सनातन’ का अर्थ है – शाश्वत या ‘सदा बना रहने वाला’, अर्थात् जिसका न आदि है न अन्त। सनातन धर्म मूलतः भारतीय धर्म है, जो किसी समय पूरे बृहत्तर भारत (भारतीय उपमहाद्वीप) तक व्याप्त रहा है और यह एक समय पर विश्व व्याप्त था परंतु विभिन्न कारणों से हुए भारी धर्मान्तरण के उपरांत भी विश्व के इस क्षेत्र की बहुसंख्यक जनसंख्या इसी धर्म में आस्था रखती है।
Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!सनातन धर्म एक ऐसी व्यवस्था है जहां संपूर्ण विश्व को एक ही रूप में देखा जाता है यहां प्रत्येक जीव को परमात्मा के स्वरूप में देखा जाता है सनातन शब्द में ही इसका भाव छुपा है सनातन “सनातन धर्म” का अर्थ “सना+तन” “ध+रम”। “सना” का अर्थ “श्वास” से “तन”का अर्थ “शरीर” से है। जब मनुष्य जन्म लेता तो वह जब पहली श्वास से इसकी शुरुआत होती है तो इसे सनातन कहते है। इसको जब हम उल्टा करते हैं तो शब्द बनता है नतनास (जो सदैव दूसरों की सेवा में नतमस्तक होकर रहता है उसका कभी नाश नहीं होता)सनातन धर्म प्रत्येक प्राणी को अपनी इच्छा के अनुरूप जीवन जीने का अधिकार देता है यहां भली-भांति यह सीख दी जाती है की सर्वप्रथम आप अपने माता-पिता को भगवान के स्वरूप में पूजा (सेवा) करें फिर उसके बाद जो पशु हमें दूध पिलाते हैं जैसे गौ माता व समस्त पशुधन जिसकी होली और दीपावली पर पूजा की जाती है व श्रृंगार किया जाता है जिससे हमारे बच्चों में सदैव प्रत्येक जानवर के प्रति प्रेम और मातृत्व का भाव बना रहे यह हमारे वेद और पुराणों की ही तो शिक्षा है जिसकी वजह से दत्तात्रेय नमक संत हुए थे जो भगवान के अवतार कहा आए थे उनके 24 गुरु बने थे जिम कुत्ते घोड़े गधे तक भी शामिल थे यह सनातन ही तो है जहां अपनी मिट्टी से इतना प्रेम होता है की मिट्टी के हर कण में उसे परमात्मा के अंश को देखा है समस्त जीव और जीवन के बीच अखंड प्रीति अगर कहीं देखी जा सकती है तो वह एकमात्र सनातन धर्म जिसको वर्तमान में हिंदू धर्म कहते हैं बस यही है इसके अलावा नजर प्रसार कर देखो इतना अधिक प्रेम जीवन के प्रति दिखाई नहीं देता
हमारे भारत की इस धरती पर महापुरुषों की कमी नहीं हुई कभी जिसकी वजह अगर देखी जाए तो वह सिर्फ यही है की सनातन हमें जीवो के प्रति प्रेम रखते हुए सभी के प्रति त्याग का भाव सीखना है और यह त्यागी तो है जो मनुष्य को बड़ा बनता है वह वृक्ष किस काम का जो किसी को छाया ही ना दे जो बुके की भूख ना मिटा सके वह भी किसी काम का इसलिए संसार में अगर कोई भगवान का स्वरूप है तो वह त्याग है बलिदान है जो हमेशा दूसरों के लिए अपना सर्वस्व स्वाहा करने में तत्पर रहता है
आज हमारे देश में अक्सर देखने में आता है की राजनीतिक संगठन जो अपने आप को धर्म के पहरेदार बात कर संसार को बरगलाकर अपनी झूठी चिकनी चुपड़ी बातों से मुर्ख बनाकर धर्म की नई नई परिभाषाएं बताते हैं पर सच पूछो तो वह धर्म नहीं हो सकता जहां निजता के स्वार्थ छुपे हो वह धर्म कभी नहीं हो सकता जहां सिर्फ हम अपना ही भला सोचते हो अपने परिवार का भला सोचते हो धर्म सिर्फ वही है जहां निजता को छोड़कर सर्वव्यापी एक रूप संसार को जैसे हम सांस लेते हैं वही सांस प्रत्येक जीव लेता है जो सूर्य के ताप से प्रत्येक प्राणी अपनी दिनचर्या पूरी करता है और वह समंदर का पानी जो सबके लिए समान रूप से प्रवाहित होता है और वह धरती जिसके आंगन पर सभी समान रूप से जीवन यापन करते हैं और वह आसमान जिसकी छत के तले सभी एक घर बनाकर जीवन यापन करते हैं यह सब समझते हुए भी इतनी दूरी होने की वजह सिर्फ अज्ञान रूपी अधर्म है वह धर्म कभी नहीं होता जो एक दूसरे को तोड़ता हो धर्म का कार्य सिर्फ जोड़ना अपनी वास्तविकता का ज्ञान करवाना है
क्या हमारे देश में भगवान के स्वरूप में भगवत गीता के अर्जुन और कृष्णा अवतार नहीं हुए क्या रामायण के राम अवतार नहीं हुए अगर वर्तमान स्थिति देखें तो क्या गौतम बुद्ध अवतार नहीं हुए क्या महावीर अवतार नहीं हुए क्या पैगंबर अवतार नहीं हुए और तो और कुछ दिनों पहले एक मदर टेरेसा के नाम से स्त्री क्या वह अवतार नहीं थी और तो और सरल भाषा में समझा जाए तो क्या यहां जीवित प्रत्येक वह प्राणी जो सदैव अपने जीवन को लोक हितार्थ समस्त जन कल्याणकारी कार्यों में लगाने वाला अवतार नहीं है बिना हरि कृपा के बिना परमात्मा की कृपा की किसी से कोई सेवा नहीं हो सकती सेवा सिर्फ वही होगी जहां परमात्मा का अवतरण हुआ है और मैं ऐसे लोगों को जो सदैव सेवा में तल्लीन रहते हैं वे चाहे किसी भी संप्रदाय से हैं उदाहरण के लिए वह अपने आप को ईसाई धर्म कहते हैं चाहे मुसलमान धर्म चाहे सिख धर्म चाहे जैन धर्म और अनंत जिनका मैं यहां बखाना नहीं कर सकता वे सब कथा कथित धर्म इन सब में भी अगर ऐसा इंसान हो जो त्यागी हो सेवक हो ज्ञानी हो और गुनी हो तो मैं उसको भगवान का अवतार ही समझूंगा इसके अगर किसी की विपरीत सोच है तो उसे मैं धर्म ना समझ कर अधर्म मानता हूं
काश हमारे देश में वेद और पुराणों की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाती अगर ऐसा होता तो यहां हमारा समाज छोटे-छोटे टुकड़ों में बिखरता नहीं यह अज्ञान ही तो हैजो संप्रदाय विशेष को धर्म कहते हैं जबकि धर्म का भाव सेवा से वह किसी भी संप्रदाय विशेष का व्यक्ति कर सकता है और जो सेवा देने की चेष्टा में तत्पर रहता है वही तो अधर्म है ज्यादातर प्राणी धर्म की मर्यादाओं को भूलकर अधर्म के साथ ही रहना पसंद करते हैं क्योंकि अधर्म में सब कुछ फोकट का मिलता है धर्म एक तपस्या है वह सभी प्राणी नहीं करते यह सब मेरे व्यक्तिगत विचार है
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