जीवन एक तृष्णा संसार में जन्म लेने के बाद माया के कुचक्र में फंसने से इस तृष्णा नाम की बीमारी का जन्म होता है यह तृष्णा नाम की बीमारी माया के कुचक्र जाल में फंस कर और ज्यादा बढ़ जाती है मनुष्य अपने आपको भूलने लगता है और ध्यान में उसकी तृष्णा ही रहती है इस रोग का इलाज सिर्फ ध्यान ज्ञान ही है अगर यह नहीं हो तो यह बढ़ती बढ़ती इतनी बढ़ जाती है कि कभी नहीं मिटती यह जानते हुए कि मृत्यु निश्चित है कब आ जाए कोई भरोसा नहीं फिर भी यह बीमारी मनुष्य को चौतरफा घिरी रहती है ना मनुष्य को जीवन जीने का उद्देश्य ध्यान में आने देती और ना ही मृत्यु के बाद क्या हो, यह पहचानने की बुद्धि देती, इस बीमारी के हो जाने से धीरे धीरे सब पतन होने लगता है अभिलाषा जागती हैं पर फिर भी मनुष्य का पतन होने लगता है आखिरकार यह तृष्णा नर्क की राह पर ले जाती है अगर समय रहते ध्यान और ज्ञान से इसका उपाय किया जाए तो संभव है इलाज है परंतु इसके अलावा सिर्फ और सिर्फ परमात्मा ही इस रोग से मुक्त कर सकते हैं
Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!आमतौर पर देखने में पाया जाता है कि लोग बाग हमेशा ऐसी बातें करते हुए पाए जाते हैं वह मुझे देख लेगा वह मुझसे आगे निकल गया है मैं उसकी बराबरी कैसे करूं उसके पास मेरे से ज्यादा शक्तियां हैं उसके पास मेरे से ज्यादा धन है उसके पास मेरे से ज्यादा संपत्ति है क्या कभी मैं भी ऐसा बन पाऊंगा बस इसी प्रयास में लगभग सारा जीवन व्यतीत हो जाता है कभी मनुष्य ऐसा नहीं सोचता मैं कहां से आया हूं मैं क्यों आया हूं मुझे किसने भेजा है मेरे जीवन का क्या उद्देश्य है क्या मैं भी परमात्मा का स्वरूप हूं अगर ऐसा भाव मनुष्य रखने लगे कि संसार में जो भी मैं देखता हूं जो भी मैं सुनता हूं जो भी मैं महसूस करता हूं जो भी मैं सुनता हूं सब कुछ मेरा ही स्वरूप है मैं ही सर्व व्याप्त हूं मैं कभी नहीं मरता मैं कभी नहीं जन्म था मैं यही था यही हूं और यही रहूंगा पूरे ब्रह्मांड में जहां तक नजर जाती है जो भी दिखता है वह मेरा ही स्वरूप है अगर ऐसा भाव मनुष्य के भीतर भरा हो तो यह तृष्णा नाम की बीमारी कभी निकट नहीं आती ऐसी सोच वाला व्यक्ति हमेशा धनी रहता है उसके पास कुछ भी ना होते हुए भी सब कुछ होने का भाव हमेशा रहता है यही ईश्वर की कृपा है हमेशा अपनी सोच सकारात्मक और सार्थक रखनी चाहिए दूसरों को पीड़ा देने से पहले यह सोचना चाहिए कि वह पीड़ा मेरी ही है और उस पीड़ा का दंड हमेशा मुझे ही मिलना है
मैं जहां तक सोचता हूं ईश्वर ने दिन और रात बनाया है सुख और दुख बनाया है भला और बुरा बनाया है देवता और राक्षस बनाया है और यह सब ईश्वर का ही स्वरूप है बुराई में भी ईश्वर बैठते हैं भलाई में भी सर बैठते हैं जहां देखो वहां आपको ईश्वर ही दिखेंगे क्योंकि साधारण भाषा में अगर समझ ना चाहो तो हमारे शरीर में भी ऐसे अंग हैं जिन अंगों से हमें ला जाती है हम हमेशा उनको छुपा कर रखते हैं पर कभी उनको काटकर तो नहीं फेंकते क्योंकि उनका भी हमारी सेवा में कार्य रहता है ठीक इसी प्रकार दुष्ट व्यक्ति भी ऐसा ही होता है हम उसका नाम लेने से हिचकी चाहते हैं हमें शर्म आती है कि हमारा कोई शत्रु व्यवहार करने वाला व्यक्ति है पर फिर भी है तो वह भी हमारा ही हमेशा प्रेम से जियो यही ईश्वर सेवा है और यही तपस्या है और यही त्याग है समझदार ओं के लिए तो इशारा ही काफी होता है धन्यवाद आपने मेरे विचारों को पढ़ा और समझा मेरी आत्मा को शांति मिलती है जब आप मेरे विचारों को ध्यान देते हैं
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