो जानकर।’’ पढे़गा इंडिया, बढे़गा इंडिया’’ आदि। इस प्रकार से कई संवाद प्रत्येक मनुष्य प्राणी के मन पर प्रभाव डालते है, जिससे ज्ञान का अर्विभाव होता है तथा वह प्रत्येक मनुष्य के मन मस्तिष्क पर अत्यधिक प्रभाव डालता है। ज्ञान का महत्व (Importance of knowledge) मानव जीवन में ज्ञान का बहुत अधिक महत्व है। मानव जीवन के लिये उसकी रीढ़ की हड्डी की तरह कार्य करता है इसलिए ज्ञान का महत्व आज और ज्यादा बढ़ गया है। ज्ञान का महत्व निम्नवत है- ज्ञान को मनुष्य की तीसरी आँख कहा गया है। ज्ञान भौतिक जगत और आध्यात्मिक जगत को समझने में मदद करता है। ज्ञान से ही मानसिक, बौद्धिक, स्मृति, निरीक्षण, कल्पना व तर्क आदि शक्तियों का विकास होता है। ज्ञान समाज सुधारने में सहायता करता है जैसे- अन्धविश्वास, रूढि़वादिता को दूर करता है। ज्ञान शिक्षा प्राप्ति हेतु साधन का काम करता है। ज्ञान अपने आप को जानने का सशक्त साधन है। ज्ञान का प्रकाश सूर्य के समान है ज्ञानी मनुष्य ही अपना और दूसरे का कल्याण करने में सक्षम होता है। ज्ञान विश्व के रहस्य को खोजता है। ज्ञान धन के समान है जितना प्राप्त होता है उससे अधिक पाने की इच्छा रखते है। ज्ञान सत्य तक पहुंचने का साधन है। ज्ञान शक्ति है। ज्ञान प्रेम तथा मानव स्वतंत्रता के सिद्धांतों का ही आधार है। ज्ञान क्रमबद्ध चलता है आकस्मिक नहीं आता है। तथ्य, मूल्य, ज्ञान के आधार के रूप में कार्य करते है। ज्ञान मानव को अंधकार से प्रकाश की और ले जाता है।
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Ajab Gajab

अजब गजब देश दुनिया की बातें

Ajab Gajab Duniya Hindi
अजब गजब देश दुनिया की बातें

  1. कछुए के दाँत नहीं होते
  2. हम जो साँस लेते हैं उस ऑक्सीजन में करीब 0.0005% मात्रा में हीलियम मिली होती है
  3. उड़ने वाले गुब्बारों में हीलियम गैस ही भरी होती है, ये गैस हवा से भी ज्यादा हल्की होती है, इसलिए ऊपर की ओर उड़ती है
  4. ऊँट भी इंसानों की तरह थूक सकते हैं
  5. शुतुरमुर्ग 70 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ़्तार से दौड़ लगा सकते हैं
  6. सूअर दुनियां के चौथे सबसे समझदार जानवर हैं
  7. डायनासोर घास नहीं खाते थे, उनके ज़माने में घास भी नहीं हुआ करती थी
  8. मगरमच्छ की जीभ उसके मुँह के ऊपरी हिस्से से चिपकी हुई होती है, ना ही मगरमच्छ की जीभ हिलती है और ना ही वो चबाने में मदद करती है लेकिन उससे बनने वाली लार स्टील और काँच तक को गला देती है
  9. फ़्रांस की राजधानी पेरिस में जितने व्यक्ति हैं उससे कहीं ज्यादा संख्या में कुत्ते हैं
  10. न्यूज़ीलैंड ऐसा देश है जहाँ 40 मिलियन लोग हैं और करीब 70 मिलियन भेड़ हैं
  11. मेंढक जब किसी कीड़े को सटकता है तो उसकी आँखें बंद हो जाती हैं
  12. शतरंज का अविष्कार भारत में ही हुआ
  13. साँप सीढ़ी वाला गेम 13 वीं शताब्दी में संत ज्ञानदेव ने बनाया
  14. दुनियां में सबसे ज्यादा डाकखाने भारत में स्थित हैं
  15. सन् 1896 तक भारत दुनिया का अकेला हीरा उत्पादक देश था
  16. 24 कैरेट वाला सोना भी पूरी तरह शुद्ध नहीं होता उसमें कुछ मात्रा में कॉपर मिलाया जाता है, एकदम शुद्ध सोने को हाथ से भी आसानी मोड़ा जा सकता है
  17. Electricity(बिजली) तार के अंदर होकर नहीं गुजरती बल्कि तार के चारों ओर होकर होकर गुजरती है
  18. दुनिया की पहली साईकिल 1817 में Baron von Drais ने बनायी थी जिसमें पैडल नहीं थे
  19. शुतुरमुर्ग की आँखें उसके दिमाग से ज्यादा बड़ी होती हैं
  20. चींटी सोती नहीं हैं
  21. डॉल्फिन मछली 5 से 8 मिनट तक अपनी साँस रोक सकती हैं
  22. फिंगर प्रिंट की तरह हर इंसान के जीभ के प्रिंट भी अलग अलग होते हैं
  23. कॉकरोच बिना सिर के भी 9 दिनों तक जिन्दा रह सकता है
  24. बिना पानी के, चूहा ऊँट से भी ज्यादा दिन जिन्दा रह सकता है
  25. दुनिया की करीब 10% जनसँख्या left-handed(बायें हाथ वाला) है
  26. डॉलफिन मछली एक आँख खुली रख के भी सो सकती है
  27. हाथी 3 मील दूर से ही पानी की गंध सूँघ सकता है
  28. दरियाई घोड़ा एक आम इंसान से तेज दौड़ सकता है
  29. तोता और खरगोश, दो अकेले ऐसे प्राणी हैं जो बिना अपना सर घुमाए ही पीछे की ओर देख सकते हैं
  30. ब्लू व्हेल धरती की सबसे बड़ी प्राणी है, इसका दिल एक कार जितना बड़ा है और जीभ हाथी के जैसी
  31. दुनिया की 90% बर्फ अंटार्कटिका में मौजूद है
  32. इसके बावजूद अंटार्कटिका एक रेगिस्तान जैसा है
  33. अंटार्कटिका सबसे ठंडा महाद्वीप है जहाँ माइनस -76% तापमान रहता है
  34. वृहस्पति सबसे बड़ा गृह है इसके अंदर करीब 1000 धरती समा सकती हैं
  35. शनि गृह पर बहुत तेज हवाएं चलती हैं इन हवाओं की गति 1,100 मील प्रति घंटा है
  36. रेडियो से आने वाली आवाज electromagnetic waves के जरिये आती है
  37. इंसान की जाँघ की हड्डी कंक्रीट से भी ज्यादा मजबूत होती है
  38. आप साँस रोककर खुद को नहीं मार सकते
  39. आपका दिल एक दिन में करीब 100,000 बार धड़कता है
  40. दाएँ हाथ(Right handed) वाले लोग बाएं हाथ(left-handed) वालों से करीब 9 साल ज्यादा जीते हैं
  41. हाथी अकेला ऐसा प्राणी है जो उछल नहीं सकता
  42. कोका कोला में अगर रंग ना मिलाया जाये तो यह हरे रंग की होती है
  43. आँखें खुली रखकर आप छींक नहीं सकते
  44. Albert Einstein की मृत्यु के बाद वैज्ञानिकों ने उनका दिमाग निकाल कर रख लिया था ताकि वो जाँच कर सकें की उनका दिमाग इतना तेज कैसे था
  45. अमेरिका के Robert Wadlow दुनिया के सबसे लम्बे आदमी हैं उनकी लम्बाई 8 ft 11.1 इंच है
  46. चाइना की Zeng Jinlian दुनिया की सबसे लम्बी औरत हैं इनकी लम्बाई 8 ft 1 ¾ इंच है
  47. जिराफ की जीभ 21 इंच तक लम्बी होती है, अपनी जीभ से जिराफ अपने कान तक साफ कर लेते हैं
  48. एक इंसान बिना खाने के 1 महीने तक जिन्दा रह सकता है लेकिन बिना पानी के 1 हफ्ते भी नहीं रह सकता।
  49. अगर आपके शरीर से 1% पानी निकाल दिया जाये तो आपको बहुत तेज प्यास लगने लगेगी और अगर 10% पानी निकाल दिया तो आपकी मृत्यु तक हो सकती है
  50. श्रीलंका में 1896 में आसमान खून की बारिश हुई थी, एक रिसर्च में यह बात सामने आयी है
  51. बोतल वृक्ष – नामीबिया में पाया जाने वाला ये वृक्ष धरती के सबसे खतरनाक वृक्षों में से एक है| इस वृक्ष से दूधिया रस निकलता है जो एक तीव्र जहर होता है जिसे प्राचीन काल में शिकारी अपने तीरों पर लगाया करते थे| इस वृक्ष का आकार बोतल जैसा होता है इसलिए इसे बोतल वृक्ष कहते हैं|
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